ब्रिक्स, ग्लोबल साउथ कहलाने वाले विकासशील और अल्प विकसित देशों का सबसे विश्वसनीय संगठन बन गया है. वैश्विक शासन व्यवस्था में एक अपरिहार्य संगठन बन चुके ब्रिक्स की तुलना विकसित देशों के संगठन जी-7 से की जा सकती है. विशेष रूप से तीन पहलुओं ने ब्रिक्स की विश्वसनीयता को बढ़ाया है- आर्थिक गतिशीलता, क्रमिक एकजुटता, और पश्चिमी दबावों का विरोध.
आर्थिक गतिशीलता के मुद्दे पर देखा जाए, तो ग्लोबल जीडीपी में 26 फीसदी हिस्सेदारी के साथ ब्रिक्स जी-7 अर्थव्यवस्था को टक्कर दे रहा है. वर्ष 2022 में ब्रिक्स की साझा जीडीपी 26 ट्रिलियन डॉलर थी जो अमेरिकी जीडीपी से थोड़ी बड़ी थी. वर्ष 2000 में वैश्विक जीडीपी में जी-7 का योगदान 65 प्रतिशत था जो 2021 में घटकर 44 प्रतिशत रह गया. यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो वर्ष 2030 तक ब्रिक्स की अर्थव्यवस्था जी-7 से आगे निकल जायेगी.
एकजुटता के प्रश्न पर देखा जाए, तो इससे पहले ग्लोबल साउथ बिना पश्चिम के समर्थन के शायद ही कभी सफल संस्थान बना पाया. शीत युद्ध काल का गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) या जी-77 ‘चर्चा की दुकान’ बन कर रह गये. इसके विपरीत, ब्रिक्स ने सफलतापूर्वक न्यू डेवलपमेंट बैंक और आकस्मिक रिजर्व फंड जैसी संस्थाएं बनायी हैं, जो विश्व बैंक और आइएमएफ के प्रतिबिंब समझे जाते हैं. ये संस्थान स्वायत्त हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध पर ब्रिक्स के रुख ने इसकी विश्वसनीयता और बढ़ा दी है.
ब्रिक्स सदस्यों ने यूक्रेन पर रूस के हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया, और पश्चिम के लगाये गये प्रतिबंधों में शामिल नहीं हुआ. यूक्रेन युद्ध के बाद रूस का चीन और भारत के साथ व्यापार बहुत बढ़ गया. रूस के साथ भारत का व्यापार पहले के 10 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2022-23 में लगभग 50 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है. ब्रिक्स की विश्वसनीयता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 40 से अधिक देशों ने इसके साथ जुड़ने में रुचि दिखायी है.
जोहान्सबर्ग शिखर सम्मेलन में चर्चा के महत्वपूर्ण मुद्दों में से नये सदस्यों के लिए सिद्धांत और मानक प्रोटोकॉल स्थापित करना शामिल है. सिद्धांत तौर पर सभी ब्रिक्स देश विस्तार पर सहमत हैं, लेकिन इसके तौर-तरीकों पर सहमति नहीं बन पा रही है. चीन ब्रिक्स के तेजी से विस्तार का पक्षधर है, वह अमेरिकी प्रभाव का मुकाबला करने के लिए ब्रिक्स का उपयोग करता है. रूस भी ब्रिक्स के जरिये अमेरिकी प्रभाव का मुकाबला करना चाहता है, लेकिन वह संगठन में चीन के प्रभुत्व को लेकर आशंकित रहता है.
भारत और ब्राजील धीरे-धीरे नये उम्मीदवारों को शामिल करने के पक्ष में हैं, लेकिन वे उन्हें पहले पर्यवेक्षक का दर्जा देना पसंद करेंगे. ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका को डर है कि यदि प्रतिद्वंद्वी क्षेत्रीय शक्तियों को शामिल किया गया तो वे अपने विशेषाधिकार खो देंगे. भारत, पाकिस्तान के प्रवेश का समर्थन नहीं करेगा, जबकि दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया को शामिल करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है.
भारत और ब्राजील, चीन के उत्साह को भी साझा नहीं करते और वे ब्रिक्स को पश्चिम विरोधी संगठन के रूप में नहीं देखते हैं. जोहानिसबर्ग सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण मुद्दा व्यापार के लिए डॉलर पर निर्भरता को कम करने और ब्रिक्स देशों की मुद्रा को बढ़ावा देने का है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का उपयोग लगभग 84 प्रतिशत होता है. युद्ध की परिस्थितियों में डॉलर को हथियार की तरह उपयोग किये जाने के पश्चिम के रवैये ने ग्लोबल साउथ के देशों को चिंतित कर दिया है.
पश्चिम ने रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस की आरक्षित मुद्रा और संपत्ति को फ्रीज कर दिया है. हालांकि, ब्रिक्स की अपनी मुद्रा विकसित करने पर कोई सहमति नहीं है. वहीं कई देशों को डर है कि चीनी मुद्रा युआन ब्रिक्स पर हावी न हो जाए. इसलिए, ब्रिक्स सदस्य स्थानीय मुद्रा में व्यापार बढ़ाने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं. रूस और चीन के बीच लगभग 80 प्रतिशत व्यापार समझौता चीनी युआन और रूसी रूबल में होता है. भारत और रूस ने भी स्थानीय मुद्राओं में व्यापार करना शुरू कर दिया है. ब्राजील ने भी चीन के साथ ऐसे समझौते किये हैं और रूस के साथ भी ऐसा करेगा.
भारत के लिए ब्रिक्स कई कारणों से महत्वपूर्ण है. दरअसल, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न देश अपना रुतबा बढ़ाने और संतुलन का प्रयास करते रहते हैं. ब्रिक्स भारत के लिए यही काम करता है. वह उसे चीन और रूस जैसे शक्तिशाली देशों के समकक्ष खड़ा करता है. ब्रिक्स के सदस्य के रूप में वह चीन के प्रभाव को भीतर से संतुलित करता है, और बाहरी तौर पर वह खुद को पश्चिमी दबाव से बचाता है. रूस पर लगाये गये प्रतिबंधों को लेकर पश्चिम भारत पर दबाव नहीं डाल सका.
लेकिन, ब्रिक्स का सदस्य नहीं होने पर भारत के लिए मुश्किल हो सकती थी. भारत को सबसे ज्यादा हथियारों की आपूर्ति करने वाला देश रूस है. तो भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार चीन है. मानवाधिकारों, घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने, व्यापार नियमों और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर भी भारत के हित पश्चिम की तुलना में ब्रिक्स सदस्यों के साथ अधिक मेल खाते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)