भारत में हाथियों की संख्या लगातार कम हो रही है. वर्ष 2017 की राष्ट्रीय हाथी जनगणना के अनुसार, देश में 27,312 हाथी ही शेष हैं. वर्ष 2012 में हाथियों की संख्या तकरीबन 30 हजार थी. वर्ष 2012 से 2017 के बीच हाथियों की संख्या में 10 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गयी है. केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 2014 से 2019 के बीच 500 हाथियों की अकाल मौत हुई.
हाथियों के संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने 13 अक्तूबर, 2010 को हाथी को ‘राष्ट्रीय विरासत पशु’ घोषित किया था, जबकि देश के तीन राज्यों-झारखंड, कर्नाटक और केरल सरकार द्वारा हाथी को ‘राजकीय पशु’ के रूप में मान्यता दी गयी है. ऐसे में हाथियों की घटती तादाद में मानव जनित कारकों की बढ़ती भूमिका कई प्रश्न खड़े करती है.
एशियाई हाथियों की 60 प्रतिशत जनसंख्या अकेल भारत में है. यदि इसी तरह चलता रहा, तो हाथी की दो अन्य प्रजातियों की तरह, एशियाई हाथी भी विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जायेंगे. स्विस संस्था, अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ द्वारा जारी 2021 की ‘लाल सूची’ में अफ्रीकी जंगली हाथी को ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ तथा अफ्रीकी सवाना हाथी को ‘लुप्तप्राय’ घोषित किया गया है.
बीते दिनों मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व पर जारी वर्ल्ड वाइड फंड और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, मानव-वन्यजीव टकराव का सर्वाधिक प्रभाव भारत पर पड़ेगा, क्योंकि जैव-विविधता के मामले में समृद्ध होने के साथ-साथ भारत दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भी है. बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वनोन्मूलन,
जलवायु परिवर्तन, वन्यजीव पर्यावास के विखंडन की प्रक्रिया तथा जंगली भूभागों में अनियंत्रित खनन गतिविधियां, रेलवे लाइन बिछाने, सड़क और नहर आदि के निर्माण में तेजी के कारण हाथियों के प्राकृतिक पर्यावास में कमी आयी है. सो जल, भोजन एवं सुरक्षित पर्यावास की खोज में हाथियों का पलायन मानव बस्ती की ओर तेजी से हो रहा है. इसने मानव-हाथी टकराव को जन्म दिया है. प्राकृतिक गलियारे से छेड़छाड़ के कारण जंगली हाथियों का गुस्सा मनुष्यों, खेतों और घरों पर निकलता है.
केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार, 2014 से 2019 के दौरान इंसानों और हाथियों के संघर्ष में हाथी तो मारे ही गये, 2,361 लोगों की भी जान गयी. मानव-हाथी टकराव से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड, असम, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु हैं. टकराव की 85 प्रतिशत घटनाएं इन्हीं छह राज्यों में होती हैं.
हाथियों की संख्या में कमी आने की एक और प्रमुख वजह उसके कीमती और बहुउपयोगी दांत के लिए उसका शिकार किया जाना है. विडंबना है कि गिनतीभर हाथी बचने तथा सख्त कानून बनाये जाने के बावजूद देश में हाथी दांत की प्राप्ति के लिए हाथियों की क्रूरता से हत्या करने का सिलसिला थम नहीं रहा है. ‘वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन’ (सीआइटीइएस) द्वारा 18 जनवरी, 1990 से ही हाथी दांत के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है.
परंतु, आज भी कई देशों में यह व्यापार घरेलू स्तर पर धड़ल्ले से जारी है. दूसरी तरफ, हाथियों को कुछ घातक बीमारियों जैसे पाश्चुरेलौसिस, एंथ्रेक्स और टीबी ने भी विशेष परेशान किया है. ये बीमारियां हाथियों को असमय काल-कवलित कर देती हैं. यह अच्छी बात है कि 2018 में मथुरा में देश के पहले और इकलौते विशेष ‘हाथी अस्पताल’ की स्थापना ने बीमार हाथियों के सही से उपचार को सुनिश्चित किया है. आकाशीय बिजली गिरने से भी हाथियों की अकाल मृत्यु हो जाती है.
रेल मार्गों के विस्तार तथा जंगलों से रेलमार्गों का गुजरना भी हाथियों की मौत का कारण बन गया है. हाथी संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए देश के कई शहरों और राष्ट्रीय उद्यानों में जयपुर की तर्ज पर ‘हाथी महोत्सव’ का आयोजन किया जाता है. हाथी संरक्षण के लिए वर्ल्ड वाइड फंड इंडिया द्वारा 2003-04 में विकसित ‘सोनितपुर मॉडल’ के तहत सामुदायिक स्तर पर हाथियों से खेतों को नष्ट होने से बचाने तथा उसे मारने के बजाय भगाने और वन विभाग को सूचित करने के लिए प्रेरित किया जाता है.
वर्ष 2017-2031 की अवधि के बीच देश में तीसरी ‘राष्ट्रीय वन्यजीव कार्ययोजना’ लागू है, जो वन्यजीवों के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करती है और मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने पर बल देती है. वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम- 1972 की अनुसूची- एक में, हाथी को संरक्षण प्राप्त है. संविधान के अनुच्छेद 48-क और अनुच्छेद 51-क का सातवां उपबंध भी पर्यावरण संरक्षण तथा सभी जीवधारियों के प्रति दयालुता प्रकट करने का कर्तव्य बोध कराता है.
हाथियों के संरक्षण के लिए देशवासियों में ‘सह-अस्तित्व’ की भावना जागृत करनी होगी. भारत दुनिया के 17 वृहद जैव- विविधता वाले देशों में शामिल है. ऐसे में किसी भी जीव-जंतु के अस्तित्व पर मंडराता खतरा पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अहितकर साबित हो सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)