अगर फिरदौस बर-रू-ए जमीं अस्त. हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त.’(धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है.) सत्रहवीं शताब्दी में कश्मीर के दौरे पर गये मुगल बादशाह जहांगीर ने उसकी अनुपम प्राकृतिक छटा से निहाल होकर यह बात कही थी. चार शताब्दियों बाद भी इसकी कुछ कम चर्चा नहीं होती. लेकिन, जहांगीर से चार शताब्दी पहले दो साल तक अयोध्या में रहकर निहाल हो उठे और उसे ‘जमीन की जीनत’ बता गये अमीर खुसरो इतने खुशनसीब नहीं हैं. वे अपने वक्त के अनूठे राजदरबारी, साहित्यकार, कलाकार व संगीतज्ञ रहे हों, और उन्हें हिंदी खड़ी बोली का पहला कवि भी माना जाता हो, मगर आज शायद ही किसी को याद हो कि 1286 में वे दो साल के प्रवास पर अयोध्या गये तो अयोध्यावासियों की लोचदार तहजीब और तर्ज-ए-इबादत पर न्योछावर होकर रह गये थे, और खुद को उसे ‘जमीन की जीनत’ बताने से नहीं रोक पाये थे.
जीनत, यानी नाना प्रकार के आभूषणों व शृंगारों से संपन्न शोभा का भंडार. खुसरो के ही शब्दों में कहें, तो ‘अयोध्या जीनत अस्त, किश्वर-ए-बर जमीन’. इतना ही नहीं, उन्होंने भगवान राम को ‘अमल पैहम’ (सबके अपनाने योग्य) और उनकी राजधानी के निवासियों को ‘सुशील, शिष्ट, उदार, दानी, अतिथि सत्कार में कुछ भी उठा न रखने और मीठी व रंगीन तबीयत वाले’ भी बताया था.
उनकी इस तारीफ के इस कदर अचर्चित रह जाने के मोटे तौर पर दो ही कारण समझ में आते हैं. पहला यह, कि जिस तुर्कवंशी सत्ताधीश के दरबारी बनकर वह अयोध्या आये थे, आगे चलकर उसका या उसके वंशजों का इकबाल बहुत बुलंद नहीं हुआ. और दूसरा, कि भगवान राम और उनकी अयोध्या पर बेझिझक दिल लुटाने को लेकर जल्दी ही वह हिंदू व मुस्लिम दोनों धर्मों के संकीर्णतावादियों के निशाने पर आ गये थेे. कोई उन्हें बुतपरस्त कहने लगा था तो कोई उनके जनेऊ धारण करने या न करने को लेकर चिंतित हो उठा था. फिर तो उनको जवाब देते हुए खुसरो को कहना पड़ा था, कि वे अपनी महबूबा के इश्क में इस तरह काफिर हो गये हैं, कि न उन्हें जनेऊ की जरूरत रह गयी है और न मुसलमानी की.
उन्हीं के शब्दों में: काफिर-ए-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त, हर रगे मन तारगश्ता, हाजते जुन्नार नीस्त. अज सरे बालीने मन बर खेज ऐ नादां तबीब, दर्दमंद इश्क रा दारो बखैर दीदार नीस्त. मा व इश्क यार अगर पर किब्ला, गर दर बुतकदा, आशिकान दोस्त रा ब क्रुफ्र-व-ईमां कार नीस्त. खुल्क मी गोयद के खुसरो बुतपरस्ती मी कुनद, आरे आरे मी कुनम बा खल्क-व-दुनिया कार नीस्त. (मैं इश्क में काफिर हो गया हूं और न मुझे मुसलमानी की जरूरत रह गयी है, न जनेऊ की. मेरी तो हर रग तार यानी जनेऊ में बदल गयी है. इसलिए ऐ नादान हकीम! मेरे सिरहाने से उठ जा. जिस मरीज को मोहब्बत का दर्द लगा हो, महबूब के दर्शन के सिवा उसका कोई और इलाज नहीं. अब मैं हूं और मेरी महबूबा का इश्क है. चाहे काबा हो या बुतखाना, महबूबा के आशिक को कुफ्र और ईमान से कोई काम नहीं. दुनिया कहती है कि खुसरो मूर्तिपूजा करता है, तो मैं कहता हूं कि हां-हां, मैं करता हूं, मेरा दुनिया से कोई सरोकार नहीं.)
आगे उन्होंने अपनी ‘मसनवी अस्पनामा’ में लिखा कि ‘मैं बुतपरस्ती करता नहीं हूं, परंतु एक बेजान पत्थर पर अटूट विश्वास और उसमें एकाग्रता पैदाकर पूजने का हिंदुओं का तरीका मुझे अच्छा लगता है. भारत के सांवले-सलोने लोगों का श्याम वर्ण, जो पृथ्वी पर सबसे खूबसूरत रंग है, बेमिसाल है. यह रंग भारतीय देवी-देवताओं को भी भाता है और उनका सौंदर्य इसी में है.’ अपनी एक मुकरी में उन्होंने राम के आदर्शों को अपने जीवन में न उतारने और उन्हें तोतारटंत की तर्ज पर भजने वालों पर भी करारा तंज किया है: अति सुरंग है रंग-रंगीलो, है गुणवंत बहुत चमकीलो, रामभजन बिन कभी न सोता, क्यों सखि साजन? ना सखि तोता!
वर्ष 1286 में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन की मौत हुई तो कोई और उत्तराधिकारी न होने के कारण उसके सरदारों ने, उसके पोते कैकुबाद को गद्दी पर बिठा दिया. उसने बलबन के चचेरे भाई हातिम खान को अवध का हाकिम नियुक्त किया, तो उसने खुसरो को दरबारी बनाकर सूबे की राजधानी अयोध्या भेजा. बाद में हातिम खुद अयोध्या आया तो खुसरो उसके साथ अगले दो साल तक अवध दरबार की शोभा बढ़ाते रहे.
अयोध्या उन्हें बहुत भा गयी थी. बावजूद इसके कि दिल्ली से अयोध्या पहुंचने के लिए उन्हें नाना दुश्वारियों से भरी दो महीने की लंबी यात्रा करनी पड़ी थी. रास्ते में बादल बरसते तो उन्हें लगता था कि वे सहानुभूति में उनके साथ रो रहे हैं, जबकि पानी से पैदा हुए कीचड़ में उनके घोड़े के पैर बार-बार लड़खड़ा जाते थे. अपने दिल्ली के दोस्त ताजुद्दीन जाहिद को लिखे मसनवीनुमा खत ‘फिराकनामा’ में उन्होंने लिखा है कि दिल्ली से अवध तक का सफर दिल में दर्द और आंखों में आंसू लिये हुए पूरा किया. लेकिन वे अयोध्या की सरजमीं पर पहुंचे और फूलों व फलों से लदी वहां के वृक्षों व उनकी शाखाओं की गवाही में आम लोगों ने वहां यह कहकर उनका स्वागत किया कि ‘भगवान रामचंद्र की नगरी में आप खुश रहें’ तो उनका सारा गिला-शिकवा जाता रहा. उन्होंने देखा कि जो भी शख्स वहां से गुजरता है, सरयू नदी की रवानी देखकर उसकी सारी जिंदगी की प्यास बुझ जाती है. वहां गरीब व अमीर दोनों संतुष्ट व खुश और अपनी-अपनी कला व व्यवसाय में मगन हैं. फिर तो उन्होंने ‘मसनवी अस्पनामा’ में जो 240 शेर लिखे, उनमें से 180 में न सिर्फ राम-सीता और लक्ष्मण के गुण गाये, बल्कि लोगों को अयोध्यावासियों की तर्ज-ए-इबादत से प्रेरणा लेने को भी कहा. खुद को अवधवासी, रायबहादुर, साहित्यरत्न और हिंदी सुधाकर बताने वाले लाला सीताराम (1932 में प्रयाग की हिंदुस्तानी एकेडमी से प्रकाशित जिनकी बहुचर्चित व प्रशंसित ‘अयोध्या का इतिहास’ शीर्षक किताब को अयोध्या पर लिखी गयी गिनती की महत्वपूर्ण पुस्तकों में गिना जाता है) ने लिखा है कि अमीर खुसरो ने अपने दो साल के अवध प्रवास में महज दरबारदारी नहीं की, अयोध्या की बोली-बानी सीखी और ‘खालिकबारी’ नाम से फारसी हिंदी शब्दकोश भी बनाया. बकौल लाला सीताराम, उनके ‘अयोध्या का इतिहास’ लिखते वक्त तक अवध में बोली जाने वाली भाषा पर खालिकबारी का बहुत प्रभाव था.
बहरहाल, दो साल बाद खुसरो को दिल्ली की याद फिर बहुत सताने लगी तो भी उन्होंने इस कामना के साथ अयोध्या छोड़ी कि राम की नगरी की खूबसूरती अपने दिल में बसाकर अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के कदमों में आखिरी सांस लें. खुसरो आठ साल की उम्र में ही निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बन गये थे. अपने जीवन में उन्होंने आठ सुल्तानों का शासन देखा. कहते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़ पर हमले का मंसूबा बांधा तो भी उन्होंने उसे मना किया था. यह और बात है कि उसने उनकी बात नहीं मानी.