21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Independence Day Special: आजादी की शौर्य गाथा को संजोए है रेजीडेंसी, आज भी दीवारों पर मौजूद हैं निशान

लखनऊ की ऐतिहासिक इमारत रेजीडेंसी का निर्माण नवाब आसिफद्दौला ने 1775 में शुरू करवाया था, जिसे नवाब सआदत अली ने पूरा कराया. गोमती किनारे 33 एकड़ में फैली इस इमारत में 1857 की क्रांति के निशान आज भी मौजूद हैं. क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से अपनी आजादी की पहली लड़ाई यहीं लड़ी, जो इतिहास में दर्ज है.

Lucknow Residency: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ सिर्फ एक शहर और तहजीब, संस्कृति का केंद्र नहीं, बल्कि इतिहास की अहम घटनाओं का गवाह रहा वह स्थान है, जो आज भी लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र है. खासतौर से आजादी की लड़ाई के दौरान लखनऊ कई बड़े घटनाक्रम का केंद्र बिंदु रहा.

1857 की लड़ाई के दौरान जिस तरह से क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकुमत को यहां चुनौती दी, उसकी गूंज पूरे देश में सुनाई दी. इस लड़ाई में लखनऊ की आधी आबादी ने भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया. यहां की वीरांगनाओं का जिक्र इतिहासकारों ने अपनी ​किताबों में किया है.

अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की लड़ाई का केंद्र बना रेजीडेंसी

खुद अंग्रेजों ने भी क्रांतिकारियों की ताकत का लोहा माना. वहीं आज भी लखनऊ में कई ऐसे स्थान मौजूद हैं, जो आजादी की लड़ाई से जुड़ी यादों की गवाही देते हैं. ऐतिहासिक स्थल रेजीडेंसी इन्हीं में से एक है.

क्रांतिकारियों के हौसले के आगे फिरंगी सेना को भागकर रेजीडेंसी में शरण लेनी पड़ी थी, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों का निवास स्थान हुआ करती थी. बेगम हजरत महल के बेटे के नेतृत्व में 40 दिनों तक अंग्रेजों को गोलाबारी के बीच रेजीडेंसी में ही कैद रहना पड़ा.

Also Read: Explainer: क्या वाकई में नीतीश कुमार के लिए आसान सीट साबित होगी फूलपुर? फैसले के लिए सही वक्त का कर रहे इंतजार

क्रांतिकारियों ने रेजीडेंसी को चारों ओर से घेर लिया था. अंग्रेजों के निकलने की सभी कोशिशें नाकाम हो रहीं थीं. यहां एक जुलाई से 17 नवंबर तक क्रांतिकारियों व अंग्रेजों के बीच घमासान चला था. इतिहासकारों के मुताबिक रेजीडेंसी के अंदर पहली मौत तीन जुलाई 1857 को एमटी ऐरम की हुई थी। वर्तमान में अंग्रेजों की कई कब्रें क्रांतिकारियों के हौसलों की दास्तां बयां कर रही हैं. रेजीडेंसी में एडवर्ड पाउनी व सर हेनरी लॉरेंस जैसे अंग्रेजी सेना के प्रमुखों की चौबीस से अधिक कब्रें वर्तमान में मौजूद हैं, तो कई कब्रों के निशान आज भी मौजूद हैं.

दीवारों पर आज भी मौजूद हैं गोलियों और तोप के गोलों के निशान

रेजीडेंसी का निर्माण अंग्रेजी सेना के वरिष्ठ अधिकारी ब्रिटिश रेजिडेंट जनरल के निवास के लिए कराया गया था, जो कोर्ट में नवाब के पैरोकार थे. 1857 में रेजीडेंसी स्वतंत्रता संग्राम की लम्बी लड़ाई का गवाह बना, जिसे सिज ऑफ लखनऊ कहा जाता है. यहां की दीवारें आज भी गोलियों और तोप के गोलों के छेद से पटी पड़ी है.

कहते हैं कि गदर के निशान देखने हों तो रेजीडेंसी से ज्यादा मकबूल जगह और कहीं नहीं मिलेगी. रेजीडेंसी में मौजूद चर्च के पास करीब दो हजार अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवार की कब्र हैं. यहीं पर सर हेनरी लॉरेंस मारा गया था. आज भी रेजीडेंसी के कब्रिस्तान में सर लॉरेंस की कब्र पर लिखा है कि यहां पर सत्ता का वो पुत्र दफन है, जिसने अपनी ड्यूटी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी.

लखौरी ईंट और सुर्ख चूने से बनाई गई भव्य इमारत

रेजीडेंसी का निर्माण नवाब आसफुद्दौला के शासनकाल में 1775 में शुरू हुआ, जिसे नवाब सआदत अली खां ने 1800 में पूरा कराया. नवाब ने अंग्रेजों की सुविधा को देखते हुए उन्हें दरिया के किनारे एक ऊंचे टीले पर बसाया. 1800 में नवाब सआदत अली खां के शासन में रेजीडेंसी बन कर तैयार हुई. पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से नियुक्त अधिकारी इसमें रहते थे. लखौरी ईंट और सुर्ख चूने से बनी इस दो मंजिले इमारत में बड़े-बड़े बरामदे और एक पोर्टिको शामिल था.

रेजीडेंसी में विद्रोह की पटकथा उस समय लिखी जानी शुरू हो गई थी, जब अवध में अंग्रेज अफसरों ने धीरे धीरे नवाबों के प्रशासनिक कार्यों में भी दखल देना शुरू कर दिया था. इसको लेकर अवध के नवाबों में काफी हलचल थी. इसी वजह से अवध के नवाब ने धीरे-धीरे करके रेजीडेंसी से अपनी दूरियां बनानी शुरू कर दी थीं.

ब्रिटिश हुकूमत ने 7 फरवरी 1856 को अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह को अयोग्य घोषित करके उनसे सत्ता छीन ली थी. नवाब वाजिद अली शाह कोलकाता भाग गए थे. इसके बाद अवध में कंपनी बहादुर के तहत लोगों पर नए-नए कर लगाना शुरू किया गया. 10 मई 1857 में मेरठ से आजादी की पहली लड़ाई की क्रांति शुरू हुई थी. इस क्रांतिकारी लड़ाई की आग अवध तक पहुंच गई थी. क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकूमत को खत्म करने के लिए वाजिद अली शाह के बेटे को अवध का नवाब घोषित कर दिया था और उनकी मां बेगम हजरत महल ने अपने नेतृत्व में क्रांति की लड़ाई लड़ी थी.

विद्रोह के दौरान अंग्रेज महिलाओं ने ली थी तहखाने की शरण

रेजीडेंसी के नीचे आज भी एक बड़ा तहखाना है. अवध के रेजीडेंट इस तहखाने में आराम फरमाते थे. गदर के वक्त तमाम अंग्रेज महिलाओं और बच्चों ने इसी तहखाने में शरण ली थी. इतिहासकारों के मुताबिक इसी जगह पहली जुलाई 1857 को कर्नल पामर की बेटी के पैर में गोली लगी थी. इसी भवन की ऊपरी मंजिल के पूर्वी सिरे वाले कमरे में 2 जुलाई 1857 को सर हेनरी लॉरेंस को क्रांतिकारियों ने गोली मारी थी.

बेहद भव्य था दावत खाना

अवध हुकूमत ने इस इमारत में ब्रिटिश रेजीडेंट के लिए दावत खाना भी बनवाया था. ये दो मंजिला भवन एक दौर में यूरोपियन फर्नीचर और चीन के सजावटी सामान से भरा पड़ा था. इसके मुख्य कक्ष में फाउंटेन चलते थे. बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के दौर में इस हॉल में बहुत दावतें हुआ करती थीं. गदर के दिनों में इस भवन को अस्पताल बना दिया गया. 8 जुलाई के हमले में रेवरेंड पोलीहेम्पटन यहां बहुत बुरी तरह से जख्मी हुए.

सेंट मेरी चर्च में बनवाई गई अंग्रेजों की कब्र

इतिहासकारों के मुताबिक 1810 में रेजीडेंसी में गोथिक शैली का सेंट मेरी गिरिजाघर बन कर तैयार हुआ. गोथिक वास्तुकला में अद्वितीय विशेषताओं का एक समूह है जो इसे अन्य सभी शैलियों से अलग करता है. वहीं गदर के समय इसे गल्ले का गोदाम बना दिया गया. स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए रेजीडेंसी के पहले अंग्रेज की कब्र की इसी चर्च में बनवाई गई. यहीं नवाब मुस्तफा खां और मिर्जा मुहम्मद हसन खां की मजार भी है.

रेजीडेंसी में ट्रेजरी हाउस

रेजीडेंसी में यूरोपियन अधिकारियों का विनियम विभाग था. 1857 की क्रांति में इसके केंद्रीय भाग को प्रयोगशाला बना दिया गया. इसमें इनफील्ड गन की कार्टिंजेज बनाए जाते थे. इसके निकट ही पुराने बरगद के पास रेजीडेंसी का पोस्ट आफिस था, जिसमें गदर के समय टूल्स शेल्स का निर्माण होने लगा.

गदर की लड़ाई में मारा गया हेनरी लाॅरेंस स्मारक

इतिहासकारों के मुताबिक रेजीडेंसी में रहने वाले ब्रिटिश अधिकारियों में हेनरी लाॅरेंस बेहद कुशल प्रशासक था. गदर की लड़ाई में मरने वाले हेनरी की मजार पहले 51 फीट ऊंचे और बड़े घेरे में बना था. 1904 में अंग्रेजी शासन काल में उसे ये नई रूपरेखा दी गई.

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में रेजीडेंसी का खास महत्व

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में रेजीडेंसी का अपना ही महत्व है. बेगम हजरत महल के प्रमुख सहायक राजा जियालाल की कमांड में लड़े गए चिनहट की लड़ाई के अगले दिन 30 जून 1857 को सैय्यद बरकत अहमद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने इस विदेशी गढ़ पर गोलीबारी शुरू कर दी. क्रांतिकारियों ने 86 दिन तक यहां अपना कब्जा रखा. इस दौरान तमाम अंग्रेज परिवार यहां कैद रहे. 17 नवंबर 1857 की रात मौलवी अहमदउल्ला शाह ने रेजीडेंसी पर आखिरी हमला किया, जिसके दूसरे दिन काॅलिन कैम्पबेल कानपुर से सेना लेकर आए और फिर उस पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया.

देश-विदेश से पर्यटक आते हैं रेजीडेंसी

इतिहासकारों के मुताबिक अवध के नवाबों ने ब्रिटिश हुकूमत की काफी आवभगत की थी. इसका फायदा ब्रिटिश हुकूमत ने काफी उठाया. उन्होंने यहां पर धीरे धीरे अपने पैर फैलाना शुरू किया और कब्जा बढ़ाते चले गए. उन्होंने नवाबों की निगरानी करानी शुरू कर दी थी और अपनी राजनीतिक कुशलता से धीरे धीरे अवध के नवाबों से पूरी तरह से सत्ता छीन ली.

इसके बाद ही बेगम हजरत महल के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी गई, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे. लखनऊ में रेजीडेंसी को देखने के लिए देश विदेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं. उनमें यहां के इतिहास की जानकारी को लेकर बेहद उत्सुकता नजर आती है. अतीत की कई कहानियां समेटे रेजीडेंसी आज भी शहर आने वाले पर्यटकों को अपने मोहपाश में जकड़ लेती है.

बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों ने लिया लोहा

नवाब वाजिद अली शाह की पहली पत्नी बेगम हजरत महल महान क्रांतिकारी, चतुर रणनीतिकार और कुशल प्रशासक थीं. 1857 की क्रांति के दौरान जब देशभर में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज फौजों की नाक में दम कर रखा था, उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने बेगम के पति नवाब वाजिद अली शाह को हिरासत में लेकर कलकत्ता भेज दिया था.

उस दौरान बेगम हजरत ने साहस और वीरता का परिचय देते हुए अवध की बागडोर संभाली. अपने नाबालिग बेटे बिरजिस कादर को गद्दी पर बैठाकर अंग्रेजी फौज से डटकर मुकाबला किया. हालांकि लंबी लड़ाई के बावजूद अंग्रेज फौज से हार गईं. आखिरकार, बेगम को नेपाल में शरण लेनी पड़ी. वहीं उनका इंतकाल हो गया. उनकी याद में हजरतगंज के विक्टोरिया पार्क को बेगम हजरत महल पार्क नाम दिया गया. उनकी याद में यहां एक संगमरमर का स्मारक भी बनवाया गया है.

इस जगह पर अंग्रेजों पर टूट पड़ीं थी वीरांगना ऊदा देवी

1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय ब्रिटिश सेना से घिरे सैकड़ों भारतीयों ने सिकंदर बाग में शरण ली थी. 16 नवंबर 1857 को ब्रिटिश फौजों ने सिकंदर बाग पर चढ़ाई कर लगभग 2000 से अधिक सिपाहियों को मार डाला था. वर्षों बाद तक बाग से तोप, गोला बारूद, तलवारें, ढाल और हथियारों के टूटे हिस्से मिलते रहे, जिन्हें अब संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है.

इस घमासान के दौरान बाग की दीवारों पर पड़े निशान इस ऐतिहासिक घटना की गवाही देते हैं. इस लड़ाई में वीरांगना ऊदा देवी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. उन्होंने ब्रिटिश सेना से घिरे भारतीयों की मदद की. उन्होंने पुरुषों के वस्त्र धारण कर बाग के सबसे ऊंचे पेड़ पर चढ़कर अंग्रेज सेना पर खूब गोले बरसाए. अंग्रेजों से तब तक लड़ती रहीं, जब तक उनके पास गोला बारूद रहा. गोलियों से छलनी होकर दम तोड़ दिया पर झुकीं नहीं. बाग में ऊदा देवी की प्रतिमा भी स्थापित की गई है.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें