सनातन संस्कृति के अंतर्गत किसी भी धार्मिक अनुष्ठान, पूजन अथवा कार्यक्रम में वाह्य और अभ्यंतर शुद्धता के बाद शुभ-संकल्प और स्वस्तिवाचन मंत्र और श्लोक पढ़े जाते हैं. स्वस्तिवाचन के तहत शुक्ल यजुर्वेद के जो मंत्र पढ़े जाते हैं, उनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, अंतरिक्ष के साथ वनस्पतियों और औषधियों की अनुकूलता तथा शांति की भावनाएं शामिल हैं. दरअसल, ब्रह्मांड में जितने भी तत्व हैं, सभी मनुष्य के लाभ के लिए ही हैं, इसीलिए सनातन संस्कृति के ऋषि-महर्षि वनों-पर्वतों पर साधना किया करते थे. वे प्रकृति से संवाद भी करते रहे हैं.
वनों और उपवनों की महत्ता इसी से समझी जा सकती है कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को माता सरस्वती ने मंथरा की जिह्वा का सहारा लेकर विमाता कैकेई के जरिये वनवास के लिए प्रेरित किया. माता कौशल्या पुत्र के वनवास से जब दुखी हो गयीं तब खुद श्रीराम को ‘पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू, जहँ सब होहिं मोर बड़ काजू’ कहकर इशारों में माता कौशल्या को समझाना पड़ा कि लोकहित में वे बड़ा काम वन में ही रहकर कर सकेंगे.
यहां रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने जंगल या वन शब्द के प्रयोग की जगह ‘कानन’ शब्द का प्रयोग किया है. ‘कानन’ का अर्थ वन तो होता है, लेकिन इसमें वही वन कानन की श्रेणी में आता है, जहां पेड़-पौधे, वनस्पतियां खुद प्राकृतिक रूप से उग आयी हों. निश्चित रूप से ये वनस्पतियां जीवन रक्षक थीं, जिनका शोध श्रीराम करना चाहते थे. ‘कानन’ यानी वन श्रीराम की प्रयोगशाला थी.
पेड़-पौधे तथा वनस्पतियों की महत्ता के चलते इनमें बहुतों को भगवान का स्थान दिया गया और वर्ष भर के विविध पर्वों पर इनकी पूजा की जाने लगी. यहां तक कि सबसे कमजोर घास दूर्वा (दूब) को खुद गणेश जी ने अपने हिस्से में ले लिया. इसी तरह बेलपत्र महादेव के हिस्से में चला गया.
वनस्पतियों की इन्हीं विशेषताओं के चलते ऋषियों ने घास की ही श्रेणी के कुशा को भी बहुत अधिक उच्च स्थान दिया. इसमें ऊर्जा-तरंगों को अवशोषित करने की अद्भुत क्षमता के चलते पूजा-पाठ तथा धार्मिक कार्यों में शामिल कर दिया गया. कुशा के आसन पर बैठने, कुशा की पवित्री धारण करने, कुशा से पूजन पदार्थों को अभिमंत्रित करने की क्रिया की अनिवार्यता की गयी. योग-विज्ञान के अनुसार, कुशा के आसन पर बैठकर योग करने से प्राकृतिक ऊर्जा-तरंगों को धरती अवशोषित नहीं कर पाती है.
कुशा की इन खासियतों को देखते हुए भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को ‘कुशोत्पाटनी अमावस्या’ तिथि निर्धारित की गयी, जो इस वर्ष 14 सितंबर को है. इस दिन जलाशयों और खेतों में उत्पन्न कुशों को पूर्वाह्न काल में पुरोहित और विद्वान कर्मकांडी मंत्र पढ़कर ग्रहण करते हैं. इस दिन प्राप्त हुआ कुशा वर्ष भर पूजन में प्रयोग होता है. यदि कुशोत्पाटनी अमावस्या तिथि सोमवती अमावस्या के दिन हो गयी तब इस दिन निकाले गये कुशा का प्रयोग बारह वर्षों तक किये जाने का प्रावधान है.
कथा के अनुसार, प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष का आतंक बहुत बढ़ गया था. तब भगवान विष्णु ने वाराह रूप धारण किया. धरती को रसातल से बाहर लाने के लिए वाराह अवतार विष्णु जी का शरीर पानी से भीग गया. वाराह रूप धारी विष्णु जी ने शरीर पर से पानी को हटाने के लिए तेजी से झटका. पानी का छीटा जहां-जहां पड़ा, वहां से कुशा उग आया. इस कथा से ध्वनित होता है कि अन्याय तथा अत्याचार के संघर्ष में शरीर से जल पसीने के रूप जब बहता है तब उपलब्धियां अर्जित होती हैं.