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Explainer: ये हैं भगवान शिव के प्रतीक चिह्न, जानें क्या है इसकी मान्यताएं

देवों के देव महादेव का हर स्वरूप कल्याणकारी है. भगवान शिव के जितने नाम हैं, उतने ही रूप भी हैं. शिवजी के हर स्वरूप का अलग ही महत्व है. जिस तरह से उनके सभी स्वरूप की अलग महिमा है, उसी तरह उनसे जुड़े हर प्रतीक भी महत्वपूर्ण है

सावन का पवित्र महीना जारी है. सावन के इस महीने में महादेव के हाथों में ही इस दुनिया की बागड़ोर होती है. शास्त्रों में शिवजी की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए यह महीना सबसे उत्तम माना गया है. देवों के देव महादेव का हर स्वरूप कल्याणकारी है. भगवान शिव के जितने नाम हैं, उतने ही रूप भी हैं. शिवजी के हर स्वरूप का अलग ही महत्व है. जिस तरह से उनके सभी स्वरूप की अलग महिमा है, उसी तरह उनसे जुड़े हर प्रतीक भी महत्वपूर्ण है. भगवान ने अपने शरीर पर जितनी भी चीजें धारण की हुई हैं, सभी अलौकिक और रहस्यमयी हैं. आज सावन मास की पांचवीं सोमवारी है. इस विशेष अवसर पर जानें भगवान शिव से जुड़े प्रतीकों की महिमा और रहस्य के बारे में.

शिवलिंग

भगवान शिव के निर्गुण-निराकार रूप का प्रतीक है शिवलिंग. यह शिवजी के ब्रह्म, आत्मा व ब्रह्मांड स्वरूप का भी प्रतीक है. महादेव को शिवलिंग अतिप्रिय है. अगर कोई श्रद्धालु सच्चे मन से इस पर जल चढ़ाता है, तो भोलेनाथ उनकी हर मनोकामना पूरी करते हैं. पुराणों में शिवलिंग को लेकर कई मान्यताएं हैं. वायु पुराण के अनुसार, प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे सृष्टि प्रकट होती है, उसे शिवलिंग कहते हैं. जबकि, स्कंदपुराण में कहा गया है कि आकाश स्वयं लिंग है. शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती और अनंत ब्रह्मांड का अक्ष या धुरी ही लिंग है. शिवलिंग को भगवान शिव एवं पार्वती का आदि-अनादि एकल रूप भी माना गया है.

त्रिशूल

दैनिक, दैविक और भौतिक कष्टों के विनाश का सूचक

जिस जगह पर भगवान शिव रहते हैं, उनके पास हमेशा एक त्रिशूल भी रहता है. त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक और भौतिक के विनाश का सूचक भी है. इस त्रिशूल में सत, रज व तम आदि तीनों शक्तियां पायी जाती हैं. त्रिशूल के तीन शूल सृष्टि के क्रमश: उदय, संरक्षण और लयीभूत होने का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. शैव मतानुसार, शिव इन तीनों भूमिकाओं के अधिपति हैं. यह शैव सिद्धांत के पशुपति, पशु एवं पाश का प्रतिनिधत्व करता है. इसे महाकालेश्वर के 3 कालों यानी वर्तमान, भूत, भविष्य का भी प्रतीक माना जाता है. साथ ही यह स्वपिंड, ब्रह्मांड और शक्ति का परम पद से एकत्व स्थापित होने का प्रतीक है. यह वाम भाग में स्थित इड़ा, दक्षिण भाग में स्थित पिंगला और मध्य में स्थित सुषुम्ना नाड़ियों का भी प्रतीक है.

रुद्राक्ष

भगवान शिव का स्वरूप, जो उनके आंसू से उत्पन्न हुआ

पुराणों में रुद्राक्ष को देवों के देव महादेव का स्वरूप माना गया है. मान्यताओं के अनुसार, रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसू से हुई थी. रुद्राक्ष दो शब्दों से मिलकर बना है. पहला शब्द है-रुद्र अर्थात भगवान शिव और दूसरा-अक्ष अर्थात नेत्र. कहा जाता है कि शिवजी के नेत्रों से जहां-जहां अश्रु गिरे, वहां रुद्राक्ष के वृक्ष उग आये. रुद्राक्ष की माला से जाप करने से शिवजी की असीम कृपा मिलती है. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, धरती पर 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं. अभी 14 मुखी रुद्राक्ष ही िमले हैं. रुद्राक्ष की माला जपने या इसे धारण करने से रक्त संचार बेहतर होने के साथ शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.

त्रिपुंड तिलक

त्रिगुण, सतोगुण, रजोगुण और तपोगुण का प्रतीक

शिवजी माथे पर त्रिपुंड लगाते हैं. तीन धारियों वाले तिलक को त्रिपुंड कहते हैं. यह त्रिगुण, सतोगुण, रजोगुण और तपोगुण का प्रतीक है. त्रिपुंड दो प्रकार के होते हैं. पहला-तीन धारियों के बीच लाल रंग का एक बिंदु होता है. यह बिंदु शक्ति का प्रतीक है. श्रद्धालुओं को ये त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए. दूसरा-सिर्फ तीन धारियों वाला त्रिपुंड. इसे लगाने से मन को शांति मिलने के साथ एकाग्रता बढ़ती है. महादेव के ललाट पर लगने वाला त्रिपुंड सिर्फ तिलक नहीं है. इस त्रिपुंड में कई चमत्कारी शक्तियां छिपी हैं.

भस्म

आकर्षण, मोह,अहंकार आदि से मुक्ति का प्रतीक

देवों के देव महादेव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं. भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है. भस्म आकर्षण, मोह, अहंकार आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है. देश के एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है, जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है. यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं. प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब सिर्फ भस्म (राख) ही शेष रहती है. यही दशा शरीर की भी होती है.

जटाएं व गंगा

सिर पर गंगा आध्यात्म की धारा का प्रतीक

शिवजी अंतरिक्ष के देवता माने जाते हैं. अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है. पौराणिक कथा के अनुसार, गंगा नदी का स्रोत भगवान शिव हैं. शिव की जटाओं से स्वर्ग से मां गंगा का धरती पर आगमन हुआ था. कहा जाता है कि जब पृथ्वी की विकास यात्रा के लिए गंगा का आवाहन किया गया, तो पृथ्वी की क्षमता इनके आवेग को सहने में असमर्थ थी. ऐसे में शिवजी ने मां गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया, जो यह दर्शाता है कि आवेग की स्थिित को दृढ़ संकल्प से संतुलित किया जा सकता है.

नंदी और नाग

नाग कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक, तो नंदी शिव के गण

वृषभ भगवान शिव का वाहन है. वे हमेशा शिवजी के साथ रहते हैं. वृषभ का अर्थ धर्म है. वेद में धर्म को चार पैरों वाला यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माना जाता है. महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं. एक मान्यता के अनुसार, वृषभ को नंदी भी कहा जाता है, जो शिव के एक गण हैं. उसी तरह शिवजी अपने गले में नाग धारण करते हैं. इसलिए महादेव का नागेश्वर ज्योतिर्लिंग इसी नाम से प्रसिद्ध है. नाग कुंडलिनी शक्ति का भी प्रतीक है.

चंद्रमा

मन की स्थिरता और आदि से अनंत का प्रतीक

भगवान भोलेनाथ को सोम यानी चंद्रमा के नाम से भी जाना जाता है. भगवान शिव द्वारा चंद्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है. हिमालय पर्वत और समुद्र से चंद्रमा का सीधा संबंध है. धरती पर स्थापित पहला सोमनाथ भी चंद्रदेव द्वारा ही रखा गया था. कहा जाता है कि शिवजी के सभी त्योहार और पर्व चांद्रमास पर ही आधारित होते हैं. शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चंद्र कलाओं का महत्व है. यह अर्द्धचंद्र शैवपंथियों और चंद्रवंशियों के पंथ का भी प्रतीक है.

कुंडल

शिव-शक्ति के रूप में सृष्टि के सिद्धांत का प्रतिनिधित्व

हिंदू धर्म में कर्ण छेदन एक संस्कार है. शैव, शाक्तय और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की परंपरा है. प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कानों में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने को मिलता है. भगवान शिव भी अपने दोनों कानों में कुंडल धारण किये हुए हैं.दोनों कानों में विभूषित कुंडल शिव और शक्ति (पुरुष व महिला) के रूप में सृष्टि के सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करते हैं.

डमरू

सृष्टि के आरंभ व ब्रह्म नाद का प्रतीक, जिसे ‘ॐ’ कहा जाता है

सभी हिंदू देवी-देवतओं के पास कोई न कोई वाद्य यंत्र जरूर रहता है. उसी तरह भगवान शिव के पास डमरू था, जो नाद का प्रतीक है. ऐसी मान्यता है कि संगीत के जनक भगवान शिव ही थे. डमरू की उत्पत्ति से पहले दुनिया में कोई भी नाचना, गाना बिल्कुल भी नहीं जानता था. नाद एक ऐसी ध्वनि है, जो ब्रह्मांड में निरंतर गुंजती है. इसे ‘ॐ’ कहा जाता है. संगीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके बीच विद्यमान केंद्रीय स्वर नाद है. नाद से ही वाणी के चारों रूपों-पर, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी की उत्पत्ति मानी जाती है. पुराणों के अनुसार, भगवान शिव के डमरू से कुछ अचूक और चमत्कारी मंत्र निकले थे. कहते हैं कि ये मंत्र कई बीमारियों का इलाज कर सकते हैं.

कमंडल

संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही जीवन साधना का प्रतीक

भगवान शिव के कमंडल में पाये जाने वाला जल अमृत के समान माना गया है. इसे संत और योगी धारण करते हैं. भगवान शिव द्वारा धारण किये जाने वाला कमंडल संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही जीवन साधना का प्रतीक है. मान्यता है कि कमंडल में अमृत होता है और इसे शिव के बगल में जमीन पर दिखाया जाता है, जो दर्शाता है कि व्यक्ति को आनंद का अनुभव करने के लिए भौतिक दुनिया से लगाव तोड़ देना चाहिए और अंतर्मन में मौजूद अहंकारी इच्छाओं को साफ करना चाहिए.

हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म

अभिमान-हिंसा को दबाने के लिए शिवजी करते हैं धारण

भगवान शिव अपने शरीर पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म धारण करते हैं. हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर. दरअसल, हस्ती को ‘अभिमान’ और व्याघ्र को ‘हिंसा’ का प्रतीक माना जाता है. ऐसे में शिवजी इन दोनों को अपने शरीर पर धारण कर इन्हें दबाकर रखते हैं. बाघ को शक्ति और सत्ता का प्रतीक माना जाता है. भगवान शिव इस पर बैठकर और इसकी खाल को पहनकर यह दर्शाते हैं कि शिवजी से ऊपर कोई शक्ति नहीं है. वे ही सभी शक्तियों के अधिपति हैं.

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