महादेव टोप्पो
आदिवासी पत्रकारिता कहने से यह बात समझ में आती है कि आदिवासी-मालिक या आदिवासी- हितैषी-प्रकाशक द्वारा किसी अखबार या पत्रिका का प्रकाशन-प्रबंधन किया जा रहा है, जिसमें आदिवासी समुदाय संबंधी विभिन्न विषयों, मुद्दों, समस्याओं आदि की चर्चा, विश्लेषण, विवरण ,सूचना व जानकारी शामिल है. ऐसे प्रकाशन और अखबार या पत्रिका को आदिवासी पत्रकारिता से जुड़ा मानेंगे. चूंकि पत्रकारिता अंतत: मानव हित से संबंधित है, इसलिए पहले वह अपने उस समुदाय के हित की बात करता है जिसे वह पाठक बनाना चाहता है. इसलिए पहले वह पाठक वर्ग के लिए एक भाषा और भौगोलिक क्षेत्र चुनता है. फिर उस वर्ग की आशाओं, आकांक्षाओं के अनुकूल समाचार, विवरण, विश्लेषण, रिपोर्ट, चिंतन मनन, लेख, आदि प्रकाशित करता है.
हर विकसित समुदाय तभी विकसित होता देखा गया है, जब उसकी भाषा में , हर तरह की सूचना, विवरण, ज्ञान, जानकारी, चिंतन मनन आदि पाठक के लिए उपलब्ध हैं. पत्रकारिता दरअसल समाज के ह्रदय की तरह है, जो विभिन्न सूचना, विवरण आदि के स्पंदन से उसे विवेकवान और जागरूक बनाता है.अपनी पुरानी व्यवस्था में आदिवासी समाज- चेतनशील, एकजुट और जागरूक था. लेकिन आधुनिकता, शिक्षा, नये पश्चिमी मूल्यों और जीवनशैली के प्रभाव में आकर वह डगमगा गया है.
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ऐसी स्थिति में साक्षर और शिक्षित हुए आदिवासी को, जिस मात्रा में आदिवासियत यानी आदिवासी भाषा, संस्कृति, इतिहास, राजनीति, आर्थिकी, सामाजिकता, कृषि,पशुपालन वानिकी, आदि के बारे में जानकारी होनी चाहिए, वैसा आत्ममंथन हो नहीं पाया. क्योंकि आदिवासी विभिन्न कारणों से नयी स्थिति में ढाल नहीं पाया. बंगाल, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडू, गुजरात जहां आधुनिक प्रेस जल्द आये, वहां आदिवासी हर तरह से आगे बढ़े हुए दिखते हैं.
स्वतंत्र भारत में छठी अनुसूची के अंतर्गत आनेवाले आदिवासी इलाकों में विभिन्न सामाजिक, भाषिक, आर्थिक, सांस्कृतिक कार्य और गतिविधियां चली. फलत: पूर्वोत्तर का आदिवासी समाज मध्य भारत के आदिवासियों की तुलना में सांस्कृतिक, सामाजिक रूप से ज्यादा आत्मविश्वासी लगता है. साहित्य , कला व खेल में अन्य आदिवासी-बहुल राज्यों से आगे ह . इसका एक बड़ा कारण वहां आदिवासी भाषा अखबारों की उपस्थिति है. कार्बी, बोडो,खासी अओ, मिजो आदि भाषाओं में समाचार पत्र व बुलेटिन आदि प्रकाशित होते हैं. वहां स्थानीय भाषा संस्कृति के अलावा स्थानीय समाचार होते हैं.
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फलत: पूर्वोत्तर और शेष भारत के आदिवासियों में अंतर है. वे सरकारी नौकरी के अलावा अन्य नये तरह की जॉब में भी हैं. उन्हें पद्मश्री जैसे नागरिक सम्मान भी अधिक मिले हैं. इसका एक सीधा कारण है कि मध्य भारत के आदिवासी दैनिक अखबार के अलावा साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, संवैधानिक आर्थिक, भाषिक आशाओं व आकांक्षाओं के लिए माकूल मानसिकता, वातावरण व समझ विकसित करते हैं. जानकारी देने के अलावा सवाल करते हैं. जिज्ञासा पैदा करते हैं और कल्पना शक्ति को ज्यादा मजबूत व उन्नत बनाते हैं.
अखबार आपको अपने कर्तव्य और अधिकार के प्रति सजग करते हैं : आदिवासी पिछले एक सौ वर्षों से पत्रकारिता करते दिखते हैं. वे अपनी तीखी टिप्पणियों के लिए जेल भी भुगत चुके हैं. वे अपनी जरूरत के हिसाब से बहुभाषी पत्रकारिता भी कर चुके हैं. लेकिन कोई आदिवासी एक सर्वमान्य संपूर्ण दैनिक प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं .यदि किया भी है विभिन्न कारणों से वांछित विशाल पाठक वर्ग तक पहुंच नहीं पा रहे हैं और जब तक वे किसी दैनिक का प्रकाशन नहीं करेंगे, उनकी, राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आकांक्षाओं की उपेक्षा होती रहेगी. हालांकि वह भाषा व साहित्य की कुछ पत्रिकाएं कर रहे हैं. ओड़िया, तमिल, बंगला, तेलुगू आदि की पत्रकारिता इसका उदाहरण हैं. उन्होंने अपने राज्य की जनता के अस्तित्व और अस्मिता के लिए भी संघर्ष किया.
हालांकि तकनीक, शिक्षा तथा सामाजिक जरूरत से पत्रकारिता का महत्व समाज में और बढ़ना चाहिए. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस चुनौतीपूर्ण काम को अंजाम देने के लिए आदिवासी समाज झिझकता दिखता है. इस समस्या के समाधान के बारे सचेत आदिवासी मध्यवर्ग जब तक समर्पण भाव से एकजुट होकर काम नहीं करेगा, पत्रकारिता के माध्यम से जो सामाजिक व सांस्कृतिक विकास होना चाहिए, नहीं होगा. उनकी आवाजें मुखर रूप में उभर नहीं पायेंगी. भले आज पत्रकारिता बदनाम हुई हो, लेकिन आदिवासी समाज के पास वैचारिक अगुवाई की जो कमी महसूस की जाती है, वह आदिवासी पत्रकारिता से ही पूरा होना संभव है. वैसे हम दूसरे की माइक में कब तक बोलेंगे? और सवाल है कि वह अपना माइक हमें कब तक देगा? पत्रकारिता के माध्यम से अपना माइक तैयार करें, तभी आदिवासी आवाजें और सुनी जा सकेंगी.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)