संताली भाषा जितनी प्राचीन है, उतना ही प्राचीन है उसका लोक साहित्य. परंतु उसके लिखित साहित्य का आरंभ आज से लगभग पौने दो सौ साल पहले शुरू हुआ. सन 1850 के पूर्व संभवतः लिखित संताली साहित्य प्रकाश में नहीं आया था. हम पीओ बोडिंग के इस मत से सहमत हैं कि ईसाई मिशनरियों के पूर्व संताली साहित्य को लिपिबद्ध करने का प्रयास संभवतः नहीं हुआ. ईसाई मिशनरियों ने संतालों के जातीय संस्कार, भाषा एवं धर्म का अध्ययन किया और संताली भाषा में उसे अभिव्यक्त किया. उनके व्यक्त करने का उद्देश्य चाहे जो भी रहा हो, पर संताली साहित्य को लिपिबद्ध करने का श्रेय उन्हीं मिशनरियों को जाता है. संताली भाषा में पहली पुस्तक जर्मिया फिलिप्स की है, जो ओड़िशा के एक पादरी थे. 1852 ईस्वी में उन्होंने एक पुस्तक ‘एन इंट्रोडक्शन टू द संताली लैंग्वेज’ लिखी, जो बांग्ला लिपि में छपी थी. इसके बाद 1868 में ईएल पक्सले ने ‘ए वोकेव्युलरी ऑफ दि संताली लैंग्वेज’ लिखा.
सन 1873 में एलओ स्क्रेफ्सरूड ने ‘ए ग्रामर ऑफ दि संताली लैंग्वेज’ लिखा. सन 1887 में ‘ए होडको रेन मारे हापड़ाम को रेयाक कथा’ को स्क्रेफ्सरूड साहब ने एक कल्याण नामक बूढ़े संताल से सुनकर लिपिबद्ध किया. सन 1899 में कैम्पबेल ने संताली-इंग्लिश शब्दकोश तैयार किया. 1929 में पीओ बोडिंग साहब का ‘मैटेरियल्स फॉर ए संताली ग्रामर’ और ‘ ए संताल डिक्शनरी’ प्रकाशित हुआ. इसी क्रम में उनका अनुवाद भी संताली में प्रकाशित हुआ. सन 1924 में उनका ही संताली लोक कथाओं का ‘होड़ कहानी को’ प्रकाशित हुआ. सन 1930 ईस्वी में सीएच कुमार का संथाल परगना, संताल आर पहाड़िया कोवाक इतिहास प्रकाशित हुआ. सन 1946 ईस्वी में आरके रापाजका ‘हाड़मावाक आतो उपन्यास संताली में प्रकाशित हुआ. यह उपन्यास कास्टेयर्स के अंग्रेजी उपन्यास ‘हाड़माज विलेज’ का अनुवाद है. सन 1945 में डब्ल्यूजी आर्चर की प्रेरणा से ‘होड़ सेरेंञ’ और ‘दोङ सेरेंञ’ नाम से दो संताली लोकगीतों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ. आगे चलकर स्वतंत्र रूप से संताली साहित्य को समृद्ध करने में स्वयं कई संताली साहित्यकारों ने योगदान किया, जिसकी बड़ी संख्या है. जिसमें कुछ प्रतिनिधि संताली गैर संताली साहित्यकारों की चर्चा हम यहां करना चाहेंगे.
अंग्रेजों द्वारा लिखित साहित्य को छोड़कर जो संताली साहित्य आज उपलब्ध है, उसमें सबसे पहला नाम पाउल जुझार सोरेन (1892-1954) का आता है, जिन्हें संताली साहित्य का जनक भी कहा जाता है. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ओंनोंड़ हें बाहा-डालवाक् खोन’ (1936) में अपने विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि जिस जाति की भाषा या उसका साहित्य उन्नत नहीं है, उस जाति का विकास और प्रगति होना कठिन है. जो व्यक्ति गीत गाना नहीं जानता है, वह व्यक्ति कठोर प्रकृति का होता है. पाउल जुझारू सोरेन को अपनी भाषा की शक्ति पर विश्वास था. वह मानते थे कि उनकी भाषा गतिशील है. उसमें ओज है, बल है, उसका अतीत भव्य है और उसका भविष्य उज्जवल है. उनका मानना था कि वही भाषा समृद्ध हो सकती है और उन्नति कर सकती है जिसके पास कहने को कुछ हो.
भाषा के माध्यम से ज्ञान एवं सद्गुण की शिक्षा देने की क्षमता हो. जिस जाति के पास यह सब नहीं है उस जाति की भाषा उन्नति नहीं कर सकती. उन्हें विश्वास था किस संतालों के पास अपना संस्कार है, अपनी परंपरा है और उनकी अपनी संस्कृति भी है जो काफी समृद्ध है. संताल युगों से संघर्ष करता हुआ आज भी संघर्षरत है, उनकी भाषा और उनका अपना मौखिक व लिखित साहित्य उस समुदाय की पूंजी है. पाउल जुझारू सोरेन मैट्रिक की परीक्षा पास की और कॉलेज की शिक्षा पाने के लिए कोलकाता गये. वहां नाम भी लिखवाया और वहीं से उन्होंने आईए की परीक्षा पास की. लेकिन उससे आगे की पढ़ाई वह नहीं कर पाये. 1916 में उन्हें सब इंस्पेक्टर ऑफ संताली स्कूल के पद पर नियुक्त किया गया. बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में उन्होंने 32 वर्षों तक की सेवा की.