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Prabhat Special: मणिपुर का हस्तक्षेप करता रंगमंच

देह और स्वर की गतियों के उतार-चढ़ाव को राजनीतिक पक्षधरता के साथ रंगमंच पर सौंदर्य को निर्मित करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी. इस रंगभाषा में उन्होंने मणिपुर के सौंदर्य को और उसके दर्द को भी अभिव्यक्त किया.

अमितेश, रंग समीक्षक

कमानी सभागार में रवींंद्रनाथ टैगोर के नाटक ‘डाकघर’ की प्रस्तुति थी, साल था 2008. मणिपुरी भाषा की प्रस्तुति का एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़ रहा था लेकिन रंगभाषा में बांधने वाला आकर्षण था. साठ वर्ष से अधिक आयु की अभिनेत्री एक बच्चे अमल की भूमिका कर रही थी. यह अभिनेत्री थीं सावित्री हेस्नाम, निर्देशक थे उनके पति कन्हाईलाल. यह जोड़ी मणिपुर के रंगमंच की ही नहीं, भारतीय रंगमंच की अप्रतिम जोड़ी है जिसने अपने रंग प्रयोगों से भारत समेत विश्व के रंगमंच को प्रभावित किया है. इनका समूह कलाक्षेत्र भारत के सक्रिय रंग समूहों में से एक है. सावित्री की सबसे चर्चित भूमिका है महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ में आदिवासी स्त्री द्रौपदी का अभिनय. कन्हाईलाल के निर्देशन में इस प्रस्तुति में सावित्री कुछ क्षणों के लिए निर्वस्त्र होती हैं. यह नायिका का प्रतिरोध है दमनकारी सैन्य अधिकारियों के खिलाफ. कहा जाता है कि इसी भूमिका ने मणिपुर में औरतों को विरोध प्रदर्शन के लिए प्रेरित किया.

कन्हाईलाल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र थे, लेकिन हिंदी भाषा को अपने अनुकूल ना पाकर एनएसडी छोड़ लौट गए. उन्होंने अपनी रेपर्टरी कंपनी बनाई और नाटकों के जरिए ऐसी रंगभाषा निर्मित की जिसमें शब्दों के पार जा कर दर्शकों को संबोधित करने का सामर्थ्य था. देह और स्वर की गतियों के उतार-चढ़ाव को राजनीतिक पक्षधरता के साथ रंगमंच पर सौंदर्य को निर्मित करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी. इस रंगभाषा में उन्होंने मणिपुर के सौंदर्य को और उसके दर्द को भी अभिव्यक्त किया. दरअसल मणिपुर के रंगकर्मियों ने अपने रंगमंच को बाहर के दर्शकों से जोड़ने के लिए शब्दों के परे जाने वाली दृश्य भाषा का निर्माण किया है. दृश्य को कविता की तरह बरतने और भव्य दृश्य रचने में महारथ रखने वाले मणिपुर के निर्देशक रतन थियाम की ख्याति विश्व भर में है. रतन थियाम छह भाषाएं बोल सकते हैं और आठ भाषाएं समझ सकते हैं. उन्होंने एनएसडी में प्रशिक्षण लिया, मंचीय आधुनिकता को अपने लोक की परंपरा से जोड़ते हुए अपनी रंगभाषा रची.

उनका रंगमंच चाक्षुष यज्ञ का पर्याय है. उन्होंने शेक्सपियर, इब्सन, कालिदास, धर्मवीर भारती, रवींद्रनाथ टैगोर, अज्ञेय आदि की कृतियों को प्रभावशाली दृश्यभाषा में रंगमंच पर सजीव किया है. कन्हाईलाल और रतन थियाम को एक दूसरे के बरक्स खड़ा किया जाता रहा है लेकिन दोनों एक दूसरे के पूरक लगते हैं. किफायतसारी दोनों ही के नाटकों में है लेकिन नियोजन का दृष्टिकोण भिन्न है. थियाम मंच के अंधेरे से खेलते हैं और कन्हाईलाल की रंगभाषा में अभिनेता की नियंत्रित देह महत्वपूर्ण है. राजनीति दोनों ही के नाटकों का अनिवार्य अंग है जिसमें नारेबाजी नहीं, बल्कि घनीभूत सौंदर्य रचना है.

मणिपुरी जनता के दर्द और आकांक्षा को उन्होंने वैश्विक परिप्रेक्ष्य दिया है. इसका प्रभाव उनकी बाद की पीढ़ी के निर्देशकों पर भी पड़ा है जिन्होंने राजनीतिक रंगमंच को विषय बनाया है लेकिन इसके लिए सौंदर्य को भी साधा है. हाल ही में विक्टर थोडम ने महिंद्रा फेस्टिवल में ‘द डिपार्टेड डाउन’ किया था जो रिफ्यूजी बन जाने को विवश लोगों के बारे में था. कुछ साल पहले जॉय मेस्नाम ने अखबार की घटनाओं को आधार बना कर ‘नाइन डेज इन न्यूजपेपर’ निर्देशित किया था जिसमें मणिपुरी समाज के लोगों की बात थी जो वास्तविक आजादी चाहते हैं. सरकार और स्थानीय उग्रवाद के बीच घुटते हुए वे अब सामान्य खुली हवा में सांस लेना चाहते है.

मणिपुरी रंगमंच की वैश्विक सशक्त पहचान इसलिए भी है कि रंगकर्म और व्यवहार दोनों ही में रंगकर्मियों ने यथास्थिति में हस्तक्षेप किया है. कन्हाईलाल निर्देशित ‘पेबेट’ में मां पेबेट एक स्वप्न देखती है, जिसमें ताकतवर शक्तियां अपनी महीन चालों से जनता को आपस में ही भिड़ा देती है. एक बिल्ली की नजर पेबेट के इस परिवार पर है. पहले तो मां पेबेट अपने बच्चों को बचाने के लिये बिल्ली की ठकुरसुहाती करती हैं, लेकिन बच्चे जब बड़े होते हैं तो वह उनको संगठित कर बिल्ली को भगा देती हैं. 1989 में थियाम को पद्मश्री मिला और 2001 में उसे सरकार के उस फैसले के विरोध में लौटा दिया जिसके कारण मणिपुर में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थीं. आज एक बार फिर मणिपुर संकट में है और रतन थियाम लगातार आवाज उठा रहे हैं. बिखरे हुए मणिपुरी समाज को ऐसी चेतना और हमारी संवेदना की जरूरत है.

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