Lucknow: देश में सड़क हादसों में हर साल बड़ी संख्या में लोगों की मौत होती है. इनमें उत्तर प्रदेश के आंकड़े सबसे ज्यादा खराब हैं. हादसे में घायलों का अगर समय रहते इलाज मिल जाए तो कई जिंदगी बचाई जा सकती है. हादसे के बाद के पहले एक घंटे को ही गोल्डन ऑवर कहा जाता है.
किसी भी घायल की जान बचाने के लिए ये समय सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. ऐसी इमरजेंसी सहित अन्य स्थिति में अस्पताल किसी मरीज को दाखिल करने से इनकार नहीं कर सकते हैं. इसके लिए हर व्यक्ति को अपने अधिकारों की जानकारी होना जरूरी है.
दरअसल स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले अस्पताल ‘मेडिकल क्लीनिक कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट’ के अंदर आते हैं. इसके साथ ही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जिम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करे कि डॉक्टर ‘कोड ऑफ मेडिकल एथिक्स रेग्युलेशंस’ का पालन करें. इसलिए, अगर डॉक्टर की लापरवाही का मामला हो या सेवाओं को लेकर कोई शिकायत हो तो उपभोक्ता हर्जाने के लिए उपभोक्ता अदालत जा सकता हैं.
अगर कोई व्यक्ति गंभीर हालत में अस्पताल पहुंचता है तो सरकारी और निजी अस्पताल के डॉक्टरों की जिम्मेदारी है कि उस व्यक्ति को तुरंत चिकित्सीय मदद दी जाए. जान बचाने के लिए जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं देने के बाद ही अस्पताल मरीज से इलाज की फीस मांग सकता है या फिर पुलिस को जानकारी देने की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है.
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मरीज या फिर तीमारदार को जानकारी दी जानी चाहिए कि भर्ती व्यक्ति को क्या बीमारी है और इलाज का क्या नतीजा निकलेगा. साथ ही मरीज को इलाज पर खर्च, उसके फायदे और नुकसान और इलाज के विकल्पों के बारे में लिखित व मौखिक रूप में देनी चाहिए.
मरीजों, भर्ती व्यक्ति के परिजनों को अधिकार है कि अस्पताल उसे केस से जुड़े सभी कागजात की फोटोकॉपी अस्पताल में भर्ती होने के 24 घंटे के भीतर और डिस्चार्ज होने के 72 घंटे के भीतर दे. कोई भी अस्पताल मरीज को उसके मेडिकल रिकॉर्ड या रिपोर्ट देने से इनकार नहीं कर सकता.
इन रिकॉर्ड्स में डायग्नोस्टिक टेस्ट, डॉक्टर की राय, अस्पताल में भर्ती होने का कारण आदि शामिल हैं. डिस्चार्ज के समय मरीज को एक डिस्चार्ज कार्ड दिया जाना चाहिए, जिसमें भर्ती के समय मरीज की स्थिति, लैब टेस्ट के नतीजे, भर्ती के दौरान इलाज, डिस्चार्ज के बाद इलाज, क्या कोई दवा लेनी है या नहीं लेनी है, क्या सावधानियां बरतनी हैं, क्या जांच के लिए वापस डॉक्टर के पास जाना है, इन बातों का जिक्र होना चाहिए.
अगर आप किसी डॉक्टर के तरीके से खुश नहीं हैं तो आप किसी अन्य डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं. ऐसे में ये अस्पताल को सभी मेडिकल और डायग्नोस्टिक रिपोर्ट मरीज को उपलब्ध करवानी चाहिए. किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह उस वक्त महत्वपूर्ण हो जाती है, जब बीमारी से जान को खतरा हो, या फिर डॉक्टर जिस लाइन पर इलाज सोच रहा है उस पर सवाल हो.
इलाज के दौरान डॉक्टर को कई ऐसी बातें पता होती हैं जिसका ताल्लुक मरीज की निजी जिंदगी से होता है, तो डॉक्टर का फर्ज है कि वो इन जानकारियों को गोपनीय रखे.
किसी बड़ी सर्जरी से पहले डॉक्टर का फर्ज है कि वो मरीज या फिर उसका ध्यान रखने वाले व्यक्ति को सर्जरी के दौरान होने वाले मुख्य खतरों के बारे में बताए और जानकारी देने के बाद सहमति पत्र पर दस्तखत करवाए. इसके साथ ही ये भी पूछे कि क्या वो सर्जरी करवाना चाहते हैं.
अक्सर शिकायत आती रहती है कि जब किसी अस्पताल में डॉक्टर मरीज को दवा की पर्ची देता है तो कहता है कि वो उसी अस्पताल की ही दुकान से दवा खरीदें या फिर अस्पताल में ही डायग्नॉस्टिक टेस्ट करवाएं. अहम बात है कि अस्पताल ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि ये उपभोक्ता के अधिकारों का हनन है. उपभोक्ता को आजादी है कि वो टेस्ट जहां से चाहे, वहीं से करवाए. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की नीति के मुताबिक, जहां तक संभव हो, डॉक्टर को दवाई का जेनेरिक नाम इस्तेमाल करना चाहिए, न कि किसी कंपनी का ब्रैंड नाम.
कई बार देखा गया है कि अगर अस्पताल का पूरा बिल नहीं अदा किया गया हो तो मरीज को अस्पताल छोड़ने नहीं दिया जाता. कई बार परिजनों को मृतक का शव तक नहीं ले जाने देते. अस्पताल की ये जिम्मेदारी है कि वो मरीज और परिवार को दैनिक खर्च के बारे में बताएं. इसके बावजूद अगर बिल को लेकर असहमति होती है, तब भी मरीज को अस्पताल से बाहर जाने देने से या फिर शव को ले जाने से नहीं रोका जा सकता.
अगर किसी मरीज को इन तमाम अधिकारों से संबंधित कोई शिकायत है तो पहले कोशिश करें कि अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर से बातचीत करके समस्या का हल निकलें. लेकिन अगर कोई हल नहीं निकलता है तो केस के बारे में सभी सबूत इकट्ठा उपभोक्ता फोरम से संपर्क करें. साथ ही, राज्य मेडिकल काउंसिल में डॉक्टर और अस्पताल के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाएं.
हालांकि ऐसा नहीं है कि इलाज के नाम पर तीमारदार या कोई अन्य अपनी मनमानी या हिंसा कर सकते हैं. ऐसा करने पर उनके खिलाफ भी कानूनी तौर पर कार्रवाई की जा सकती है. चिकित्सकों के खिलाफ होने वाली हिंसा की घटनाओं को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया है.
इसके तहत नेशनल मेडिकल कमीशन रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर (RMP) प्रोफेशनल कंडक्ट) रेगुलेशन, 2023 की ऑफिशियल नोटिफिकेशन में कहा गया है कि डॉक्टर अब दुर्व्यवहार करने वाले, असभ्य और हिंसा करने वाले मरीजों या रिश्तेदारों का इलाज करने से इनकार कर सकते हैं.
मरीजों के प्रति आरएमपी के कर्तव्यों के तहत नोटिफिकेशन में कहा गया है. रोगी की देखभाल करने वाला आरएमपी अपने काम के लिए पूरी तरह से जवाबदेह होगा और उचित फीस का हकदार होगा. अपमानजनक, अनियंत्रित और हिंसक रोगियों या रिश्तेदारों के मामले में, आरएमपी उनके व्यवहार के बारे में लिख सकता है और रिपोर्ट कर सकता है और रोगी का इलाज करने से इनकार कर सकता है. ऐसे मरीजों को आगे के इलाज के लिए कहीं और रेफर किया जाना चाहिए.
ये नए नियम मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के मेडिकल एथिक्स कोड 2002 को रिप्लेस करेंगे. यह पहली बार है जब डॉक्टरों को अनियंत्रित और हिंसक मरीजों का इलाज करने से इनकार करने का अधिकार होगा. इस कदम का उद्देश्य डॉक्टरों के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकना है.
इसके साथ ही आरएमपी के सैलरी या पारिश्रमिक के अधिकार के तहत नॉटिफिकेशन में कहा गया है कि रोगी की जांच या उपचार से पहले परामर्श शुल्क या कंसल्टेशन फीस की जानकारी रोगी को दी जानी चाहिए. इसमें कहा गया है कि मरीज को सर्जरी या उपचार की लागत का उचित अनुमान दिया जाना चाहिए ताकि वे पूरी जानकारी के साथ निर्णय कर सकें. अगर जैसा बताया गया उस अनुसार फीस का भुगतान नहीं किया जाता है, तो आरएमपी मरीज का इलाज करने या उसका इलाज जारी रखने से इनकार कर सकता है.