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2024 का चुनाव और किसानों की मांग

भारत दुनिया के अग्रणी उत्पादक और निर्यातक देशों में शामिल है, यह सब को गर्व अनुभव कराने के लिए पर्याप्त है, लेकिन इतना होते हुए भी किसान आत्महत्या करने पर मजबूर है. आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारतीय किसान कर्ज में जन्म लेता है, कर्ज में ही पूरा जीवन रहता है और कर्ज में ही मर जाता है.

पिछले वर्ष सरकार द्वारा लाये गये कृषि कानूनों के विरोध में किसानों को लगभग एक साल तक दिल्ली को घेर कर आंदोलन करना पड़ा, अंत में सरकार को झुकना पड़ा और तीनों अध्यादेश वापस लेने पड़े. जीवन-मरण के इस संघर्ष में किसानों को आंशिक सफलता भले ही मिल गयी, लेकिन जो उनका असल मुद्दा है, वह अब भी जस-का- तस है. एक बार फिर किसान एमएसपी की मांग को लेकर आंदोलन करने को मजबूर हैं, जो हरियाणा के पीपली में प्रारंभ हो चुका है. मौजूदा किसान आंदोलन किसी किताबी आंकड़े से नहीं, बल्कि ठोस जमीनी हालात से पैदा हुआ है, जिसने देश के सत्ता ढांचे और इस सरकार के मूल चरित्र को सामने ला दिया है. आज भले ही देश को आजाद हुए 75 साल हो गये हों, किसान की स्थिति ज्यों-की-त्यों है.

किसान गरीब-से-गरीब होता जा रहा है. किसानों की दुर्दशा के लिए सभी सरकारों की नीतियां जिम्मेदार रही हैं. मोदी सरकार ने अपनी नीतियों से इस समस्या को और गंभीर बना दिया है. इसलिए उसके शासन काल के मात्र तीन साल पूरा होते-होते देश के विभिन्न राज्यों में किसान आंदोलन उठ खड़े हुए. मोदी सरकार की नीतियों को पूंजीपतियों का पोषक और शहरी वर्ग केंद्रित माना जाता है. उसने सत्ता में आते ही अपने शहरी समर्थक वर्ग को खुश रखने के लिए मुद्रास्फीति को कृत्रिम रूप से नियंत्रित रखने की जो नीति अपनायी, कृषि क्षेत्र उसका पहला शिकार बना.

इसके तहत एक तरफ राज्य सरकारों को कृषि पैदावार पर बोनस देने से रोका गया, तो दूसरी तरफ एमएसपी में समय के साथ उचित बढ़ोतरी करने की बजाय खाद, कीटनाशक, डीजल आदि जैसे कृषि साधनों की कीमत पर निजीकरण के नाम पर रहा-सहा सरकारी नियंत्रण भी खत्म कर दिया. इस वजह से इन वस्तुओं के दाम तेजी से चढ़े, जिससे खेती और भी अधिक घाटे का व्यवसाय बन गयी है. नवंबर 2016 में लागू की गयी नोटबंदी ने ग्रामीण इलाकों में नकदी के प्रवाह को अचानक रोक कर संकट को और भीषण बना दिया.

यदि देखा जाए, तो भारत की स्वतंत्रता से पूर्व तथा इसके पश्चात एक लंबी अवधि व्यतीत होने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में नाम मात्र का ही सुधार दिखाई देता है. बढ़ती आबादी, औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में जहां निरंतर गिरावट आ रही है, वहीं घाटे का सौदा होने के कारण युवाओं का मन खेती से विरक्त होता जा रहा है. यह भविष्य में आते हुए खाद्य संकट का एक संकेत है. भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका है. कृषि हमारे आर्थिक सामाजिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम रही है. भारत के लोगों के लिए कृषि मात्र एक जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि एक जीवन पद्धति है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 55 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे संबंधित कार्यों में लगी हुई है.

वर्तमान कीमतों के अनुसार वर्ष 1950-51 में भारत की जीडीपी में कृषि का योगदान 52 प्रतिशत था, जो वर्ष 2013-14 में 18 प्रतिशत रह गया. भारतीय केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, 2016-17 में कृषि और संबंधित क्षेत्रों का योगदान गिर कर 17.4 प्रतिशत रह गया है. कृषि क्षेत्र में गिरावट के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका योगदान वैश्विक औसत 6.1 प्रतिशत से अधिक है. विश्व में कृषि योग्य भूमि के मामले में भारत 15.74 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि होने के कारण दूसरे स्थान पर है. दुनिया में मात्र 15 जलवायु क्षेत्र हैं, जबकि भारत में कृषि जलवायु क्षेत्र की संख्या 20 है. भारत दुनिया के अग्रणी उत्पादक और निर्यातक देशों में शामिल है, यह सब को गर्व अनुभव कराने के लिए पर्याप्त है, लेकिन इतना होते हुए भी किसान आत्महत्या करने पर मजबूर है. आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि भारतीय किसान कर्ज में जन्म लेता है, कर्ज में ही पूरा जीवन रहता है और कर्ज में ही मर जाता है. हालात यहां तक आ गये हैं कि यदि फसल अच्छी न हो ,तो किसान आत्महत्या कर लेता है और यदि फसल अच्छी हो भी जाए, तो मंडी में उपज का वह दाम नहीं मिलता, जिस दाम की अपेक्षा रख कर वह मेहनत करता है.

किसान की आत्महत्या का कारण केवल फसलों का सही प्रकार से मुआवजा नहीं मिल पाना ही नहीं है. भूजल के स्तर में भारी गिरावट भी किसान की बेहाली का सबसे बड़ा कारण माना जा सकती है. अभी हाल ही में हैदराबाद में कंसोर्टियम ऑफ इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन (सीआइएफए) के बैनर तले 25 से भी ज्यादा संगठनों ने हिस्सा लिया. इसमें सभी ने एक स्वर में 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों से किसानों की मांगों को अपने-अपने घोषणापत्र में शामिल करने की मांग की. संगठनों द्वारा किसानों आयोग की स्थापना के साथ केंद्रीय कृषि मंत्री को उपप्रधानमंत्री का दर्जा, व्यवसाय की तर्ज पर कर्मचारियों की तरह किसानों की आय सुनिश्चित करने के उपाय के साथ मनरेगा में किसानों को सम्मिलित करने की मांग शामिल है.

घोषणापत्र में उर्वरक, कीटनाशकों, ट्रैक्टर, हार्वेस्टर जैसे कृषि साधनों पर सब्सिडी बढ़ाने और जीएसटी घटाने, 50 प्रतिशत सब्सिडी पर डीजल उपलब्ध कराने के साथ दीर्घ अवधि के मार्केटिंग के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम को हटाने और कृषि उत्पादों की आवाजाही पर लगे प्रतिबंध हटाने की मांग की गयी. जंगली सूअर, नीलगाय और बंदरों से फसलों को होते नुकसान को रोकने के लिए स्थानीय ग्राम पंचायतों को जंगली जानवरों के निष्पादन का अधिकार देेने और रिमोट सेसिंग तकनीक का प्रयोग कर 30 दिनों के भीतर फसलों को हुए नुकसान का आकलन कर फसल बीमा के भुगतान की गारंटी देने की भी मांग की गयी. फसलों की वास्तविक एमएसपी तय करने के लिए सीएसीपी को एक स्वायत्त संस्था के रूप में पुनर्गठित करने एवं कॉमोडिटी बोर्ड में किसानों की सदस्यता बढ़ाते हुए, किसानों में से ही अध्यक्ष चुनने की मांग की गयी.

सरकार द्वारा प्रसंस्करण उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले किसानों के साथ लाभ साझा करने के लिए प्रोत्साहन देने की भी मांग की गयी. विकसित देशों में किसानों को प्रति हेक्टेयर सीधे-सीधे खेती करने के लिए सब्सिडी दी जाती है. यूरोपीय देशों की तरह सरकार को भी किसानों की एकमुश्त आमदनी सुनिश्चित करनी चाहिए. खेती के सहायक उद्योग पशुपालन और अन्य उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए, जिनका उद्देश्य किसानों की आमदनी को बढ़ाते हुए, उनके जीवन स्तर को सुधारना है. देश का भाग्य विधाता किसान तभी चैन की नींद सो पायेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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