पंकज चौरसिया, शोधार्थी, जामिया मिलिया इस्लामिया
प्रमुख समाजशास्त्री प्रो घुर्ये ने भारत की सामाजिक संरचना के संदर्भ में वर्ग विभाजन, ऊंच-नीच, खान-पान और सामाजिक सम्मिश्रण पर प्रतिबंध, कुछ वर्गों के सामाजिक और धार्मिक तिरस्कार और कुछ को विशेषाधिकार, व्यवसाय चयन में स्वाधीनता पर रोक आदि को प्रमुख बताया है. इन्हें भारतीय समाज का मूल आधार माना जा सकता है. भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जाति संरचना की जड़ों को कमजोर करने और वंचित तबकों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था को भारतीय संविधान में निहित किया गया, लेकिन यह व्यवस्था उस समय अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए ही लागू की गयी.
देश का बहुसंख्यक जातियों का एक समूह इस आरक्षण व्यवस्था में नहीं आ पाया, जैसे कारीगर, बुनकर, श्रमिक, मछली पालन, बागवानी, नृत्य और गायन करने वाली जातियां आदि. इनमें से कुछ ऐसी भी जातियां हैं, जिनके साथ छुआछूत जैसा सामाजिक भेदभाव होता है. इसलिए वे अनुसूचित जाति की सूची में रखने की अर्हता रखती हैं. मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख किया था. समय-समय पर विभिन्न राज्यों की सरकारें कुछ जाति समूहों को अनुसूचित जाति में शामिल करती रही हैं, लेकिन यह कवायद केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना नहीं पूरी हो सकती.
मंडल कमीशन से भी पहले, बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने वर्ष 1977-78 में मुंगेरी लाल कमीशन की रिपोर्ट के तहत ओबीसी आरक्षण को लागू कर सामाजिक न्याय के विमर्श को जन्म दिया था. तब ओबीसी समुदाय को वर्गीकरण आधार पर आरक्षण देने वाली व्यवस्था लागू करने पर प्रदेश के कोने-कोने से कर्पूरी ठाकुर को गालियां दी गयीं और विरोध हुआ, लेकिन वह जानते थे कि भारतीय सामाजिक संरचना में वर्ग विभेद मौजूद है. इसलिए विरोध के लिए तैयार रहना होगा. उस अकेले व्यक्ति ने सदियों से चली आ रही सामाजिक संरचना की चूलों को हिला कर रख दिया. कर्पूरी ठाकुर नाई जाति से ताल्लुक रखते थे. उनकी जाति में सामाजिक दबाव बनाने और उनके पक्ष में खड़े होने की वैसी हैसियत नहीं थी, जैसा कि आज की राजनीति में दिखता है, लेकिन कर्पूरी ठाकुर के भीतर गांधी जैसा आत्मबल था, जिससे उन्होंने अकेले सब झेला और अपने निर्णय पर अडिग रहे.
सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया सहज नहीं होती और इतनी तेज भी नहीं होती कि सदियों की सामाजिक विषमता को एक दिन में खत्म कर दिया जाए, लेकिन कर्पूरी फॉर्मूले ने पिछड़ी पंक्ति के व्यक्ति को अगली पंक्ति में लाकर खड़ा करने का काम किया. आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय की परंपरा को कायम रखते हुए, गरीब और अति-पिछड़े जाति समूहों के लिए वर्ष 2006 में पंचायत चुनाव में और 2007 में नगर निकाय चुनाव में सीटें आरक्षित कीं और इनके कल्याण के लिए अति-पिछड़ा आयोग का गठन किया, जिससे बिहार में राजनीतिक स्तर पर अति-पिछड़ी जातियों का एक सशक्त नेतृत्व तैयार हो पाया.
नीतीश कुमार ने 2024 के चुनाव के पहले विपक्ष की गोलबंदी कर मोदी सरकार पर जनगणना और रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को प्रकाशित कराने एवं लागू कराने के लिए दबाव डाला है. यह बिहार की धरती से सामाजिक न्याय के विमर्श को आगे बढ़ाने का कदम है, ताकि देश की अति-पिछड़ी जातियों को जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधत्व दिया जा सके. वर्तमान में उच्च संवैधानिक पदों एवं उच्च प्रशासनिक पदों पर पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व आरक्षण के प्रतिशत से भी कम है, फिर अति-पिछड़ी जातियों की स्थिति की मात्र कल्पना ही की जा सकती है. मंडल कमीशन लागू होने के बाद ऐसी कई जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला इसलिए उनमें सामाजिक उपेक्षा का भाव बना हुआ है. इन जातियों का प्रतिनिधित्व हर क्षेत्र में बाधित हो रहा है. लोकतंत्र में विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा, राज्यसभा, केंद्रीय व प्रादेशिक मंत्रिमंडलों के साथ ही राजनीतिक पार्टियों में प्रतिनिधित्व होना एक आवश्यक शर्त होनी चाहिए, लेकिन इन सभाओं व मंत्रिमंडलों में इन जातियों का प्रतिनिधित्व अब तक लगभग शून्य है.
आज ओबीसी की कुछ प्रभुतासंपन्न जातियों के लोग राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के प्रति जागरूक हैं, पर इन जातियों के लोग यह समझने में विफल हैं कि अलग-अलग जातियों की स्थिति भिन्न हो सकती है. इन जातियों की जिम्मेदारी है कि वे रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करवाने का नेतृत्व करें. रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 2700 जातियों में से 983 जातियों का नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रतिनिधित्व शून्य है, और 994 उप-जातियों का प्रवेश और भर्ती में प्रतिनिधित्व केवल 2.68% है. कुल मिलाकर 2700 में से 1977 जातियों को नहीं के बराबर लाभ मिला है. यदि यह रिपोर्ट लागू होती है तो इन जातियों की स्थिति में बदलाव देखने को मिलेगा. आज आजादी के अमृत महोत्सव के साथ कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती मनाई जा रही है. उनकी जन्मशती पर इस रिपोर्ट को लागू कर हम सच्चे अर्थों में कर्पूरी ठाकुर के सपनों को साकार कर सकेंगे.
(ये लेखकों के निजी विचार हैं)