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महिलाओं की आजादी और हमारा देश

स्वतंत्रता आंदोलन को एक महिला समर्थक आंदोलन के रूप में याद किया जाना चाहिए. वरना दुनिया के दारोगा अमेरिका में वोट देने के अधिकार के लिए महिलाओं को पूरे 70 साल तक संघर्ष करना पड़ा था.

जब भी स्वतंत्रता दिवस आता है , मन बचपन में लौट-लौट जाता है. स्कूलों में , सड़कों पर कितनी सजावट होती थी. देशभक्ति गाने, नाटक , कविताएं सुनाने की बच्चों में होड़ लगी रहती थी. इनाम और कार्यक्रम की समाप्ति पर लड्डू भी मिलते थे. और दिलचस्प, आज से दशकों पूर्व इन कार्यक्रमों में लड़कियां बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं. यह कोई छोटी बात नहीं है. दशकों पूर्व ही समाज के बड़े तबके ने मान लिया था कि लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई बेहद जरूरी है. बेशक तब महिलाओं की आत्मनिर्भरता का सवाल इतना नहीं था.

यों स्कूलों में महिला शिक्षक बड़ी संख्या में थीं. इसका बड़ा कारण हमारी आजादी का वह आंदोलन था, जिसमें महिलाओं ने खूब हिस्सा लिया था. महिलाओं में फैली तमाम कुरीतियों का हमारे नेताओं- पुनर्जागरण के नायकों- ने खूब विरोध किया था. महिला अधिकारों की बातें भी खूब की जाती थीं. साहित्य में भी महिलाओं के अधिकारों और उनकी तकलीफों का वर्णन होता था. महान बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र, हिंदी के अप्रतिम लेखक जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महादेवी, निराला सबकी रचनाओं ने स्त्रियों की समस्याओं को बढ़-चढ़कर उठाया.

स्वतंत्रता आंदोलन को एक महिला समर्थक आंदोलन के रूप में याद किया जाना चाहिए. जहां औरतों को वोट देने के बराबर के हक मिले. वरना दुनिया के दारोगा अमेरिका में वोट देने के अधिकार के लिए महिलाओं को पूरे 70 साल तक संघर्ष करना पड़ा था. तब कहा जाता था कि ये औरतें वोट देकर क्या करेंगी. करना तो इन्हें चूल्हा-चौका ही है. जबकि उस समय के हमारे महान नेताओं ने इस अधिकार को बिना किसी वाद-विवाद के स्वीकार किया. आज भी अमेरिका में कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बन सकी है.

जबकि भारत में 1966 में ही इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन गयी थीं. और दो महिलाएं प्रतिभा पाटिल और द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति भी बनी हैं. स्विट्जरलैंड जैसे विकसित यूरोपीय देश में भी महिलाओं को 70 के दशक में वोट देने का अधिकार मिला. हमारे यहां महिला शिक्षा पर आज भी उतना ही ध्यान दिया जा रहा है. बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ के नारे हर जगह दीखते हैं, उसी का कारण है कि आज महिलाएं बड़ी संख्या में हर तरह के काम-काज करती नजर आती हैं. एक ओर जहां वे साइकिल चलाती हैं, कार चलाती हैं, तो फाइटर प्लेन भी उड़ाती हैं.

जिस ग्लास सीलिंग को तोड़ने की बात अरसे से की जा रही है, उसका कहीं नामोनिशान नहीं बचा है. छोटे शहरों की लड़कियां हर क्षेत्र में दस्तक दे रही हैं. वे बड़ी-बड़ी कंपनियों की सीइओ हैं, आइएएस और आइपीएस अफसर हैं, नेता हैं, डॉक्टर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट, सैनिक, सेना में अफसर, वैज्ञानिक, अभिनेत्री , रेडियो जॉकी, टीवी एंकर, व्यापारी, स्टॉक मार्केट विशेषज्ञ- क्या नहीं हैं. इसरो के चंद्रयान अभियान में महिला वैज्ञानिकों ने बड़ी भूमिका निभायी थी.

इसके अलावा कहा जाता था कि महिलाओं की दुर्दशा का बड़ा कारण ये है कि उनके पास संपत्ति नहीं है. महिलाओं को जमीन जायदाद में बराबरी का हक तो अरसा पहले मिल गया. उन्हें दादा या पैतृक संपत्ति में हक नहीं मिलता था , जो अब कानूनन उन्हें मिल सकता है. यही नहीं यदि मकान की रजिस्ट्री महिलाओं के नाम की जाए तो स्टांप ड्यूटी में भी छूट मिलती है. इसलिए इन दिनों अधिक से अधिक रजिस्ट्री घर की स्त्रियों के नाम ही होती है.

आजकल तमाम सरकारी योजनाओं में गरीबों को जो घर दिये जाते हैं, उनकी मालकिन भी महिलाएं होती हैं. कानून महिलाओं का पक्ष लेता नजर आता है. तमाम महिला कानून जैसे कि दहेज निरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा कानून, दुष्कर्म कानून आदि महिलाओं की तरफ ही झुके हुए हैं. महिलाओं की सहायता के लिए मुफ्त परामर्श केंद्र भी होते हैं. दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर भी बनाये जा रहे हैं. कई बार इन कानूनों का दुरुपयोग भी सुनायी देता है, जो कि गलत है.

कानून का दुरुपयोग अगर होगा तो लोगों का विश्वास उन पर कम होगा, उनकी धार भी कमजोर पड़ेगी. लेकिन जो भी हो, महिला सशक्तिकरण के मामले में कानूनों की भूमिका से इनकार भी नहीं किया जा सकता. पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिया जाता है. बहुत सी महिला सरपंचों ने इतना अच्छा काम किया है कि गांवों की तसवीर ही बदल दी है. आज गांव-गांव में बेटियों को पढ़ाने का विचार जा पहुंचा है.

इन्हीं बदलावों का परिणाम है कि जहां आजादी के समय महिला साक्षरता की दर लगभग नौ प्रतिशत होती थी वह अब बढ़कर 77 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. आज तकनीक ने हर क्षेत्र में बदलाव किया है. इससे महिलाएं भी अछूती नहीं हैं. महिलाओं की तरक्की का सारा श्रेय हमारी आजादी, लोकतंत्र, मीडिया और आम तौर पर राजनीति की उनके पक्ष में सहानुभूति को भी जाता है.

आज हर दल अपने चुनाव घोषणापत्र में महिलाओं से तरह-तरह के वायदे करता है. कारण है, महिलाओं की बढ़ती ताकत और राजनीतिक जागरूकता. महिलाओं के बारे में दल बढ़-चढ़कर यों ही बात नहीं करते. उन्हें मालूम है कि इन दिनों महिलाएं सब कुछ समझती हैं. वे बड़ी संख्या में वोट देने भी आती हैं. वोटिंग के लिए उनकी लंबी-लंबी लाइनें लगी रहती हैं. ये सब परिवर्तन कोई मामूली नहीं हैं.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

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