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हम कामगारों के प्रति निष्ठुर क्यों हैं

दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूमन आठ घंटे काम करने का प्रावधान होता है, लेकिन इन असंगठित क्षेत्र के कामगारों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन कुछ निर्धारित नहीं हैं.

पिछले कुछ दिनों में अपार्टमेंट में तैनात सुरक्षा गार्डों और अन्य कामगारों के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार की अनेक घटनाएं सामने आयी हैं. पिछले दिनों दिल्ली में एक नवयुवक ने एक गार्ड को पाइप से बुरी तरह पीट घायल कर दिया. गार्ड का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने कार सही स्थान पर पार्क करने के लिए कह दिया था. दिल्ली पुलिस ने नवयुवक के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है. दिल्ली से सटे नोएडा की सोसाइटियों से सुरक्षा गार्डों के साथ बदसलूकी के कई मामले सामने आ चुके हैं.

नोएडा में भी गार्ड के साथ मारपीट का एक वीडियो वायरल हुआ. इसमें नजर आता है कि एक गार्ड आराम कर रहा था कि अचानक उसके पास आकर दो लोग मारपीट करने लगते हैं. दूसरा गार्ड भी आता है, लेकिन वह कुछ कर नहीं पाता है. मारपीट करने के बाद दोनों दबंग आराम से टहलते हुए चले जाते हैं. बाद में पता चला कि सोसाइटी में एक महिला किसी गलत जगह पर कार पार्क करना चाहती थी. गार्ड ने इस पर आपत्ति की.

उस समय तो महिला चली गयी, लेकिन बाद में उसने बाहर से अपने साथियों को बुला कर गार्ड की पिटाई करवा दी. दिल्ली में ही एक महिला पायलट और उसके पति ने एक 10 वर्षीय नाबालिग कामगार लड़की को पीट-पीट कर घायल कर दिया. इसकी भनक पड़ोसियों को लगी और आक्रोशित भीड़ ने दंपती की पिटाई कर दी. पुलिस ने आरोपी महिला को गिरफ्तार कर लिया. ये घटनाएं राजधानी दिल्ली तक सीमित नहीं हैं. देश के हर हिस्से में ऐसी घटनाएं रोजाना घटित होती हैं.

कुछ दिन पहले गार्ड के साथ पिटाई का एक मामला लखनऊ के गोमतीनगर से भी सामने आया था. घटना के वीडियो में नजर आ रहा था कि चार-पांच लोग गार्ड को जमीन पर गिरा कर पीट रहे थे. आरोपी को उसके साथी रोकते भी हैं, पर वह मारना जारी रखता है. वीडियो सामने आने के बाद पुलिस ने मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर लिया. ये घटनाएं बताती हैं कि हम अपने कामगारों के प्रति कितने असंवेदनशील हैं.

हम हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाते हैं. किसी समय तो यह बहुत जोर-शोर से मनाया जाता था, लेकिन अब यह बस रस्मी तौर पर मनाया जाने लगा है. वैसे तो यह अर्थव्यवस्था में मजदूरों के योगदान को याद कर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन माना जाता है, लेकिन हकीकत में देखें, तो अधिकांश लोगों में कामगारों के प्रति कोई कृतज्ञता का भाव नहीं है. इन कामगारों की ओर न तो समाज का और न ही सरकार का ध्यान जाता है, जबकि इन घरेलू सहायकों के बिना उच्च और मध्य वर्ग के लोग जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

मैं अक्सर यह कहता हूं कि कोरोना काल के लॉकडाउन को लेकर विमर्श जो भी रहा हो, लेकिन एक बात तो साबित हो गयी कि इस देश की अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश मजदूरों से चलता है. यह भी स्पष्ट हो गया कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम चलने वाला नहीं है.

ये मेहनतकश हैं और गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो आभा और चमक-दमक नजर आती है, उसमें इन प्रवासी मजदूरों का भारी योगदान है. यह बात सबको समझ आ गयी है कि इन राज्यों की विकास की कहानी बिना ऐसे मजदूरों के योगदान के नहीं लिखी जा सकती. ये मेहनतकश पूरी ताकत से खटते हैं, लेकिन उन्हें जैसा आदर मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता. ऐसा कहा जाता है कि यदि सभी कामगार हड़ताल पर चले जाएं, तो देश की प्रमुख गतिविधियां ठप्प हो जायेंगी. ड्राइवर के न आने से साहब लोग दफ्तर नहीं पहुंच पायेंगे और मेड के न आने से मैडम नौकरी पर नहीं पहुंच पायेंगी.

प्राय: विभिन्न स्थानों से ऐसी चिंताजनक खबरें आती रहती हैं, जिनमें बेवजह मजदूरों को निशाना भी बनाया गया है. अधिकांश स्थानों पर इन कामगारों का भरपूर शोषण किया जाता है. दफ्तरों और कारखानों में कामगारों के लिए अमूमन आठ घंटे काम करने का प्रावधान होता है, लेकिन इन असंगठित क्षेत्र के कामगारों के काम के घंटे, न्यूनतम वेतन कुछ निर्धारित नहीं हैं. उनकी कोई छुट्टियां तय नहीं हैं. कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं है.

साहब और मैडम की मर्जी से ही इनका सब कुछ तय होता है. साहब और मेम साहब की दिनचर्या के अनुसार उन्हें चलना है. जब तक कि घर में लोग सो नहीं जाते, उनकी ड्यूटी चालू रहती है. जिस दिन कामगार छुट्टी करे अथवा बीमार पड़े, उस दिन उसकी तनख्वाह तक कट जाने का खतरा रहता है. आसपास देखें, तो सभी जगह यही कहानी है. ये कामगार गार्ड व ड्राइवर के रूप में, दाई व दीदियों के रूप में हर घर में मौजूद हैं. सबकी एक पहचान है कि वे सब कामगार हैं और उनका भरपूर शोषण किया जाता है.

दूसरी गंभीर समस्या अमानवीय व्यवहार की है. कानूनन 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से घरेलू कामकाज नहीं कराया जा सकता है, लेकिन इस देश में ऐसे कानूनों की परवाह कौन करता है. दाइयों के शोषण की दास्तां केवल देश तक सीमित नहीं हैं. लगता है कि जैसे यह भारतीयों के रगों में रच बस गया है. ऐसे भी मामले सामने आये हैं कि भारतीय विदेश सेवा जैसे संभ्रांत तबके के अधिकारी अपनी विदेश में तैनाती के दौरान भारत से दाइयों को ले गये और वहां उनका शोषण किया.

महानगरों में तो जाति गौण हो गयी है और उनकी जगह समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है. उच्च वर्ग है, मध्य वर्ग है और कामगार हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है. शहरों में छुआछूत का नया स्वरूप सामने आया है. गांव में दलितों-वंचितों को गांव के कुएं से पानी नहीं भरने नहीं दिया जाता था. महानगरों में कुएं तो नहीं हैं, लेकिन उसका स्वरूप बदल गया है. अनेक अपार्टमेंटों में दाइयों के लिफ्ट के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है या फिर उनके लिए अलग से एक पुरानी लिफ्ट निर्धारित है कि वे केवल उसका इस्तेमाल करेंगी.

यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं. अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद ये राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पिछड़े हुए हैं. हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे ताकि लोगों को बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े.

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