World Suicide Prevention Day: स्कूल की छत से छठी क्लास की एक छात्रा कूद जाती है. उसके स्कूल बैग से एक नोट मिलता है, जो बताता है कि वह फैमिली मैटर को लेकर काफी परेशान थी. कुछ छात्राओं को विद्यालय में शिक्षक से डांट पड़ती है और वे जान देने के लिए जहर पी लेती हैं. एक विद्यालय में बिंदी लगाने को लेकर छात्रा को डांट पड़ती है और वह आत्महत्या कर लेती है. इन खबरों के साथ हाल ही में कोटा शहर में पढ़ाई के दबाव में आकर एक छात्र की आत्महत्या की खबर ने हर माता-पिता की चिंता को बढ़ा दिया, जिनके बच्चे दूसरे शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं. आखिर हम बच्चों की कैसी परवरिश कर रहे हैं, वे क्यों इतने दबाव में आ जा रहे हैं कि जिंदगी से दूर चले जा रहे हैं? इन घटनाओं को कैसे रोका जाये? इन्हीं बिंदुओं पर प्रस्तुत है यह विशेष रिपोर्ट.
नयी पीढ़ी का टूटता-बिखरता मन उनकी जिंदगी के ताने-बाने को ही बिखेर दे रहा है. अव्वल रहने का असहनीय दबाव उसके लिए दमघोटू साबित हो रहा है. भावनात्मक टूट एक मासूम मन को इतना क्रूर बना दे रही है कि जिंदगी का साथ छोड़ने का रास्ता चुना जा रहा है. आशाओं और उमंगों के पड़ाव पर खड़ी नयी पीढ़ी के ऊर्जावान चेहरों का जीवन से रूठना उनकी परवरिश और पूरी शिक्षा व्यवस्था पर एक सवालिया निशान जरूर खड़ा करता है. इन घटनाओं का अंतहीन सिलसिला अब डराने लगा है. इस मोर्चे पर अभिभावकों व शिक्षकों की भूमिका सबसे अहम हो जाती है.
महत्वाकांक्षाओं का बोझ न लादें
हमारी नयी पीढ़ी बड़ों के सपने पूरे वाले उपकरण भर नहीं, बल्कि जीते-जागते इंसान हैं. उनका अपना अस्तित्व है. करियर बनाने की बात हो या विषय चयन की, उनकी अपनी रुचि है. इसे पहचानकर उनका साथ देना हर पैरेंट का कर्तव्य है. अव्वल आने, कमाल कर जाने, नाम कमाने की दौड़ में उन्हें खड़ा न करें, वरना ये दबाव उनके मानसिक विकास में बाधक बनेगा और अंतत: उन्हें जीने नहीं देगा. बच्चे को मानसिक दबाव का मुकाबला करने के काबिल बनाएं.
मन का मोर्चा संभालिए
आंकड़े बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर 15-19 साल के बच्चों में आत्महत्या मौत का चौथा प्रमुख कारण है. 10-19 वर्ष के बच्चों में हर 7 में से 1 अवसाद, चिंता और व्यवहार संबंधी मानसिक व्याधियों की गिरफ़्त में है, जिसके चलते इस आयु वर्ग में मानसिक विकार के आंकड़े 13 फीसदी तक हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि 13 से 19 वर्ष की आयु के किशोरों को आम जिंदगी की बहुत-सी समस्याओं से जूझना पड़ता है. ऐसे में मन के मोर्चे पर मिलने वाला बड़ों का स्नेह और सहयोग उनके सर्वांगीण विकास के लिए अतिआवश्यक है.
बच्चों का सपोर्ट सिस्टम बनिए
बच्चों के लिए सदा जीवन से जोड़ने वाला माहौल रखिए. मौजूदा समय में एकेडेमिक परफॉर्मेंस के अलावा हमउम्र साथियों के साथ तुलना से लेकर लाइफस्टाइल के मोर्चे पर पीछे छूटने, प्रेम प्रसंग और बुरी आदतों के जाल में फंसने तक, खुद को खत्म कर लेने का अतिवादी कदम उठाने के कई दूसरे कारण भी हैं. बीते दिनों कोटा में एक ही दिन में हुए आत्महत्या के दो मामलों के बाद स्प्रिंग पंखों और बालकनी में जाली लगाने जैसे कदम उठाये जा रहे हैं, जबकि इससे ज्यादा मनःस्थिति बदलने की दरकार है. अभिभावक सपोर्ट सिस्टम बन बच्चों के मन में जीवंत भावों को भर सकते हैं.
बच्चे की रुचि जानें, संवेदनशील रहें
कोचिंग हब के रूप में प्रसिद्ध राजस्थान के कोटा शहर में इस साल अब तक 19 बच्चे जीवन से मुंह मोड़ चुके हैं. रिपोर्ट के अनुसार, ज्यादातर मामले केवल परीक्षा में फेल होने के कारण हुए हैं. घर से दूर कोचिंग संस्थाओं में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का दबाव झेल रहे इन बच्चों पर परिजनों की महत्वकांक्षाओं का भी खूब दबाव होता है, जिसे हर बच्चा सह नहीं पाता. बाहर पढ़ रहे अपने बच्चों के प्रति संवेदनशील रहें. उनकी रुचि हो तभी भेजें, मात्र परिवार या सामाजिक प्रतिष्ठा के खातिर नहीं.
‘वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे’ क्यों?
हर परिस्थिति में जीने के जज्बे को बल मिले, ऐसा परिवेश बनाने के लिए ‘वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन संग इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रिवेंशन’ द्वारा साल 2003 में शुरू किया गया ‘वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे’ असल में मौत को गले लगाने जैसा कदम उठाने से पहले चेत जाने के मोर्चे पर सजगता लाने से जुड़ा है. इस वर्ष की थीम ‘क्रिएटिंग होप थ्रू’ एक्शन है. 2021 से जारी यह विषय बुनियादी रूप से खुदकुशी रोकने की दिशा में एक सामूहिक पहल का भरोसा देता है. यह थीम समझाती है कि कुछ छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखते हुए हर नागरिक किसी का जीवन बचाने में अहम भागीदार बन सकता है.
चिंतनीय हैं ये आंकड़े
जीवनशैली से जुड़ी आपाधापी कहें या संवाद की कमी, बड़ी संख्या में लोग भावनात्मक रूप से खुद को अकेला महसूस कर रहे हैं, जिसके चलते दुनिया के हर हिस्से में सुसाइड के मामले बढ़े हैं. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, 10 से 14 वर्ष की आयु के लोगों में आत्महत्या मौत का तीसरा प्रमुख कारण है. वहीं 15 से 34 वर्ष की आयुवर्ग में मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2021 में 45,026 महिलाओं ने खुदकुशी की राह चुनी है.
पिछले दिनों उपराष्ट्रपति ने कोटा में कोचिंग के छात्रों से बड़ी अपील की और टिप्स दिये.
प्रिय छात्रों, मैं कक्षा में अव्वल था, अगर आज मैं दूसरे स्थान पर होता, तो क्या होता, कुछ नहीं… इसलिए असफलता से न डरें, क्योंकि दुनिया में कोई भी महान काम एक प्रयास में नहीं हुआ है. आपको जो करना है, अपने हिसाब से करें. परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों के दबाव में तो बिल्कुल ना आएं. आप स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स और पॉल एलन जैसे बिजनेस टाइकून का जीवन देखें. डिग्री की अहमियत है, लेकिन इन शाख्सियतों ने कॉलेज छोड़कर भी दुनिया में वो मुकाम हासिल किया, जिसका सपना वे देखते थे.
जगदीप धनकड़, उपराष्ट्रपति
कानपुर के क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ सुधांशु मिश्रा क्या कहते हैं-
अभिभावकों पर बच्चों के भविष्य की चिंता इतनी हावी है कि कई बार वे जन्म से पहले ही बच्चे के पेशे के बारे में निर्णय लेने लगते हैं. भावी पीढ़ी के सपनों और मौजूदा विकल्पों पर विचार किये बिना डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या सिविल सरवेंट बनने का सपना देख लिया जाता है, जिन अपेक्षाओं का बोझ बच्चों में घोर निराशा, डर व अवसाद का कारण बनता है. जो बच्चे अंकों की दौड़ में पीछे रह जाते हैं, वे आलोचना का शिकार बनते हैं. मीनमेख निकालने वालों में पेरेंट्स, टीचर्स और रिश्तेदार तक सभी शामिल होते हैं. उन्हें लगता है कि हर हाल में डॉक्टर, इंजीनियर बनना ही है, वरना सभी से अपमान और हीनता ही मिलेगी. याद रखिए कि माता-पिता का दबाव बच्चों पर भारी भावनात्मक बोझ डालता है. जो बच्चे इसे सह नहीं पाते, वे खुदकुशी की राह पर चले जाते हैं. याद रखें, पैरेंट होने की पहली शर्त बच्चों से कोई उम्मीद न पालना है.
भुवनेश्वर के करियर कंसल्टेंट (फास्ट ट्रैक) पीके प्रमाणिक क्या कहते हैं-
माता-पिता, सरकार और शिक्षाविदों को सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि कोचिंग संस्थान प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कठिन विषयों में केवल थोड़ी-बहुत मदद कर सकते हैं, वे पारंपरिक स्कूलों या कॉलेजों की जगह नहीं ले सकते. आप परिणामों का विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि अधिकांश टॉपर्स केवल सेल्फ स्टडी और माता-पिता व शिक्षकों के सहयोग के कारण बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं. ध्यान रहे, केवल परीक्षा पास करना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने में बड़ा फर्क है. हो सकता है कि कुछ बच्चे एग्जाम के हिसाब से तैयारी सही कर लेते हैं, मगर आगे जाकर करियर में उतने सफल नहीं हो पाते, वहीं कई बच्चे बड़े एग्जाम पास नहीं कर पाते, मगर हुनर और करियर में वे कहीं आगे निकल सकते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हमारे आस-पास कई कोचिंग संस्थान बुनियादी शिक्षा देने के बजाय बच्चों को शॉर्टकट बताने में लगे हैं और अभिभावकों से शुल्क के तौर पर मोटी रकम वसूलते हैं.
यदि आप जेइइ/एनइइटी, यूपीएससी आदि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करानेवाले संस्थानों को करीब से जानें, तो आश्चर्य होगा कि ये छात्रों पर उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अत्यधिक दबाव डालते हैं और ऐसा न हो पाने पर वे छात्रों का खुलेआम मजाक उड़ाते हैं, अपमानित करते हैं. इससे छात्रों को मानसिक आघात पहुंच सकता है और वे किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिसे रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है. करियर सलाहकार के रूप में मेरा सुझाव है कि अपने बच्चों को पास के स्कूल या कॉलेज में पढ़ने दें. आपको अपने बच्चों पर भरोसा होना चाहिए, कोचिंग पर नहीं.
रांची की सेवानिवृत्त शिक्षिका शेफालिका सिन्हा क्या कहती हैं-
एक अभिभावक एवं शिक्षक के रूप में हमारी भूमिका ऐसी हो कि हमारे बच्चे मानसिक रूप से मजबूत बनें. आज ज्यादातर परिवार एकल होते जा रहे हैं. पहले की तरह दुलार-प्यार देने वाले और उन्हें समझने वाले दादा-दादी, नाना-नानी प्राय: उनके साथ नहीं रहते. उनके साथ रहने से बच्चे का भावनात्मक लगाव तो होता ही है, यह उनको मानसिक रूप से मजबूत भी बनाता है.
पढ़ाई के मोर्चे पर हम सब जानना चाहते हैं कि पढ़ाई करते समय बच्चा किसी भी विषय को कितना समझ रहा है, कितना जानता है और कितना नंबर लाता है. मतलब यह कि उसकी बौद्धिक क्षमता की जांच तो हम करते हैं, लेकिन यह नहीं देखते कि भावनात्मक रूप से वह कितना मजबूत है. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि व्यक्ति की सफलता के लिए आइ क्यू से अधिक इमोशनल कोशंट जरूरी है. इसलिए एक बच्चे का मन से मजबूत होना बहुत जरूरी है, तभी वह आने वाली छोटी-छोटी बातों से डरेगा नहीं और बड़ी समस्याओं का भी सामना करने को तैयार रहेगा. बढ़ते बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए उनसे संवाद करना, उनको समय देना बहुत जरूरी है. आज बच्चों के साथ बड़े भी तकनीकी दुनिया में इतने व्यस्त हैं कि मन की बात मन में ही रह जाती है. यह मानसिक तनाव कम नहीं करता, बल्कि बढ़ा देता है. घर और विद्यालय ही वो जगह हैं, जहां बच्चे का सबसे अधिक समय बीतता है. अत: बच्चे के मन की जानकारी रखने का दायित्व भी इन दोनों का है. माता-पिता बच्चे को समय दें, उनकी बातें सुनें और घर का माहौल शांत व सौहार्दपूर्ण रखें.