भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ 11 जुलाई को दो दर्जन से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई करेंगे, जिसमें जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की कानूनी वैधता को चुनौती देने की मांग की गई है, जिसने जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया था और 5 अगस्त 2019 के राष्ट्रपति के आदेश ने संविधान के अनुच्छेद 370 (जिसने तत्कालीन राज्य को विशेष दर्जा दिया) को रद्द कर दिया था.
17 अक्तूबर, 1949 को संविधान में शामिल, अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान से जम्मू-कश्मीर को छूट देता है और राज्य को अपने संविधान का मसौदा तैयार करने की अनुमति देता है(केवल अनुच्छेद 1 और अनुच्छेद 370 को छोड़कर) . यह जम्मू और कश्मीर के संबंध में संसद की विधायी शक्तियों को प्रतिबंधित करता है. साथ ही ऐसा प्रावधान किया गया कि इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेस (IoA) में शामिल विषयों पर केंद्रीय कानून का विस्तार करने के लिये राज्य सरकार के साथ “परामर्श” की आवश्यकता होगी. यह तब तक के लिये एक अंतरिम व्यवस्था मानी गई थी जब तक कि सभी हितधारकों को शामिल करके कश्मीर मुद्दे का अंतिम समाधान हासिल नहीं कर लिया जाता. यह राज्य को स्वायत्तता प्रदान करता है और इसे अपने स्थायी निवासियों को कुछ विशेषाधिकार देने की अनुमति देता है.
राज्य विधानसभा की अवधि छह साल
धारा 370 में, राज्य की सहमति के बिना आंतरिक अशांति के आधार पर राज्य में आपातकालीन प्रावधान लागू नहीं होते हैं. राज्य का नाम और सीमाओं को इसकी विधायिका की सहमति के बिना बदला नहीं जा सकता है. राज्य का अपना अलग संविधान, एक अलग ध्वज और एक अलग दंड संहिता (रणबीर दंड संहिता) है. राज्य विधानसभा की अवधि छह साल है, जबकि अन्य राज्यों में यह अवधि पाँच साल है. भारतीय संसद केवल रक्षा, विदेश और संचार के मामलों में जम्मू-कश्मीर के संबंध में कानून पारित कर सकती है. संघ द्वारा बनाया गया कोई अन्य कानून केवल राष्ट्रपति के आदेश से जम्मू-कश्मीर में तभी लागू होगा जब राज्य विधानसभा की सहमति हो. राष्ट्रपति, लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकते हैं कि इस अनुच्छेद को तब तक कार्यान्वित नहीं किया जा सकेगा जब तक कि राज्य विधानसभा इसकी सिफारिश नहीं कर देती है.
IoA तब चलन में आया जब भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के अनुसार ब्रिटिश भारत को भारत और पाकिस्तान में विभाजित किया गया. अधिनियम के अनुसार तीन विकल्प थे- एक स्वतंत्र देश बने रहने के लिये, भारत के डोमिनियन में शामिल हो या पाकिस्तान के डोमिनियन में शामिल हो तथा ‘IoA’ दोनों में से किसी देश में शामिल होने के लिये था.
इसके अनुसार भारत की संसद को केवल रक्षा, विदेश मामलों और संचार पर जम्मू और कश्मीर के संबंध में कानून बनाने की शक्ति दी गई. कश्मीर का भारत में शामिल होना. आपको बताएं, राजा हरि सिंह ने शुरू में स्वतंत्र रहने का फैसला किया था लेकिन पाकिस्तान के आक्रमण के बाद उन्होंने भारत से मदद मांगी जिसके बदले कश्मीर को भारत में शामिल करने की बात की गई. हरि सिंह ने 26 अक्तूबर, 1947 को इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर किये और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने 27 अक्तूबर, 1947 को इसे स्वीकार कर लिया. यह भारत की घोषित नीति थी कि जहाँ कहीं भी विवाद हुआ इसे रियासत के शासक के एक पक्षीय निर्णय के बजाय लोगों की इच्छा के अनुसार तय किया जाना चाहिए.
यह संविधान के भाग XXI का पहला लेख है. इस भाग का शीर्षक ‘अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान’ है. धारा 370 को इस अर्थ में अस्थायी माना जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को इसे संशोधित / हटाने / बनाए रखने का अधिकार था. एक और व्याख्या यह थी कि जनमत संग्रह तक इसे अस्थायी रखा जाएगा. केंद्र सरकार ने पिछले साल संसद में एक लिखित जवाब में कहा था कि अनुच्छेद 370 को हटाने का कोई प्रस्ताव नहीं है. दिल्ली उच्च न्यायालय (2017) ने भी एक याचिका को खारिज़ कर दिया जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 370 अस्थायी है और इसकी निरंतरता संविधान पर धोखाधड़ी है. सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2018 में कहा कि “अस्थायी” शीर्षक के बावजूद, अनुच्छेद 370 अस्थायी नहीं है.
हाँ, अनुच्छेद 370 (3) राष्ट्रपति के आदेश द्वारा इसे निरस्त किया जा सकता है. हालांकि इस तरह के आदेश को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा से भी सहमति लेनी होगी. चूँकि इस तरह की विधानसभा 26 जनवरी, 1957 को भंग कर दी गई थी, इसलिये एक विचार यह है कि अब इसे हटाया नहीं जा सकता लेकिन दूसरा दृष्टिकोण यह है कि यह कार्य किया जा सकता है, लेकिन केवल राज्य विधानसभा की सहमति से.
अनुच्छेद 370 में अनुच्छेद 1 का उल्लेख है, जिसमें राज्यों की सूची में जम्मू-कश्मीर का नाम शामिल है. अनुच्छेद 370 को एक पुल के रूप में वर्णित किया गया है जिसके माध्यम से संविधान को जम्मू-कश्मीर में लागू किया जाता है. भारत ने जम्मू और कश्मीर के लिये भारतीय संविधान के प्रावधानों का विस्तार करने हेतु अनुच्छेद 370 का कम-से-कम 45 बार उपयोग किया है. यह एकमात्र तरीका है जिसके माध्यम से राष्ट्रपति के आदेशों के द्वारा भारत ने जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के प्रभाव को लगभग शून्य कर दिया है.
अनुच्छेद 370 अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर की शक्तियों को कम करता है
1954 के आदेश तक लगभग पूरे संविधान को जम्मू और कश्मीर तक विस्तारित किया गया था जिसमें अधिकांश संवैधानिक संशोधन भी शामिल थे. संघ सूची की 97 प्रविष्टियों में से 94; समवर्ती सूची की 47 वस्तुओं में से 26 जम्मू और कश्मीर पर लागू होती हैं. 395 अनुच्छेदों में से 260 को एवं 12 अनुसूचियों में से 7 को राज्य में विस्तारित किया गया है. अत: कुछ मायनों में अनुच्छेद 370 अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर की शक्तियों को कम करता है. यह जम्मू-कश्मीर की तुलना में आज भारत के लिये अधिक उपयोगी है.
अनुच्छेद 35A, जो कि अनुच्छेद 370 का विस्तार है, राज्य के स्थायी निवासियों को परिभाषित करने के लिये जम्मू-कश्मीर राज्य की विधायिका को शक्ति प्रदान करता है और उन स्थायी निवासियों को विशेषाधिकार प्रदान करता है तथा राज्य में अन्य राज्यों के निवासियों को कार्य करने या संपत्ति के स्वामित्व की अनुमति नहीं देता है. इस अनुच्छेद का उद्देश्य जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकीय संरचना की रक्षा करना था. अनुच्छेद 35A की संवैधानिकता पर इस आधार पर बहस की जाती है कि इसे संशोधन प्रक्रिया के माध्यम से नहीं जोड़ा गया था. हालाँकि, इसी तरह के प्रावधानों का इस्तेमाल अन्य राज्यों के विशेष अधिकारों को बढ़ाने के लिये भी किया जाता रहा है.
वर्तमान में इन अनुच्छेदों से मिले अधिकारों को कश्मीरियों द्वारा धारित एकमात्र महत्त्वपूर्ण स्वायत्तता के रूप में माना जाता है. अत: इनसे छेड़छाड़ करने पर व्यापक प्रतिक्रिया की संभावना है. यदि अनुच्छेद 35A को संवैधानिक रूप से निरस्त कर दिया जाता है तो जम्मू-कश्मीर 1954 के पूर्व की स्थिति में वापस आ जाएगा. उस स्थिति में केंद्र सरकार की राज्य के भीतर रक्षा, विदेश मामलों और संचार से संबंधित शक्तियाँ समाप्त हो जाएंगी. यह भी तर्क दिया गया है कि अनुच्छेद 370 के तहत राज्य को दी गई कई प्रकार की स्वायत्तता वैसे भी कम हो गई है और संघ के अधिकांश कानून जम्मू-कश्मीर राज्य पर भी लागू होते हैं.
अनुच्छेद 370 को एकतरफा निरस्त नहीं किया जा सकता है. यह ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर और केंद्र इस मामलें में सर्वसम्मति से आगे आएँ. यह कार्य सहकारी संघवाद को बढ़ावा देकर और आत्मविश्वास के बल पर ही संभव हो सकता है. कश्मीर के युवाओं तथा निवासियों को इस तथ्य से आश्वस्त होना चाहिये कि कश्मीर देश की आर्थिक प्रगति का हिस्सा है और भारत का अभिन्न अंग है. राज्य सरकार को आम सहमति से लोकतंत्र का मार्ग भी अपनाना चाहिये. यह महत्त्वपूर्ण है कि इसमें निर्णय लेने के विकल्पों की विस्तृत श्रृंखला शामिल हो और उन्हें ध्यान में रखा जाए.
दृष्टि IAS के लेख के साथ.