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निरोगी बनाये रखने का पर्व है चितअउ परब

रातभर ढोल-मांदल के साथ रोपा गीत गाते और नाचते हैं, ताकि रोपा कढ़ान के इस मौसम में कृषक, दिनभर खेतों के काम में व्यस्त रहते है, जिससे कादो, कीचड़ पानी में सने रहते है.

चितअउ परब कुड़मि समाज का एक पारंपरिक नेग दस्तूर का परब है. यह परब सावन महिना के अमावस्या को मनाया जाता है. इस परब में लोग मांस भात भुजा (मुढ़ी) पिठा आदि विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाकर बड़े चाव से मिल बांटकर खाते-पीते हैं. इस परब में गेंड़ही (घोंघा) पिठा खाने का विशेष प्रचलन है. उस दिन शरीर में नीम, करंज, तिसी, तिल आदि का तेल, विशेष रूप से लगाते हैं. रात को बिना तेल लगाये बच्चों को सोने नहीं दिया जाता है. गेंडहि (घोंघा) का पानी को आंख में डालते हैं, जिससे आंख साफ हो जाता है.

रातभर ढोल-मांदल के साथ रोपा गीत गाते और नाचते हैं, ताकि रोपा कढ़ान के इस मौसम में कृषक, दिनभर खेतों के काम में व्यस्त रहते है, जिससे कादो, कीचड़ पानी में सने रहते है. इस गंदे पानी और कीचड़ के चलते, बरसाती बीमारियां- सर्दी, खांसी, जुकाम, बुखार, चेचक, हैजा, खाज-खुजली और आंखों का रोग तेजी से संक्रमित होता है. इन्हीं बीमारियों से बचने के लिए उपरोक्त तेलों और गेंडही (घोंघा) पिठा और पानी के प्रयोग का प्रचलन है. इन प्राकृतिक धरोहरों में एक ऐसा औषधीय तत्व विद्यमान रहता है जो इन बीमारियों से लोगों को बचाता है. इसलिए यह परब अपने को निरोगी बनाये रखने का पर्व है.

चितअउ शब्द का शब्दिक अर्थ चित = चेतना और अउ या उ = उजागर या जागना होता है, अर्थात चेतना को जगा कर रखना. दूसरा अर्थ है – चेता = जागो और उ = उठो. कहने का तात्पर्य है कि वह रात भयानक और खतरनाक होती है, अतएव अदृश्य आध्यात्मिक बुरी शक्ति को दूर भगाने के लिए रात भर जागना और सचेष्ट रहना है. इस परब के पीछे एक पुरखेनी लोक कथा है. आरंभिक जमाने में, गांव से सटे एक घनघोर जंगल में, भुजबे नाम की एक राक्षसी रहती थी.

उसका जन्म, पृथ्वी चांद और सूरज के एक सम्मिश्रित तेजोमय आसुरी शक्ति से हुआ था. उसकी आसुरी शक्ति अमावस्या और पूर्णिमा को दोगुनी हो जाती थी. खाने-पीने को लेकर कभी कभी वह गांव की ओर निकल जाती थी. गांव के लोगों को देखकर उन्हें खाने के लिए जी ललच जाता था. लेकिन लोगों की कद काठी, बलिष्ठ शरीर और चतुराई को भांप कर उन पर आक्रमण करने से डरती थी. लालच के मारे अवसर की ताक में सचेष्ट रहती थी. संयोग से एक बार सावन की अमावस्या में उसे यह अवसर मिल गया.

लेकिन मनुष्यों पर सीधे सीधे आक्रमण करने की हिम्मत जुटा नहीं पायी. तब उसने अपने अनुचरों को आक्रमण करने का निर्देश दिया. आदेश पाकर अनुचरों ने लोगों के ऊपर आक्रमण कर दिया और लोगों के विभिन्न अंगों पर अलग-अलग प्रहार करना शुरू कर दिया. अचानक हुए इस आक्रमण से लोग अस्त-व्यस्त हो गये. किसी की आंख फूटी, किसी का नाक-कान टूटा. किसी की अंतड़ी फट गयी तो किसी का चमड़ा जल गया. हाहाकार मच गया.

लोग कमजोर और निशक्त होने लगे. तब राक्षसी ने उन्हें खाना शुरू कर दिया. बचने का कोई उपाय न पाकर लोग, त्राहिमाम करते हुए, अनुनय विनय में जुट गये. अपने आश्रितों की इस दशा को देखकर ग्राम देवता अवाक् और क्रोधित हो उठे. उन्होंनेेे उस राक्षसी और उसके अनुचरों को मार काट कर भगा दिया और उस राक्षसी से बचने के लिए कुछ उपाय सुझाया कि, प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा के दिन, घरों में दीया बाती, धूप-धूना जलाना एवं नीम, करंज बेगुना आदि का धुंआ देना.

नीम, करंज, सरसों, तिसी, तिल आदि तेल को शरीर में लगाना. गेंडहि (घोंघा) का मांस खाना. ये सारी प्राकृतिक संपदाएं, राक्षसी की आसुरी शक्ति को नष्ट करने में सक्षम है. ग्राम-देवता के इस सलाह और उपाय के अनुसार खास कर कुड़मी कृषक, शरीर को निरोगी और प्राण रक्षा के लिए, विशेषकर सावन की अमावस्या को, उपरोक्त औषधीय सामग्रियों का प्रयोग एवं उपभोग करते हुए परब मनाते हैं, जिसे चितअउ परब कहा जाता है.

(रूगड़ी, चक्रधरपुर, पश्चिमी सिंहभूम)

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