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आर्थिक तरक्की के गुमनाम नायक

अर्थव्यवस्था में छोटे व्यवसायों के योगदान की पहचान और सम्मान दोनों जरूरी है. साथ ही, बढ़ती असमानता को भी पहचाना जाना चाहिए. बड़ी कंपनियों का मुनाफा बढ़ना, और एमएसएमइ का मिटते जाना अर्थव्यवस्था और समग्र विकास के लक्ष्यों के लिए नुकसानदेह है.

सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम के महत्व को दर्शाने के लिए संयुक्त राष्ट्र हर वर्ष 27 जून को अंतरराष्ट्रीय एमएसएमई दिवस मनाता है. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2017 में यह दिवस मनाने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि ये उद्यम वर्ष 2030 तक सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अहम हैं. वर्ष 2015 में ऐसे 17 लक्ष्यों को 15 वर्षों में हासिल करने का संकल्प लिया था. इनमें पहला लक्ष्य गरीबी खत्म करना था. एमएसएमइ इस पहले लक्ष्य समेत, कुल छह लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होंगे. ये लक्ष्य रोजगार सृजन और आर्थिक प्रगति, असमानता कम करने और शिक्षा तथा कौशल बढ़ाने से संबंधित हैं. एमएसएमइ किसी भी उभरती अर्थव्यवस्था के गुमनाम नायक हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पूरी दुनिया के कुल व्यवसायों में 90 फीसदी यही उद्यम होते हैं, जिनसे 70 फीसदी लोगों को रोजगार मिलता है और वे जीडीपी में 50 फीसदी का योगदान करते हैं.

भारत में भी, वैसे तो ध्यान ज्यादातर विनिर्माण क्षेत्र पर होता है, मगर आधे से ज्यादा रोजगार, उत्पादन और निर्यात एमएसएमइ उद्यमों से मिलता है. लेकिन, बैंकों से उन्हें 20 फीसदी से भी कम कर्ज मिलता है. इस वजह से, उन्हें कारोबार चलाने के लिए अपने परिवार और दोस्तों, या महाजनों या ऐसे ही किसी अनौपचारिक स्रोत पर निर्भर रहना पड़ता है. और, यदि वो बी2बी उद्यम हों, यानी बड़ी कंपनियों को उत्पाद देने वाले उद्यम हों, तो वे अपने ग्राहकों की दया पर टिके होते हैं, जो उनके लिए माई-बाप समान होते हैं. वैसे, यह बात उतनी अजीब नहीं, जितना सुनने में लगती है.

जैसे, रेलवे 10 लाख उद्यमों या वेंडरों से सामान खरीदता है, यानी चादर-कंबल, खाने के सामानों से लेकर नट-बोल्ट बेचने वाले इन लाखों वेंडरों का इकलौता ग्राहक रेलवे है. दरअसल, बड़ी कंपनियों और सरकारों के लिए वेंडरों का विकास एक बड़ी उपलब्धि है. भारत में तेजी से ऊपर जाते ऑटो और ऑटो सामग्रियों से जुड़े क्षेत्र से हजारों छोटे वेंडर जुड़े हैं, जिनका बड़ी ऑटो कंपनियों से सह-अस्तित्व का संबंध होता है. मगर जब बाजार मंदा होता है तो छोटे उद्यम फंस जाते हैं, क्योंकि उनके भुगतान में देरी होने लगती है. अगर ये छोटे सप्लायर कभी भुगतान के लिए अदालत जाने के बारे में सोचते भी हैं तो उनके सामने कंपनियों की नाराजगी और ब्लैकलिस्ट होने तथा ग्राहक छूट जाने का जोखिम रहता है.

भारतीय कानून में छोटे वेंडरों को समय पर भुगतान मिलने की व्यवस्था की गयी है. वर्ष 2006 के एमएसएमइ कानून के तहत भुगतान में 45 दिन से ज्यादा देर करना गैर-कानूनी है. मगर, कितनी बड़ी कंपनियों ने कोई जुर्माना दिया है? शायद एक भी नहीं. इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड कानून के तहत, छोटे कारोबारी भुगतान नहीं होने पर बड़े ग्राहकों पर मुकदमा कर सकते हैं. पहले इस भुगतान की सीमा एक लाख रुपये रखी गयी थी, मगर कोविड के दौरान इसे बढ़ाकर एक करोड़ रुपये कर दिया गया, क्योंकि सरकार नहीं चाहती थी कि छोटे भुगतानों के लिए मुकदमों की बाढ़ लग जाए. लेकिन, इन कानूनी अधिकारों का छोटे सप्लायर लाभ नहीं उठा पाते, क्योंकि उन्हें जिन ग्राहकों को अदालत में घसीटना होता है, उन्हीं के भरोसे उनकी रोजी-रोटी चलती है.

समग्र रूप से भुगतान का ये संकट बहुत बड़ा है. ऐसा अनुमान है कि लगभग 10 लाख करोड़ रुपये का भुगतान अटका हुआ है. इसमें यदि ब्याज को गिना जाए, जो कि 10 प्रतिशत है, तो केवल उसका भार एक लाख करोड़ रुपये बैठता है. यानी, यदि भुगतान का संकट सुलझ जाए, तो बाजार में एक लाख करोड़ रुपये आ जाएंगे और एमएसएमइ क्षेत्र को ताकत मिलेगी. रिजर्व बैंक ने भी समस्या के हल के लिए ऑनलाइन पेमेंट की व्यवस्था की है, मगर बैंक के प्रयास के बावजूद इसे गति नहीं मिल पायी है. अंततः भुगतान में देरी का ये संकट नैतिकता से जुड़ा है. उद्योग संगठनों को अपने सदस्यों, खासतौर पर बड़ी कंपनियों, से ये संकल्प लेने के लिए कहना चाहिए कि वे छोटे वेंडरों के भुगतान 45 दिनों के भीतर कर दें. इसे एक राष्ट्रीय आंदोलन भी बनाया जा सकता है, और प्रधानमंत्री को बड़ी कंपनियों नैतिक दबाव डालने के लिए अभियान चलाना चाहिए.

भारत को यदि अगले दशक में हर वर्ष एक से डेढ़ करोड़ रोजगारों का सृजन करना है, तो यह बड़े उद्यमों से मुमकिन नहीं है, ना ही सरकार से, सेना से, पोस्ट ऑफिस से या रेलवे से. तो, एक करोड़ नौकरियों के सृजन के लिए हर वर्ष कम-से-कम 50 लाख छोटे उद्यमों का सृजन जरूरी है. इसके लिए ना केवल कारोबार को और सुगम बनाने की जरूरत है, बल्कि कारोबार शुरू करने और कोई कारोबार बंद करने की प्रक्रिया को भी सुगम बनाना होगा. कागजी कार्रवाई और इंस्पेक्टर राज अभी भी भारत के किसी भी कोने में नये कारोबार की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं. इनके लिए अभी भी परमिट और शहर तथा राज्य के सरकारी दफ्तरों से अनुमति लेनी होती है या निबंधन कराना होता है. इस प्रक्रिया के पूरा होने के समय को लेकर अनिश्चितता भी बनी रहती है. फिर, भ्रष्टाचार एक अलग समस्या है. छोटे उद्यमियों को वित्तीय और तकनीकी विषयों की भी बहुत जानकारी नहीं होती, जिससे उनकी असहायता और बढ़ जाती है. छोटा कारोबारी ऐसा महसूस करता है कि उसका ज्यादातर समय अपने कारोबार और उसकी मार्केटिंग पर ध्यान देने की जगह, सरकारी फॉर्म भरने और जीएसटी आदि की जानकारी लेने में ही बीत रहा है.

भारत में लगभग छह करोड़ 40 लाख उद्यम हैं, जिनमें से 99 फीसदी सूक्ष्म, लघु और नैनो और यानी बहुत छोटे उद्यम हैं. उन्हें नीतिगत तौर पर जो सहायता चाहिए, वे हैं- पूंजी की व्यवस्था (और भुगतान में देरी से पूंजी फंसने से निजात), कारोबार शुरू करने, चलाने और बंद करने की सुगमता, किफायती तकनीकी और डिजिटल साधन, और वित्तीय साक्षरता (ताकि बिना परेशानी के बैलेंस शीट और भुगतान को संभाला जा सके). भारतीय कृषि भी छोटे उद्यमों का विशाल सागर है, जहां 14 करोड़ छोटी जोत वाले किसान उद्यम समान हैं. अर्थव्यवस्था में छोटे व्यवसायों के योगदान की पहचान और सम्मान दोनों जरूरी हैा. साथ ही, बढ़ती असमानता को भी पहचाना जाना चाहिए. बड़ी कंपनियों का मुनाफा बढ़ना, और एमएसएमइ का मिटते जाना अर्थव्यवस्था और समग्र विकास के लक्ष्यों के लिए नुकसानदेह है. समग्र विकास का मतलब सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों का विकास है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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