भारत वर्ष 2023 में दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया और शायद अगली सदी और उसके बाद भी शीर्ष पर बना रहेगा, बशर्ते वह छोटे देशों में ना टूट जाए. भाषा, धर्म, नस्ल, संस्कृति, खान-पान की विविधताओं के बावजूद भारत का एक रहना आधुनिक विश्व के लिए एक चमत्कार से कम नहीं. सोवियत संघ दस देशों में बंट गया. फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा की वजह से 1960 के दशक में कनाडा लगभग टूटने के करीब था. विभाजन के वक्त जन्मा पाकिस्तान भी टूट गया. भारत का 75 सालों तक अटूट रहना जश्न मनाने की बात है. तो क्या इस बात का भी जश्न मनाया जाना चाहिए कि हम सबसे बड़ी आबादी वाले देश हैं? यह तलवार की दोहरी धार के समान है. किसी देश के विकास के लिए मानव संसाधन सबसे अहम चीज होती है.
यानी, कौशल, शिक्षा, लगन, उद्यम और अवसर वाले लोग. लेकिन, यही संसाधन महंगा पड़ सकता है अगर उसके विकास पर कोई खर्च नहीं किया जाए, और युवाओं के लिए कोई अवसर ना हों. भारत की अर्थव्यवस्था चार वर्ष पहले तीन ट्रिलियन डॉलर को पार कर चुकी है. यह सबसे तेज विकास कर रही बड़ी आर्थिक व्यवस्थाओं में शामिल है. इस साल ब्रिटेन को पीछे छोड़ भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया, और जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने जून में अमेरिकी कांग्रेस में कहा, भारत अगले कुछ वर्षों में दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जायेगी. इस तेज विकास से बहुत जल्द हम पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव तक पहुंच जायेंगे.
लेकिन भारत ने पिछले महीने एक और महत्वपूर्ण पड़ाव को पार कर लिया, जिस पर हम गर्व नहीं कर सकते. भारत में लंबित मुकदमों की संख्या पांच करोड़ से ज्यादा हो चुकी है. ई-कोर्ट्स की वेबसाइटों के अनुसार, 23 जुलाई तक उच्च न्यायालयों में 60 लाख, 60 हजार मुकदमे और जिला व तालुका न्यायालयों में चार करोड़, 43 लाख मुकदमों का फैसला होना बाकी था. तीन साल पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश ने नालसार यूनिवर्सिटी में एक भाषण में कहा था कि देश में तीन करोड़, 24 लाख, 50 हजार मुकदमे लंबित हैं. इसका मतलब यह हुआ कि इनकी संख्या हर साल लगभग 18 फीसदी की दर से बढ़ रही है.
अर्थव्यवस्था छह प्रतिशत, आबादी 0.8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, लेकिन लंबित मुकदमों की संख्या 18 प्रतिशत के दर से बढ़ रही है. इनमें से 25 प्रतिशत मुकदमे पांच साल से ज्यादा समय से लंबित हैं. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उच्च न्यायालयों में एक चौथाई से ज्यादा मुकदमे 10 से ज्यादा सालों से लंबित हैं. इनकी संख्या 10 लाख से ज्यादा है. इलाहाबाद हाईकोर्ट में सबसे ज्यादा, सात लाख से अधिक मुकदमे लंबित हैं. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के पास अभी डिजिटल शक्ल में विस्तृत और व्यापक डेटा उपलब्ध है. इनके अध्ययन से मुकदमों से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है.
दीवानी और फौजदारी, दोनों ही मुकदमों को निपटाने में देर हो रही है. निचली अदालतों में 70 से 80 फीसदी मामले फौजदारी के हैं, लेकिन उच्च न्यायालयों में ठीक उल्टी स्थिति है. इसकी सबसे बड़ी कीमत उन लोगों को चुकानी पड़ती है जो जेलों में हैं, और जिन्हें विचाराधीन कैदी कहा जाता है. तकनीकी तौर पर ये सभी निर्दोष लोग हैं क्योंकि उन्हें दोषी साबित नहीं किया गया है. ऐसे लगभग चार से पांच लाख लोग जेलों में हैं जो बिना जुर्म साबित हुए कैद हैं. इससे भी ज्यादा विचित्र बात यह है कि कई लोग मुकदमे का फैसला होने के इंतजार में, अपराध के लिए तय सजा से भी ज्यादा समय जेलों में बंद रहते हैं. ऐसी घटनाएं हमारे लोकतंत्र पर एक धब्बा है. लेकिन, फैसलों में देरी होना भी एक बड़ा धब्बा है क्योंकि इंसाफ में देरी, इंसाफ नहीं देने के बराबर है. वर्ष 2019 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में मुकदमों के फैसले में औसतन 30 महीने लग जाते हैं, इसकी तुलना में यूरोप में बस छह महीने में फैसले हो जाते हैं. विवादों के निपटारे में देरी से भारत में कारोबार करने की सुगमता के रिकॉर्ड को धक्का लगता है.
तो लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ने की वजह क्या है? पहली वजह है न्यायिक अधिकारियों की कमी. न्यायिक क्षेत्र में कुल मिलाकर औसतन 20 प्रतिशत से ज्यादा पद रिक्त हैं, और उच्च अदालतों में यह संख्या और ज्यादा है. केवल इन पदों को भरने से स्थिति में सुधार हो सकता है. दूसरा कारण बेवकूफी भरा लग सकता है, मगर वह गंभीर है और इसका जिक्र भारत के मुख्य न्यायाधीश ने किया था. पिछले वर्ष दिसंबर में, उन्होंने कहा था कि 63 लाख मुकदमों में वकीलों की अनुपलब्धता के कारण देरी हो रही है. और 14 लाख अन्य मुकदमे किसी दस्तावेज या रिकॉर्ड के इंतजार की वजह से नहीं निपट पा रहे हैं.
ऐसे समय जब अदालतों की पूरी प्रक्रिया डिजिटल हो रही है, यह अक्षमता बिल्कुल अस्वीकार्य है. मुकदमों की संख्या बढ़ने की तीसरी वजह प्रोत्साहन की कमी है, खास तौर पर जब उसमें सरकारी अधिकारी लिप्त हों. जैसे, यदि किसी निचली अदालत ने आयकर के मामले में सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया, तो लगभग निश्चित है कि लिप्त अधिकारी ऊपरी अदालत में जायेगा, भले ही यह एकदम साफ मामला हो. ऐसा इस डर से होता है कि कहीं उस पर भ्रष्टाचार या मिलीभगत का आरोप ना लग जाए. देरी का चौथा कारण मुकदमों की लिस्टिंग में मनमानी भी हो सकती है. ऐसी एक छवि बन चुकी है कि रसूख वाले लोगों के मामलों की सुनवाई तत्काल हो जाती है, जबकि आम जन इंतजार करते रह जाते हैं. मुकदमों का अंबार लगने का एक पांचवां कारण सुलह की एक विश्वसनीय व्यवस्था का नहीं हो पाना है.
दरअसल, अमेरिका जैसे देशों में, जहां खूब मुकदमेबाजी होती है, वहां यदि फौजदारी का कोई मुकदमा अदालत में जाता है, तो 90 प्रतिशत संभावना होती है कि मुलजिम दोषी पाया जायेगा, और वह भी बहुत जल्दी. इसलिए बहुत सारे मामलों पर मुकदमा शुरू भी नहीं होता और अदालत के बाहर सुलह हो जाती है. भारत में, मुकदमों की ठीक से तैयारी नहीं होने की वजह से, 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग बरी हो जाते हैं. मुकदमों की बढ़ती संख्या को काबू में करने के लिए अभी जरूरत है कि न्यायिक सुधार किया जाए, अदालत से बाहर सुलह के प्रयास हों, और इसके साथ ही डिजिटल और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की सुविधाओं का पूरा इस्तेमाल किया जाए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)