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National Doctor’s Day: देश में जरूरत से 10 गुना कम हैं डॉक्टर, प्रभावित हो रहे रोगियों के साथ रिश्ते

केजीएमयू के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के हेड डॉ. सूर्यकांत कहते हैं कि एक समय था, जब मरीज व उसके परिजन डाक्टरों को भगवान का दर्जा देते थे. वो श्रद्धा, सम्मान और उससे भी बड़ी बात वो अटूट भरोसा, कहां चला गया. चिकित्सा सेवा भी अब सेवाएं नहीं रही, सर्विसेज हो गई हैं.

लखनऊ: भारतीय चिकित्सक डॉ. बीसी रॉय के जन्म एवं निर्वाण दिवस (1 जुलाई) को डॉक्टर्स डे के रूप में मनाते हैं. चिकित्सा शिक्षक के रूप में डॉ. बीसी रॉय ने कलकत्ता मेडिकल कालेज, एनआरएस मेडिकल कालेज व आरजी मेडिकल कालेज में कार्य किया. वे मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के अध्यक्ष भी रहे. राजनीतिज्ञ के रूप में कलकत्ता के मेयर, विधायक व पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री (1948 से 1962) भी रहे. मुख्यमंत्री रहते हुए भी वह प्रतिदिन निःशुल्क रोगी भी देखते थे. उन्हें 4 फरवरी 1961 को भारत रत्न की उपाधि दी गयी थी.

चिकित्सा सेवा भी अब सेवाएं नहीं रहीं, सर्विसेज हो गईं

नेशनल डॉक्टर्स डे के मौके पर केजीएमयू के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के हेड डॉ. सूर्यकांत कहते हैं कि एक समय था, जब मरीज व उसके परिजन डाक्टरों को भगवान का दर्जा देते थे. वो श्रद्धा, सम्मान और उससे भी बड़ी बात वो अटूट भरोसा, कहां चला गया. चिकित्सा सेवा भी अब सेवाएं नहीं रही, सर्विसेज हो गई हैं. प्रोफेशनल सर्विसेज, जिसमें तकनीकी सुघढ़ता और कौशल तो बढ़ा है, लेकिन नैतिक दायित्वबोध और गरिमा निश्चित तौर पर अपने पुराने रूप से कमतर होती जा रही हैं.

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चिकित्सकों की कमी भी खराब होते रिश्तों का एक कारण

डॉ. सूर्यकांत का कहना है कि एक बड़ा कारण जो डॉक्टर-रोगी के रिश्तों को प्रभावित करता है वो है चिकित्सकों की कमी. 2018 की नेशनल हैल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति 11,082 जनसंख्या पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है. जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक (1,000 जनसंख्या पर एक चिकित्सक) से 10 गुना कम है. काम के बोझ से जुडे़ तनाव तो इस सेवा का हिस्सा बन ही चुके हैं। इन दोनों छोरों पर भी बड़े सुधार की तत्काल आवश्यकता है.

कंज्यूमर एक्ट में शामिल होने से सेवा से पेशा बनी चिकित्सा

उनका कहना है कि वर्ष 1994 में जब चिकित्सकीय पेशे को भी उपभोक्ता अधिनियम (कन्ज्यूमर एक्ट) में शामिल कर लिया गया, तब से यह चिकित्सकीय पेशा सेवा का माध्यम न हो कर एक व्यवसाय बन गया. इसे एक छोटे उदाहरण से समझिये कि जब आप ढाबे पर दाल खाते हैं तो लगभग 100 रुपये में मिल जाती है, लेकिन इसी दाल की कीमत स्टार होटल में पांच गुनी से भी ज्यादा हो जाती है. भारत में ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल/नर्सिंग होम अब एक व्यवसाय हैं और कई बार इसके मालिक डॉक्टर न हो कर व्यवसायी होते हैं.

खर्चों का अर्थशास्त्र भी मरीजों से संबंधों में ला रहा बदलाव

बड़े निजी अस्पतालों को बनाने और चलाने में बहुत खर्चा आता है. अतः यहां इलाज भी महंगा ही होगा. बेतहाशा बढ़े खर्चों का अर्थशास्त्र भी डाक्टरों से मरीजों के संबंधों का मनोविज्ञान और मानसिकता बदल रहा है. जब मरीज की हालत गंभीर हो और धैर्य और सहनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत हो, तब डॉक्टर और रोगी के बीच स्थापित मर्यादा और सदव्यवहार की लक्ष्मण रेखा आसानी से ध्वस्त हो जाती है.

मरीजों से संवाद का प्रशिक्षण नहीं 

इसके कारणों की तह में जायें तो एक तथ्य यह भी सामने आता है कि दस-दस साल चिकित्सा शास्त्र के हर गूढ़ और गहन तथ्यों को समझने-बूझने में लगे डाक्टरों को मरीजों से उचित तरह से संवाद करने के लिये बिल्कुल भी प्रशिक्षित नहीं किया जाता है. पढ़ाई के दौरान इन चिकित्सकों को प्रशासनिक प्रशिक्षण व कानूनी प्रशिक्षण भी नहीं दिया जाता है. जिसके कारण आगे चलकर उन्हें मेडिको-लीगल व प्रशासनिक दायित्व निर्वाह करने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है. इसीलिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज की तर्ज पर इंडियन मेडिकल सर्विसिज (आईएमएस) की मांग कर रही है.

समाज को अपने रवैये में लाना होगा परिवर्तन

डॉ. सूर्यकांत का कहना है कि प्रत्येक चिकित्सक अपने ज्ञान व जानकारी से रोगी को ठीक करने की कोशिश करता है. जीवन या मृत्यु चिकित्सक के वश में नहीं अपितु ईश्वर के हाथ में है. इस बात का ध्यान समाज को सदैव रखना चाहिए. अतः मरीजों और उनके परिजनों को भी अपने रवैये मे सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा. यही कारण है कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राष्ट्रीय स्तर पर एक ‘नेशनल मेडिकल प्रोटेक्शन एक्ट’ की भी मांग कर रहा है.

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