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पूरी की रथ यात्रा की तर्ज पर बीरभूम के तारापीठ में नगर भ्रमण पर निकलती है मां तारा

बंगाल में और भी कई तरह की रथ की सवारी होती है. जिनमें सबसे उल्लेखनीय मां तारा का रथ है. जगन्नाथ की रथ यात्रा के दिन ही बीरभूम जिले के तारापीठ मंदिर से जग जननी मां तारा की रथ निकलती है. उसी उल्लास के साथ भक्त लाखों की संख्या में मां तारा की रथ यात्रा में शामिल होते है.

मुकेश तिवारी, बीरभूम. उड़ीसा के पूरी की रथ यात्रा यानी जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा. यह विचार कई युवा और वृद्धों में मौजूद है. बहुत से लोगों को यह खयाल नहीं है कि अन्य देवी देवता अथवा भगवान भी रथ पर सवार होकर निकल सकते हैं. लेकिन बंगाल में और भी कई तरह की रथ की सवारी होती है. जिनमें सबसे उल्लेखनीय मां तारा का रथ है. जगन्नाथ की रथ यात्रा के दिन ही बीरभूम जिले के तारापीठ मंदिर से जग जननी मां तारा की रथ निकलती है. उसी उल्लास के साथ भक्त लाखों की संख्या में मां तारा की रथ यात्रा में शामिल होते है.

रथ की शुरुआत कैसे हुई?

रथ यात्रा के बारे में बात करते समय सबसे पहले जो बात दिमाग में आती है वह है पुरी रथ. आषाढ़ मास की शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ श्रीमंदिर से अपनी मौसी के घर चले जाते है. बंगाल में भी इस दिन महेश, गुप्ती पाड़ा आदि कई स्थानों पर भव्य समारोहों में रथों का आयोजन किया जाता है. लेकिन जगन्नाथ ही नहीं. इसी दिन अन्य देवी देवता भी रथ में बैठे होते है. बीरभूम का तारापीठ मंदिर न केवल बंगाल में, बल्कि पूरे देश में सती पीठ के रूप में प्रसिद्ध है. यहां मां तारा देवी की स्थापना उनके सबसे परम भक्त साधक बामा खेपा ने की. बामा खेपा का साधना क्षेत्र तंत्र साधना के संस्थानों में से एक तारापीठ को माना जाता है. कहा जाता है कि यह शक्तिपीठ 200 वर्ष से भी अधिक पुराना है. देश के अधिकांश महापुरुषों ने अपने जीवन का कुछ हिस्सा इस मंदिर में बिताया है. मंदिर के आसपास कई लोक कथाएं प्रचलित हैं. लेकिन यह मंदिर एक और कारण से विशेष रूप से लोकप्रिय है. वह है रथ यात्रा. भगवान जगन्नाथ के रथयात्रा के दिन मां तारा को रथ पर सवार होकर नगर की परिक्रमा कराई जाती है. मां तारा को रथ पर विराजमान देखने के लिए हजारों लाखों की संख्या में भक्तों की भीड़ मंदिर से सटी सड़कों पर उमड़ पड़ती है.

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कहा जाता है कि तारापीठ के प्रसिद्ध संत आनंदनाथ द्वितीय ने तारापीठ के रथ की शुरुआत की थी. उस समय पीतल का रथ बनाया गया था. जिसे आज भी संभाल कर रखा गया है. रथ यात्रा पर हर साल मां तारा को इसी पीतल के रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकाला जाता हैं. इस दिन मुख्य मंदिर में मां की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. आरती उस पूजा का विशेष अंग होता है. इस दिन मां की आरती अन्य दिनों की अपेक्षा थोड़ा अधिक समय तक की जाती है. फिर मां को राज भेज पहनाया जाता है. इस बीच पीतल के रथ को भी खूबसूरती से सजाया जाता है और मंदिर के बाहर रखा जाता है.आरती के अंत में राजसी वस्त्र धारण कर मां तारा को उस रथ में बिठाया जाता है. रथ बहुत बड़ा नहीं है. अत: मां तारा पूरे रथ पर विराजमान रहती है. परिचारक रथ पर घेर लेते हैं. उनके पास बतासा और मंडा से भरी टोकरी मौजूद रहती है. दोनों ही माता के प्रसाद हैं. रथ के चलने के दौरान भक्तों को प्रसाद वितरण किया जाता है.सब उत्सुकता से प्रसाद ग्रहण करते है. मान्यता है कि देवी के इस विशेष प्रसाद को ग्रहण करने से पुनर्जन्म नहीं होता है. इसलिए हर साल मां तारा की रथ यात्रा में भाग लेने के लिए दूर दराज से भी श्रद्धालु तारापीठ आते हैं. एक ओर भगवान जगन्नाथ मौसी के घर की ओर बढ़ते हैं. और वही देवी मां तारा के रूप जगरनाथ को नगर में विचरण कराया जाता है. जिन लोगों ने दोनों दृश्य देखे वे भाग्यशाली होते है.

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