वर्ष 1880 में 31 जुलाई को उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक वाराणसी नगर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित लमही नाम के छोटे से गांव में माता आनंदी देवी ने अपनी कोख से एक बेटा जना और पिता अजायब राय ने उसका नाम धनपत राय रखा, तो शायद ही किसी ने सोचा हो कि एक दिन वह न सिर्फ कलम का सिपाही, बल्कि ‘हिंदी कथा-साहित्य का पितामह’ भी बन जायेगा. जानकारों के अनुसार, हिंदी साहित्य की सेवा तो खुद धनपत राय का भी पहला प्यार नहीं थी. वह वकील बनना चाहते थे. फिर भी वह कैसे पहले नवाब राय, फिर प्रेमचंद और उसके बाद मुंशी प्रेमचंद व उपन्यास सम्राट बने, इसकी दास्तान उतनी ही अनूठी है, जितनी उसकी कहानियां या उपन्यास.
शायद धनपत राय को पिता का दिया यह नाम पसंद नहीं था या वह नहीं चाहते थे कि देश पर गुलामी थोपने वाली तत्कालीन गोरी सरकार उसके प्रतिरोधी तेवर से खफा हो, इसलिए उन्होंने नवाब राय नाम लिया, पर 1909 में गोरी सरकार ने कानपुर के जमाना प्रेस से छपा उसका ‘सोजे वतन’ नामक कहानी-संग्रह प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया, तो उर्दू के ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें सुझाया कि वह प्रेमचंद नाम से साहित्य-सृजन करें.
प्रेमचंद के मुंशी प्रेमचंद में बदलने को लेकर जितने मुंह, उतनी बातें होती रही हैं. ‘मुंशी’ न तो अर्जित या विरासत में प्राप्त उपाधि थी, न ही उपनाम. एक दौर में प्रेमचंद अध्यापक हुआ करते थे और अध्यापकों को ‘मुंशी’ भी कहा जाता था. इसलिए एक कयास यह था कि उन्हें इसी कारण मुंशी कहा जाता है, पर बाद में यह वैसे ही गलत सिद्ध हुआ जैसे यह कयास कि चूंकि उनके पिता डाकघर में मुंशी थे, तो उनके वारिस के तौर पर प्रेमचंद भी मुंशी हो गये. कई महानुभावों का कयास था कि प्रेमचंद कायस्थ जाति के थे और उसमें ‘मुंशी’ शब्द को सम्मानसूचक माना जाता है.
इसीलिए प्रेमचंद ने भी अपने नाम के साथ ‘मुंशी’ लगा लिया होगा, लेकिन उनके सुपुत्र अमृत राय के अनुसार प्रेमचंद ने खुद अपने नाम के आगे कभी ‘मुंशी’ नहीं लगाया. प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ में भी उनके लिए कहीं ‘मुंशी’ का प्रयोग नहीं किया है. प्रकाशकों ने उनकी कृतियों पर भी ‘श्री प्रेमचंद जी’, ‘श्रीयुत प्रेमचंद’, ‘उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद’, ‘प्रेमचंद’, ‘श्रीमान प्रेमचंद जी’ आदि नाम ही छापे हैं, उन्हें ‘मुंशी’ नहीं बनाया.
दरअसल, प्रेमचंद को ‘मुंशी’ बनाने में उनके द्वारा संपादित पत्र ‘हंस’ की भूमिका रही है. पत्र में दो सह-संपादक थे- कन्हैयालाल मुंशी व प्रेमचंद. कई अंकों में प्रेमचंद के नाम से पहले कन्हैयालाल मुंशी के पूरे नाम के बजाय महज ‘मुंशी’ छपा रहता था. मुंशी, फिर काॅमा, फिर प्रेमचंद, लेकिन कई बार छापे की गलती से काॅमा छपने से रह जाता. कई बार पाठक मुंशी व प्रेमचंद को एक समझ लेते थे. इसके चलते धीरे-धीरे वह मुंशी प्रेमचंद बन गये.
प्रेमचंद का उपन्यास-सम्राट बनने के पीछे का वाकया भी दिलचस्प है. कलकत्ता के ‘वणिक प्रेस’ के मालिक महाबीर प्रसाद पोद्दार प्रेमचंद से बहुत प्रभावित थे. जैसे ही उनका कोई नया उपन्यास आता, उसे बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र को पढ़ने दे देते थे. एक दिन वे शरतचंद्र के घर गये, तो देखा कि उन्होंने प्रेमचंद के एक उपन्यास के एक पृष्ठ पर ‘उपन्यास-सम्राट’ लिख रखा है. उन्होंने झट उसे लपक लिया और प्रेमचंद को ‘उपन्यास-सम्राट’ बना डाला.
प्रेमचंद उन दिनों ‘बादशाह’भी हुआ करते थे, जब शिक्षा विभाग में नौकरी करते थे. उनके डिप्टी इंस्पेक्टर रहते एक इंस्पेक्टर उनकी तैनाती वाले स्कूल का निरीक्षण करने आया. अगले दिन प्रेमचंद अपने घर के बरामदे में कुर्सी पर बैठे थे. तभी सामने से इंस्पेक्टर की गाड़ी निकली. आंखें मिलीं, तो इंस्पेक्टर को लगा कि वह उसके सम्मान में कुर्सी से उठेंगे और अभिवादन करेंगे, पर वे हिले तक नहीं. इंस्पेक्टर यह बरदाश्त नहीं कर पाया.
उसने अर्दली भेज कर उन्हें तलब किया. जैसे ही प्रेमचंद उसके सामने आये, कड़कती आवाज में इंस्पेक्टर ने कहा, ‘तुम्हारे दरवाजे से तुम्हारा अफसर निकल जाता है और तुम सलाम तक नहीं करते! तुम बहुत घमंडी हो.’ उसे उम्मीद थी कि प्रेमचंद गिड़गिड़ाते हुए सफाई देंगे, पर उनका दो-टूक जवाब था, ‘जब तक मैं स्कूल में रहता हूं, तब तक ही नौकर रहता हूं. बाद में मैं अपने घर का बादशाह हूं.’
एक बार उनके एक लेख से कुछ लोग नाराज हो गये. पत्नी ने पूछा कि वे ऐसा लिखते ही क्यों हैं? उनका उत्तर था- ‘पब्लिक और गवर्नमेंट, दोनों लेखक को अपना गुलाम समझती हैं. वह सभी की मर्जी के मुताबिक ही लिखे, तो लेखक कैसा? गवर्नमेंट जेल में डालती है, पब्लिक मारने की धमकी देती है, तो क्या लेखक डर जाए और सच्चाई बयान करना बंद कर दे?