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मलियाना नरसंहार : 68 लोगों की हत्या, 36 साल बाद आरोपी बरी, निवासियों ने पूछा, तो हमारे परिवारों को किसने मारा?

23 मई, 1987 को, मेरठ के बाहरी इलाके में स्थित मलियाना गांव में 68 मुसलमानों की हत्या के मामले में सेशन कोर्ट ने फैसला सुना चुका है. कई दशक तक चली कानूनी लड़ाई के बाद आरोपी बरी हो गए हैं. इस फैसले के बाद पीड़ित पक्ष ने न्याय की लड़ाई जारी रखने के साथ अपने प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं.

लखनऊ. 23 मई, 1987 को, मेरठ के बाहरी इलाके में स्थित मलियाना गांव में 68 मुसलमानों की हत्या के बाद कई परिवार वहां से चले गए . इस घटना से प्रभावित कुछ लोगों ने धीमी चली अदालती लड़ाई लड़ते हुए वहीं रहने का विकल्प चुना . हालांकि यह लड़ाई पिछले हफ्ते ‘एक सदमा’ के साथ खत्म हो गई. मलियाना में 68 लोगों की हत्या के मामले में 36 साल बाद सभी आरोपी बरी होने पर यहां के निवासियों का एक ही सवाल है, बरी हुए आरोपी निर्दोष हैं तो फिर उनके परिवारों को किसने मारा? हालांकि जीवित बचे लोगों ने फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर करने का संकल्प लिया है.

मथुरा की जिला अदालत ने सभी 41 लोगों को किया बरी

मथुरा की जिला अदालत द्वारा मलियाना नरसंहार मामले में सभी 41 लोगों को बरी करने के बाद पीड़ित पक्ष के लोगों के लिए न्याय के लिए तीन दशक से अधिक लंबा इंतजार और भी लंबा हो गया है. मलियाना नरसंहार मामले की सुनवाई कर रहे अतिरिक्त जिला न्यायाधीश लखविंदर सिंह सूद ने 31 मार्च को पारित 26 पन्नों के फैसले में कहा कि “आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत उपलब्ध नहीं हैं” और सबूतों की विश्वसनीयता पर “गंभीर संदेह पैदा होता है”.

PAC के के साथ भीड़ ने मलियाना गांव पर किया था हमला

सशस्त्र कांस्टेबुलरी (PAC) के कुछ जवानों के साथ एक भीड़ ने मलियाना गांव को घेर लिया और गोलीबारी की. स्थानीय निवासी याकूब अली के बयान पर प्राथमिकी दर्ज की गयी थी.उस मंजर को याद करते सिहर उठते हैं. घ 63 वर्षीय अली ने याद किया कि जब वह मस्जिद में नमाज पढ़ रहे थे तो कैसे गोलियों की आवाज हवा में गूंज रही थी.उन्होंने कहा, वह अपने घर का रास्ता ढूंढने की कोशिश में सड़क पर भाग रहे थे, क्योंकि उनके आसपास के लोगों को गोली मार दी गई थी. घरों में आग लगा दी गई थी.

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खबरों के मुताबिक, 23 मई, 1987 को हिंसा तब भड़की जब कथित तौर पर उत्तर प्रदेश प्रांतीय याकूब अली ने कहा कि उन पर भी हमला किया गया था. उनके पैर में चोटें आईं थीं. उन्होंने कहा कि उन्हें पीएसी कर्मी ले जा रहे थे, तभी एक स्थानीय पुलिसकर्मी ने हस्तक्षेप किया. “ मुझे स्थानीय पुलिस स्टेशन ले जाया गया, इसलिए मैं बच गया. हिंसा में मेरे भतीजे की मौत हो गई. उसकी गर्दन में गोली लगी थी. मामले में चली पूरी न्याय प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं “हम सभी को किसने मारा? हमारे घरों में आग किसने लगाई? अगर किसी ने हमें नहीं मारा तो 36 साल तक मामले की सुनवाई क्यों की गई.”

रहीस अहमद ने नहीं छोड़ा गांव

61 वर्षीय रहीस अहमद के चेहरे पर गोली लगी थी. हिंसा भड़कने पर उनके पिता मोहम्मद यामीन लापता हो गए. वह कहते हैं “ हमने पिता को हर जगह खोजा. वह कानपुर से लौट रहे थे और मलियाना पहुंचे ही थे कि हिंसा भड़क गई. मुकदमे के दौरान कई अभियुक्तों की मृत्यु हो गई; इतने सारे पीड़ित परिवारों ने गांव छोड़ दिया. हम रहते हैं.” रहीस अहमद कहते हैं कि हम लड़ेंगे.

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आंसू, खून, टूटे हुए पैर, क्षत-विक्षत शरीर

61 वर्षीय दर्जी वकील अहमद सिद्दीकी ने कहा कि उन्हें पेट और हाथ में गोली मारी गई . उनकी दुकान में आग लगा दी गई. एक नई दुकान बनाने के लिए पर्याप्त पैसे बचाने में उसे कई साल लग गए. “ एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो जख्मी न हुआ हो या हमले से अछूता न रह गया हो. मुझे आंसू, खून, टूटे हुए पैर, क्षत-विक्षत शरीर देखना अभी तक याद है. उन्होंने कहा कि वर्षों तक मैंने सोचा था कि न्याय मिलेगा. मेरा दिल और दिमाग इस फैसले को स्वीकार नहीं कर सकता,” .

56 साल के मेहताब को आज भी दिखती है खून से लथपथ पिता की लाश 

आजीविका के लिए घरों में पेंटिंग करने वाले 56 वर्षीय मेहताब ने कहा कि खून से लथपथ अपने पिता की याद अभी भी उन्हें परेशान करती है. “ उनको गर्दन में गोली मारी गई थी. वह नमाज पढ़कर आए थे और छत पर खड़े थे. मेहताब बातते हैं कि जब पिता को गोली मारी गई थी तब उन्होंने शांति की अपील की थी. हम उनको अस्पताल ले गए क्योंकि उसका खून बह रहा था. मैं बस दो कदम चला और उनकी मौत हो गई. मेहताब मथुरा कोर्ट के फैसले से निराश हैं लेकिन वह हार मानने को तैयार नहीं हैं. वह कहते हैं हम न्याय के लिए लड़ेंगे.

55 वर्षीय नवाबुद्दीन ने हिंसा में अपने माता-पिता दोनों को खो दिया. नवाबुद्दीन ने अपने घर के बाहर चौक पर जमीन पर पड़े उनके जले हुए शवों की पहचान की. उस घटना को याद करते हुए वह कहते हैं “ मैंने एक मसाला स्टोर स्थापित किया और अपनी दोनों बहनों और बच्चों की शादी करने में कामयाब रहा. मैं इस फैसले के बारे में क्या कर सकता हूं? 45 वर्षीय यामीन ने अपने पिता को खो दिया उन्होंने घर पर रहना पसंद किया, जबकि परिवार के बाकी सदस्यों ने पास के एक दलित परिवार में शरण ली. वह बताते हैं कि “ बाद में मैंने पपिता का शव देखा, उनका गला कटा हुआ था. वह पूछते हैं उनको (पिता) किसने मारा.

नरसंहार के शिकार रईस अहमद की ओर से याचिका दायर

नरसंहार के शिकार रईस अहमद की ओर से याचिका दायर की गई है. वकील रियासत अली खान ने कहा कि मामला ( आपराधिक अपील यू / एस 372″ संख्या 136/1987) को न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और मनीष कुमार निगम की अध्यक्षता वाली अदालत संख्या 48 में सूचीबद्ध किया गया था. कोर्ट ने इस संबंध में निचली अदालत का रिकॉर्ड तलब किया है.हमें उम्मीद है कि जल्द ही याचिका पर सुनवाई शुरू होगी. खान ने कहा, “उच्च न्यायालय में मामला वकील सैयद शाहनवाज शाह लड़ेंगे.

बाबरी मस्जिद के ताले को फिर से खोलने पर हुए थे दंगे

रियासत अली खान ने कहा, “हमें न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है और उम्मीद है कि पीड़ितों के परिवारों और बचे लोगों को हाशिमपुरा में उनके भाइयों की तरह न्याय मिल सकता है.” हाशिमपुरा और मलियाना में नरसंहार ऐसे समय में हुआ जब मेरठ जिले में फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले को फिर से खोलने से शुरू हुए सांप्रदायिक तनाव चरम पर थे.

हाशिमपुरा में भी निचली अदालत से बरी हुए थे आरोपी

मेरठ से लगभग 10 किमी पश्चिम में स्थित गांव मलियाना में हत्याएं शहर के हाशिमपुरा में हुए नरसंहार के एक दिन बाद हुई थीं, जिसमें पीएसी कर्मियों ने हिरासत में कम से कम 38 मुसलमानों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. अक्टूबर 2018 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने पीएसी के 16 पूर्व कर्मियों को “लक्षित हत्या” के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. मलियाना अभियुक्तों के मामले की तरह, एक निचली अदालत ने 2015 में हाशिमपुरा के दोषियों को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि उनका दोष संदेह से परे स्थापित नहीं हुआ है. लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2018 में 16 पीएसी कर्मियों को सजा सुनाई थी.

अप्रैल में कोर्ट ने दिया था फैसला

उत्तर प्रदेश के मेरठ में 36 साल पहले हुए संप्रदायिक दंगों के मामले में कोर्ट ने 93 आरोपियों में से 39 को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया. 14 आरोपियों को पहले ही क्लीनचिट मिल चुकी है. इस मामले के 40 आरोपियों की मौत हो चुकी है. पीड़ित पक्ष कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट का रुख किया है. एडीजे-6 लखविंदर सिंह ने चर्चित मलियाना नरसंहार पर अप्रैल के पहले सप्ताह में शनिवार को अपना फैसला सुनाया. पीड़ितों के अनुसार 23 मई, 1987 को मलियाना नरसंहार हुआ था. दंगे में 68 लोगों की जान गई और सौ से अधिक घायल हुए थे. हमलावरों ने घरों में आग लगाकर जमकर लूटपाट की थी.

मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के समय हुआ था दंगा

मोहल्ले के याकूब की तरफ से 93 लोगों को नामजद करते हुए एफआईआर दर्ज कराई गई थी. मुकदमे में 74 गवाह बने थे. उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने आधिकारिक तौर पर 10 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी, जबकि तत्कालीन जिलाधिकारी ने जून 1987 के पहले सप्ताह में माना था कि पुलिस और पीएसी ने मलियाना में 15 लोगों की हत्या की थी. एक कुएं में भी कई लोगों के शव बरामद हुए थे. 27 मई, 1987 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मलियाना हत्याकांड की न्यायिक जांच की घोषणा की थी.

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