– अशोक वाजपेयी-
बीसवीं शताब्दी में भारतीय आधुनिकता को अधिक देसी, अधिक लोकमय, अधिक वैकल्पिक बनाने की चेष्टा करने वालों में हबीब तनवीर का नाम कुमार गंधर्व, जगदीश स्वामीनाथन और सैयद हैदर रजा के साथ आदर और कृतज्ञता के साथ लिया जाता है.
लोक परंपरा नाटक प्रस्तुत किया करते थे हबीब
हबीब तनवीर का कमाल यह था कि उन्होंने अपने समय के बहुचर्चित नाटककारों मोहन राकेश, विजय तेंडुलकर, गिरीश कर्नाड, बादल सरकार आदि का एक भी नाटक प्रस्तुत नहीं किया. वे शूद्रक, शेक्सपीयर आदि क्लासिक तक गये, पर उनकी अपनी आधुनिकता का रूपायन जिन नाटकों से निर्णायक और प्रभावशाली ढंग से हुआ, वे लोक परंपरा से आये. आगरा बाजार, चरणदास चोर, मोर नांव दामाद गांव का नाम ससुरार.
‘आगरा बाजार’ था उनका पहला प्रसिद्ध नाटक
उनका पहला प्रसिद्ध नाटक ‘आगरा बाजार’ तो भारत में प्रस्तुत संभवतः पहला नाटक है, जिसमें कोई कथानक नहीं है. सिर्फ आगरा शहर की, वहां के एक कवि नजीर अकबराबादी द्वारा लिखी गयी कविताओं में उल्लिखित छवियां और प्रसंग हैं. यह वही समय है, जब पश्चिम में अनुपन्यास का उदय हो रहा है. हबीब का रंगमंच मौखिक परंपरा से उत्प्रेरित था. उसमें नाटक खेले जाते थे, प्रस्तुत नहीं किये जाते थे. वह खेलता-कूदता-नाचता-गाता रंगमंच था, जो अपनी तरह से प्रश्नवाचक और संदेशवाहक दोनों था. बहुत बार पहले से निर्धारित रूपाकार वाला नहीं, रंग प्रक्रिया से उपजने वाला रंगमंच था.
…उनके नायक
हबीब एक तरह से भारत के बर्टोल्ट ब्रेख्त थे, जिनके अपने रंगप्रयोगों ने बाद के बव कारंत, कावलम नारायण पणिक्कर, रतन थियम, एमके रैना, बंसी कौल जैसे रंग निर्देशकों के लिए रास्ते खोले. हबीब ने इस रूढ़ि को ध्वस्त किया कि आधुनिकता अनिवार्यतः शहराती परिघटना है. उनके छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार एक नाचती-गाती, स्वछंद स्वतः स्फूर्त आधुनिकता को सहजता और हुनर के साथ विन्यस्त करते थे. वे शास्त्र और लोक के द्वैत को लांघ जाते थे. हबीब के रंगकर्म ने लोकसंपदा को आधुनिकता के परिसर में अपनी सजीवता-संभावना-कल्पनाशीलता के साथ स्थापित किया. हबीब का रंगसत्य लोग थे. वैसे लोग, जो साधारण और नामहीन थे, जो अभाव और विपन्नता में रहते थे, लेकिन जिनमें अदम्य जिजीविषा, मटमैली पर सच्ची गरिमा और सतत संघर्षशीलता की दीप्ति थी.
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