हाल में मध्य प्रदेश के सीधी जिले में एक आदिवासी युवक पर पेशाब करने के मामले का वीडियो सामने आया. यह वीडियो विचलित करने वाला था. इसमें फुटपाथ पर बैठे एक सीधे-साधे आदिवासी युवक पर एक व्यक्ति पेशाब कर रहा है. यह काम कोई सिरफिरा व्यक्ति ही कर सकता है या फिर कोई ऐसा, जिस पर सामंती सोच इस कदर हावी हो कि वह अन्य सभी लोगों को मनुष्य ही नहीं मानता हो. ऐसी सोच किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार करने वाली है. मध्य प्रदेश सरकार के आदेश पर प्रशासन ने तत्काल और उचित कार्रवाई की. आरोपी के घर बुलडोजर चलवा दिया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा कर उसे जेल भेज दिया गया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उस आदिवासी युवक के पैर धोये और साथ भोजन किया तथा आर्थिक सहायता भी प्रदान की. समाज में आदिवासी तबके के सम्मान की रक्षा के लिए यह जरूरी भी था. मध्य प्रदेश में 2023 राजनीतिक वर्ष है. इसलिए इस मुद्दे पर जम कर राजनीति भी हुई और बयान भी आये. मुझे लगता है कि राजनीति करने के अनेक विषय हैं, लेकिन यह मुद्दा देश की अस्मिता से जुड़ा है.
ऐसी घटनाओं से आभास होता कि सामंती सोच की भावना समाज में कितनी गहरी तक जड़ें जमाये हुई है, जबकि सामंती सोच भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना नहीं है. भारतीय लोकतंत्र समरसता और विविधता में एकता की मिसाल है. यहां अलग-अलग जाति, धर्म, संस्कृति को मानने वाले लोग सदियों से रहते आये हैं. यह भारत की बहुत बड़ी पूंजी है और इसे बचा कर रखना हम सबकी जिम्मेदारी है, लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसे मामले रह-रह कर हमारे सामने आ जाते हैं, जब जाति, धर्म व आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी व्यक्ति का आकलन किया जाता है. चिंता की बात है कि ऐसी घटनाओं से सर्वसमाज उद्वेलित नहीं होता है. आजादी के 75 साल बाद भी सामंती सोच का मुद्दा हमारे सामने आ खड़ा हो रहा है. यह सही है कि समय के बदलाव के साथ समाज में कुछ विकृतियां आ जाती हैं, लेकिन सभ्य समाज में ऐसी घटनाएं स्वीकार्य नहीं हैं. चिंता तब और बढ़ जाती है, जब ऐसे गंभीर विषय पर राजनीति शुरू हो जाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि हर नागरिक की सुरक्षा की गारंटी सरकार की जिम्मेदारी है. सरकारें तो अपना काम करें, लेकिन चेतन समाज को भी इस मुद्दे पर आगे आना चाहिए कि ऐसी घटनाएं भविष्य में घटित न हों.
अगर गौर करें, तो महानगरों में छुआछूत का नया स्वरूप सामने आया है. गांव में दलितों-वंचितों को गांव के कुएं से पानी नहीं भरने नहीं दिया जाता था. महानगरों में तो कुएं हैं नहीं, केवल उसका स्वरूप बदल गया है. महानगरों में ऐसे अनेक अपार्टमेंट हैं, जिनमें दीदियों व कर्मचारियों के लिफ्ट के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है या फिर उनके लिए अलग से एक पुरानी लिफ्ट निर्धारित है कि वे केवल उसका ही इस्तेमाल करेंगे. वे घर के टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. भले ही वे घर में रहते हों, लेकिन टॉयलेट के इस्तेमाल के लिए सोसाइटी में ग्राउंड फ्लोर पर बने टॉयलेट का ही इस्तेमाल कर सकते हैं. रात-बिरात उन्हें अगर टॉयलेट का इस्तेमाल करना पड़े, तो कई फ्लोर नीचे उतर कर जाना पड़ता है. बिहार और झारखंड से रोजगार की तलाश में हजारों लोग हर साल बड़े शहरों की ओर रुख करते हैं. इनमें दिल्ली एनसीआर जाने वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयी हैं, जिनमें झारखंड की आदिवासी लड़कियों को बहला-फुसला कर ले जाया गया और उनका शोषण किया गया. झारखंड से ज्यादातर लड़कियां दिल्ली से सटे गुड़गांव ले जायी जाती हैं. यहां बड़े मल्टीनेशनल अथवा बड़ी आइटी कंपनियों में काम करने वाले साहब रहते हैं. मेम साब भी अक्सर काम करती हैं. उन्हें गृह कार्य के लिए दीदियों की जरूरत होती है. इस इलाके में तमाम प्लेसमेंट एजेंसियां हैं, जो उन्हें ये उपलब्ध कराती हैं. इनके एजेंट देशभर में सक्रिय हैं, जो गरीब माता-पिता को फुसला कर उनकी लड़कियों को प्लेसमेंट एजेंसियों तक पहुंचाते हैं. ऐसी अनेक घटनाएं सामने आयीं हैं, जिनमें ऐसी लड़कियों का एजेंसी मालिक अथवा जिनके वे यहां काम करती हैं, उनके द्वारा शारीरिक शोषण तक किया गया. अमानवीय व्यवहार की घटनाएं तो आम हैं. सबसे बड़ी समस्या है कि इन्हें अपने काम के अनुरूप वेतन नहीं मिलता है. दूसरी गंभीर समस्या अमानवीय व्यवहार है. कानूनी तौर से 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन हम सब जानते हैं कि इस देश में ऐसे कानूनों की परवाह कौन करता है.
अगर हमें सभ्य व चेतन समाज का निर्माण करना है, तो हमें कई संकल्प लेने होंगे. हम अभी तक बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. यह सही है कि देश में धीरे-धीरे ही सही, गरीबी घट रही है और विकास के अवसर बढ़े हैं, लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी समाज में भारी असमानताएं मौजूद हैं. बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों अथवा शिक्षा के अवसर, अब भी ये अमीरों के पक्ष में हैं. कुछ अरसा पहले मशहूर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि कोरोना महामारी का दौर दुनिया के दौलतमंद लोगों के लिए बहुत अच्छा रहा. इस दौरान उनकी दौलत भी बढ़ी. साथ ही नये अरबपतियों की संख्या भी बढ़ी. दूसरी ओर दुनियाभर में गरीबों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है. विश्व बैंक का अनुमान है कि कोरोना काल के दौरान दुनियाभर में 11.5 करोड़ लोग अत्यंत निर्धन की श्रेणी में पहुंच गये थे.
यह स्वीकार करना होगा कि आर्थिक सुधारों का अपेक्षित लाभ गरीब तबके तक नहीं पहुंच पाया है. कोरोना काल ने यह बात स्थापित कर दी है कि इस देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश मजदूरों से चलता है, लेकिन मजदूरों को जैसा आदर, सुविधाएं और वेतन मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता है. यह तथ्य सर्वविदित है कि आर्थिक असमानता के कारण समाज में असंतोष पनपता है. अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर अगर नजर डालें, तो हम पायेंगे कि दुनिया उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है. हमारा यह सौभाग्य है कि हम इससे प्रभावित नहीं हैं, लेकिन यह बात भी साफ होनी चाहिए कि आर्थिक हो या सामाजिक, किसी भी तरह की प्रगति शांति के बिना हासिल करना नामुमकिन है. इसलिए यह हम सबके हित में है कि अपने सामाजिक ताने-बाने को हर कीमत पर बनाए रखें. आशुतोष चतुर्वेदी