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My Mati: आदिवासी पहचान और परंपरा को आर्थिक विस्तार और रफ्तार देते युवा

झारखंड के युवा सांस्कृतिक, सामाजिक सोच के आधार पर दो तरह के हैं. एक वे जो पढ़-लिखकर, नौकरी में जाना चाहते हैं. दूसरे वे जो अपनी रूचि के अनुसार कुछ व्यवसाय करना चाहते है.

महादेव टोप्पो

देश में कहीं भी अधिकांशतः मध्य परिवार का युवा पढ़-लिखकर नौकरी करना चाहता है. झारखंड में भी अधिकांश युवा ऐसे ही हैं. लेकिन हर किसी को सरकारी नौकरी नहीं मिलती. युवाओं को रोजगार के लिए अन्य विकल्प चुनने होते हैं. विवशता में, इच्छा के विरुद्ध भी काम करते दिखते हैं तो कभी कुछ को मनपसंद जॉब भी मिल जाता है. लेकिन, कई बार कुछ युवा इनसे अलग होते हैं, जो अपने समाज और संस्कृति से इतने गहरे जुड़े होते हैं कि वे इससे जुड़े व्यवसाय या कार्य को अपने कैरियर तथा जीवन के लक्ष्य के रूप में तय कर लेते हैं. विशेषतः कोरोना काल के बाद, लोगों में जॉब को लेकर एक अलग रुझानआया दिखता है.

झारखंड के युवा सांस्कृतिक, सामाजिक सोच के आधार पर दो तरह के हैं. एक वे जो पढ़-लिखकर, नौकरी में जाना चाहते हैं. दूसरे वे जो अपनी रूचि के अनुसार कुछ व्यवसाय करना चाहते है. व्यवसाय में प्रवेश का रुझानतीन चार वर्षों में ज्यादा बढ़ गया दिखता है. फलतः पेट्रोल पंप, होटल, कपड़ों के शो-रूम, गृह निर्माण, सिलाई-कढ़ाई, आदिवासी-परिधान, फैशन-डिजाइनिंग, फोटो, विडियोग्राफी, आधुनिक गीतों के वीडियो अलबम, ट्रेवल एजेंसी, बीमा, नर्सरी-स्कूल चलाना, ग्रामीण इलाकों में स्कूल खोलना, हॉस्टल, कोचिंग सेंटर चलाना, डेयरी, फार्मिंग, कार-वाशिंग, ठेले पर पकौड़ी धुसका बेचना, पुस्तक विक्रय व्यवसाय, नर्सिंग सेंटर, होटल आदि के कई छोटे-बड़े व्यवसाय करते आदिवासी दिख रहे है.

फलतः, शहर में अब कुछ कुछ दुकानों में आदिवासी नाम भी दिख जाते हैं.एक विशेष प्रवृत्ति यह भी दिखी है कि ये युवा व्यवसाय या सेवा-व्यवसाय को अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक आवश्यकताओं के अनुकूल खड़ा कर रहे हैं. जहां कभी रिटायर्ड बुजुर्ग भी ऐसे कामों में जुड़े दिखते हैं. हम यहां कुछ ऐसे लोगों की गतिविधियों की चर्चा करेंगे. अरूणा तिर्की ग्रामीण विकास की डिग्रीधारी हैं लेकिन, कुछ वर्षों से वह कांके रोड में अजम एम्बा नाम से अपना आदिवासी भोजनालय चला रही हैं. यहां आदिवासी तरीके के बनाये भोजन को आदिवासी तरीके से परोसा और खिलाया जाता है. चटनी, भात, दाल, मांड़-झोर, मड़ुवा-मोमो, छिलका रोटी, मटन आदि आदिवासी तरीकों से पकाये और परोसे जाते हैं. वह देश के कई हिस्सों में आदिवासी भोजन का प्रदर्शन कर चुकीं हैं और इसके प्रयासों की सराहना कई चैनलों व अखबारों में की जा चुकी है. वे आदिवासी महिलाओं के बीच उद्यमिता को प्रोत्साहित भी करतीं हैं और उनके यहां महिलाएं ही काम करती दिखती हैं.

अनिल तिग्गा भी रिंग रोड, दलादली चौक के पास सरना होटल चलाते है. यहां सिर्फ दिन में भोजन मिलता है और वह भी भात मटन या भात मछली. इसके साथ सलाद, पापड़ (चरबोदा) और चटनी. सखुआ पत्ते के ताजा पत्तल में भोजन परोसा जाता है. मांस, मछली, भात आदिवासी तरीके से खिलाते हैं. मांस बनाने के लिए कुछ विशेष मसाले बनाते हैं. लगातार चावल बनते रहते हैं. अतः भात अधिकतर गर्म मिलता है. यहां लगभग चालीस लोग काम करते है, जिनमें कुछ महिलाएं और तीस से अधिक युवा हैं. उनमें कुछ छात्र हैं तो कुछ कंपीटीशन की तैयारी करते युवा भी, कुछ वीडियो-अलबम में काम करते संघर्षरत कलाकार भी. सबसे खास बात हमें यहां देखने को मिली कि वे सभी कामगारों को पहले खाना खिलाते हैं. उसके बाद ही उन्हें काम पर लगाते हैं. ये कामगार सुविधानुसार सूचित कर परीक्षा की तैयारी, परीक्षा लिखने या जरूरत पड़ने पर अपने गांव जा सकते हैं.

सुरेंद्र लिंडा ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. फिर कोचिंग सेंटर और लाइब्रेरी खोला. किंतु अब वे कांके में आदिवासी-परिधान व आदिवासी रीति-रिवाजों में उपयोग में आनेवाले विभिन्न सामग्रियों को उपलब्ध कराते है. जन्म, विवाह, मृत्यु के समय लगनेवाले विभिन्न नेग-चार से संबंधित सारी सामग्री इनके यहां उपलब्ध रहतीं हैं. इसके अलावा आदिवासी परिधान, वाद्य आदि भी उपलब्ध हैं. जरूरतमन्द लोगों को अब सुरेंद्र लिंडा के यहां अपने नेग-चार से संबंधित सभी सामग्री मिल जाती हैं और उन्हें भटकना नहीं पड़ता या अधूरे मन नेग-चार को निपटाने की व्यथा झेलनी नहीं पड़ती.इस तरह वे अपनी आदिवासी परंपराओं, नेग-चार को जीवित रखने में समाज के लिए सहयोगी बने हैं.

सरन उरांव की संस्था हेहल में स्थित है, जहां वे पारंपरिक परिधान भी उपलब्ध कराते हैं. आदिवासी नृत्य में सजने-संवरने के अनेक प्रसाधन उपलब्ध कराते है. इतना तक उनके यहां कुमनी, गुंगू की बरसाती, बगुला-टईंया भी मिलते हैं. मांदर, ढोल, नगाड़ों के अलावा अन्य वाद्य भी. वे साल में दो तीन कार्यक्रम वाद्य बनाने तथा कभी इसे बजाने के लिए भी प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करते हैं. इस तरह सरन उरांव आदिवासी नृत्य से जुड़े अनेक साधन, उपकरण आदि अपने यहां उपलब्ध करते हैं जोकि खोजने पर नहीं मिलते.

उक्त चार लोगों से अलग और भी कई युवा व्यवसाय कर रहे हैं, लेकिन इन चारों का व्ययसाय मॉडल नया और अनूठा इसलिए लगता है कि इनका व्यवसाय अपने समाज की भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, परंपरा, जड़ों और अपनी जमीन से जुड़े रहकर अपने और समाज के विकास के लिए रास्ता खोजते और परंपरागत तौर-तरीकों, नेग-चार आदि को बचाते दिखते हैं. ये सभी अपने समाज की अच्छाइयों को संरक्षित करते हुए समुदाय का और अपना दोनों का हित करते दिखते हैं- “आप भी बचें, हम भी बचें”. वे लाभ चाहते हैं, लेकिन उनकी कार्यशैली देखेंगे तो पता चलेगा वे सभी, समाज के अन्य गतिविधियों में पर्याप्त समय देते हैं. अतः, इस तरीके को क्या हम व्यवसाय का आदिवासी-मॉडल कह सकते हैं. क्योंकि यहां लाभ के पीछे अंधाधुंध भागने की प्रवृति कम दिखती है.

अपने व्यवसाय में कमिटेड रहकर भी वे आदिवासी सामाजिक दायित्वों को निभाते दिखते हैं और साथी युवाओं के लिए रोजगार देने और उन्हें आगे बढ़ने में सहायता करते हैं. अरूणा महिला उद्यमियों को प्रेरित करती दिखतीं तो वहीं अनिल तिग्गा युवाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित एवं सहयोग करते हैं. रामदयाल मुंडा ने कभी कहा था – “आदिवासी को बनिया बनने में हजार साल लगेंगे.” आगे क्या होगा, कहना मुश्किल है. लेकिन, आदिवासी युवाओं के व्यवसाय की ओर बढ़ते रूझानों को देखकर लगता है, इस धारणा को वे जल्द ही तोड़ सकते हैं. सवाल है- धन के लिए वे बड़े व्यापारी बनें या समाज के रीति-रिवाजों, परंपराओं, तरीकों, जीवन-शैली तथा परस्पर-सहयोग-सम्मान, सहजीविता से जुड़कर बिजनेस का कोई “नया संतुलित मॉडल” खड़ा करें, जहां समाज से जुड़ी सहयोगिता और एकजुटता पुनर्जीवित होती दिखाई देती हो!

आप क्या सोचते हैं? बदलती परिस्थितियों में आदिवासी-युवा आत्मनिर्भर बन रहा है? अपने अस्तित्व-रक्षा के लिए मुख्यधारा की चुनौती स्वीकार रहा है? शुद्ध व्यापार कर रहा है? समाज-सेवा कर रहा है? या कुछ और? या पुरखों की संघर्ष-परंपरा को वर्तमान परिस्थितियों में ढालकर, आधुनिक तरीके से जूझता, बिजनेस का कोई नया आदिवासी-मॉडल या झारखंडी-तरीका खड़ा कर रहा है ?

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