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बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के मूल स्वरूप में विद्यमान हैं औषधियों के देवता

शिव से संबंधित विभिन्न मान्यताओं के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्र की उपासना की लोकप्रियता धीरे-धीरे शिव की उपासना में बदल गई. रुद्र के विभिन्न नामों के साथ औषधि को उपयोगिता के कारण उन्हें वैद्य के रूप में भी महत्व दिया गया. शिव को पार्वती और उमा के साथ समन्वित किया गया.

वीर शैवमत में इस बात का उल्लेख है कि शिव से ही समस्त चराचर की उत्पत्ति हुई है और शिव में ही सब विलीन हो जाते हैं, क्योंकि सांख्यकार कपिल महर्षि का मत है कि स्थावर जंगम रूपी इस जगत् की उत्पत्ति रजः, सत्व, तमोमयी प्रकृति से हुई है, इससे भिन्न कोई जगतकर्त्ता नहीं है और प्रकृति पुरुषों का विवेक ही मुक्ति है, परन्तु यह मत श्रुतियों के विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि “तत्सृष्टवात देवानु प्रविष्टः, यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, भू इमान लोकायनिशतः ईशनिभिः” इत्यादि श्रुतियां एक स्वर से प्रतिपादित करती हैं कि परमेश्वर ने ही अपने शक्ति विलास से जगत् की सृष्टि की है. इसके अतिरिक्त नीलग्रीवा विलोहित ऋतं च सत्यम् आदि श्रुतियां भी ईश्वर की गुण विभूति आदि का ही प्रतिपादन करती हैं. प्रकृति से जड़ है, अतः चेतन की सहायता के बिना वह अकेली सृष्टि की रचना कभी नहीं कर सकती.

शिव तत्व की व्याख्या के क्रम में यह सत्य सर्वोपरि है. इसी प्रकार ”भूयशामस्यार बलियस्त्वम्” इस न्याय से मनु आदि की स्मृतियां भी परमेश्वर का जगत-कल सिद्ध करती हैं, किन्तु सांख्य मत के इस विचार को वेदवाद के निरूपण में आलोचना के रूप में ही देखा जाता है. वीर शैव विज्ञान में शक्ति विशिष्टाद्वैत मत में जो शक्ति उसमें सूक्ष्मचिद् विशिष्ट शक्ति और स्थूलचिर विशिष्ट शक्ति इन दोनों ही विचारधाराओं की मान्यता है. इनमें से पहली शक्ति से शिव का ग्रहण और दूसरी से जीव का बोध होता है. शक्ति विशिष्टाद्वैत पद के विग्रह शक्ति विशिष्ट परमात्मा और जीवात्माओं के ऐक्य का ही बोध होता है.

वीर शैववाद में शिव के महत्व की विवेचना इसी क्रम में विद्यमान है. धर्म रूप शक्ति धर्मी रूप शिव से भिन्न नहीं है. शक्ति तत्व से लेकर पृथ्वी तत्व पर्यन्त यह सारा विश्व शिव तत्व से ही उत्पन्न हुआ है. इसलिए शिव उसका कारण है और जगत उसका कार्य है. मृतिका कारण और घट कार्य होने पर भी मृतिका घट से अलग न होकर जैसे घट भर में व्याप्त है, वैसे ही कारण रूपी शिव जगद्रूप कार्य में व्याप्त हैं. इससे यह सिद्ध है कि जगत का उपादान कारण शिव ही हैं. पूर्ववर्ती अवस्था वाली वस्तु जैसे आगे की स्थूल वस्तु का उपादान कारण होती है, अर्थात् जैसे घटत्वावस्था विशिष्ट घट पदार्थ का उपादान कारण, कापलात्वावस्था विशिष्ट कपाल पदार्थ होता है, वैसे ही सूक्ष्मावस्था विशिष्ट ब्रह्म, स्थूलावस्था विशिष्ट जगद्रूप ब्रह्म का उपादान कारण है, इसलिए शिव को कारण ब्रह्म और जगत का कार्य ब्रह्म कहा गया है.

वीर शैवमत में आणव, माया और कार्मिक इन तीनों मलों को आत्मा से आवृत कहा गया है और परमेश्वर की इच्छा, ज्ञान, क्रिया नामक चेष्टाएं ही संकोच भाव से त्रिविध मल रूप हो गयी हैं. इन्हीं से आवृत आत्मा अपने विभुत्व को खोकर पशु हो जाता है. शिव तत्व के बोध से इन मेलों का विनाश संभव है. कश्मीरी शैवमत में भी शिव को महत्व दिया गया है. स्पन्द शास्त्र और प्रतिभा शास्त्र के माध्यम से शिव-तत्व के बोध को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है. वस्तुतः कश्मीरी शैव दर्शन में शिव तत्व विमर्श को परम सत्य से जोड़ने का प्रयास किया गया है और दिव्य दृष्टि बोध की व्याख्या की गयी है. लिंगायत की परम्परा भी उत्तर वैदिक प्रकरण की बात है, साथ ही शक्तिवाद और शाक्त साधना के माध्यम से शिव का लोक-मानस की दृष्टि में अध्ययन करने का प्रयास किया गया है.

शिव से संबंधित विभिन्न मान्यताओं के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि रुद्र की उपासना की लोकप्रियता धीरे-धीरे शिव की उपासना में बदल गई. रुद्र के विभिन्न नामों के साथ औषधि को उपयोगिता के कारण उन्हें वैद्य के रूप में भी महत्व दिया गया. शिव को पार्वती और उमा के साथ समन्वित किया गया. हिन्दू उपासना पद्धति में शिव के इसी रूप की लोकप्रियता बढ़ने लगी. उत्तर वैदिक काल में लिंगोपासना की परम्परा विकसित हुई, और इसी क्रम में शिवोपासना के विभिन्न प्रसिद्ध केंद्र भी बनने लगे. भारतीय लिंगोपासना की परंपरा में द्वादश ज्योतिर्लिंगों का महत्व बढ़ने लगा और वैद्यनाथ ज्योतिलिंग का महत्व इसी क्रम में संपूर्ण भारत में स्थापित हुआ. ऐसे एक ही नाम के अनेक तीथों की स्थापना होने के कारण अनेक तीर्थ आज भी विवादास्पद बन गये हैं, किन्तु धार्मिक दृष्टि भंगी के कारण आज भी इन तीर्थों में उपासनाएँ होती हैं. द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र इस प्रकार हैं :-

सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्

उज्जयिन्यां महाकाल मोंकारम् परमेश्वरम ।।

केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम्

वाराणस्यांच विश्वेशं त्र्यम्बकम् गौतमी तटे ।।

वैद्यनाथम् चिताभूमौ नागेशं वारुकावने

सेतुबन्ध च रामेशं घुश्मेशन्च शिवालये ।।

द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन न विनश्यति।।

उपर्युक्त ज्योतिर्लिंगों को मान्यता का विस्तार वस्तुतः पौराणिक युग में अधिक हुआ. किन्तु, यहां पर वेदोत्तर साहित्य में रुद्र की उपासना के प्रसंग में इस मान्यता को स्थापित करने का प्रयास है कि वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मूल स्वरूप वेदों के उसी रुद्र के प्रकरण में विद्यमान है, जिसमें रुद्र को औषधियों का देवता कहा गया है.

(साभार, श्रीश्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग वांड्मय

क्रमश:…)

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