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सामाजिक समरसता का अप्रतिम उदाहरण है इंद मेला

रिसा मुंडा के बाद सभी 21000 मुंडा दो दलों में विभक्त हो गये. एक दल का नेतृत्व कोरंबा मुंडा तथा दूसरे दल का नेतृत्व सुतिया मुंडा ने किया.

सुजीत केशरी

ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि 6000 ईसा पूर्व मुंडाओं का भारत में आगमन हुआ. स्वतंत्र एवं शांति प्रिय मुंडा जनजाति पर बाहरी शत्रुओं का आक्रमण हुआ और वे सुरक्षित स्थल की खोज में पलायन करते रहे. इसी क्रम में रिसा मुंडा के नेतृत्व में 21000 मुंडाओं ने झारखंड में प्रवेश किया. शरत चंद्र राय ने अपनी किताब ‘मुंडाज एंड देअर कंट्रीज’ में लिखा है– आर्यावर्त्त के विभन्न क्षेत्रों में मुंडाओं ने राजपाट किया. परंतु जब दिकुओं (शत्रुओं) का प्रभुत्व हुआ, तब मुंडाओं की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी और वे दक्षिण की ओर बढ़े.

3000 वर्ष पूर्व मुंडाओं का दल आजिमगढ़ से कलंगजार, गढ़चित्र, गढ़पाली, गढ़पिपरा, मांडर पहाड़, बिपना गढ़, हल्दीनगर, लकनौर गढ़, नंदन गढ़, रिज गढ़ और सईदास गढ़ से बुड़मू होते हुए झारखंड के उमेडंडा में प्रवेश किया. इस दरम्यान मुंडाओं का नेतृत्व रिसा मुंडा कर रहे थे. रिसा मुंडा के बाद सभी 21000 मुंडा दो दलों में विभक्त हो गये. एक दल का नेतृत्व कोरंबा मुंडा तथा दूसरे दल का नेतृत्व सुतिया मुंडा ने किया. सुतिया मुंडा के द्वारा बसाया गया गांव ही सुतियांबे कहलाया.

कालांतर में इसी गांव को महाराजा मदरा मुंडा ने अपनी राजधानी बनाया. उस समय यह क्षेत्र छोटानागपुर के मुंडा राजाओं के पड़हा पंचायत का मुख्य केंद्र था. गांवों में पड़हा व्यवस्था थी. पड़हा का प्रधान मुंडा होता था. कई गांवों को मिलाकर एक पड़हा की स्थापना की जाती थी. पड़हा का प्रधान पड़हा राजा कहलाता था. सभी पड़हा का प्रधान मानकी महाराजा कहलाता था. इस तरह सुतियांबे में महाराजा मदरा मुंडा का शासन था. महाराजा मदरा मुंडा ने प्रषासनिक सुविधा के लिए अपने क्षेत्र को 12 पड़हा, 22 पड़हा, 24 पड़हा और झीका पड़हा में बांटा. महाराजा मदरा मुंडा ने पहली शताब्दी में इंद मेला को शुरू करवाया.

मेला के संबंध में आस्था

मेले के संबंध में लोगों की आस्था है कि छोटानागपुर का इंद मेला, मुड़मा मेला और जगन्नाथपुर मेला देखने से एक तीर्थ का फल मिलता है. छोटानागपुर के इंद मेला से ही झारखंड में मेले की शुरुआत होती है.

टूट जाती है धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र की दीवारें

पहली शताब्दी में इस क्षेत्र में मुंडा जनजाति का वास था. इसलिए मुंडा जनजाति इस मेला में विशेष रूप से भाग लेती थी. पहली शताब्दी में महाराजा मदरा मुंडा ने इंद मेला शुरू किया था. नागवंशियों के द्वारा भी इंद मेला का निरंतर आयोजित किया गया. नागवंशियों के साथ इस मेले में सदानों (गैर आदिवासियों) की सहभागिता बढ़ती गयी.

वर्त्तमान समय में इंद मेला सामाजिक समरसता का अप्रतिम उदाहरण है. हिंदू, मुस्लिम, सरना और ईसाई धर्मावलंबी मिलकर इस मेले का आयोजन करते हैं. सभी क्षेत्र के लोग, विभिन्न जाति के लोग व विविधभाषी लोग प्यार-मोहब्बत से इस मेले में शामिल होते हैं, इसलिए इंद मेला में टूट जाती है धर्म, जाति, भाषा व क्षेत्र की दीवारें.

समय के साथ आ रहा है बदलाव

26 सितंबर 2023 को पिठोरिया में ईंद मेला का आयोजन किया गया है. इस मेले में पूजा की विधि व परंपरा की सारी चीजें पूर्ववत् ही हैं, लेकिन आज इसका स्वरूप बहुत ही व्यापक हो गया है. मेला) के आयोजन की सारी जिम्मेदारी वर्त्तमान में महाराजा मदरा मुंडा केंद्रीय पड़हा समिति उठा रही है. इस समिति में सभी धर्म के मानने वाले लोग हैं. समिति का मानना है कि इसकी प्राचीनता को हर हाल में बरकरार रखा जाएगा. साथ ही मेला की सामाजिक समरसता का विस्तार झारखंड के साथ-साथ पूरे भारतवर्ष में हो यही आशा–अभिलाषा है.

मेला के संबंध में प्रमुख बातें

यह मेला करम विसर्जन के बाद त्रयोदशी को आयोजित किया जाता है. इस मेला की शुरूआत होने के पीछे एक घटना है. वर्ष 83 में सुतियांबे के प्रधान मानकी महाराजा मदरा मुंडा ने नागवंशी फणिमुकुट राय को पड़हा पंचों की राय से अपना उत्तराधिकारी बनाया था. इसी अवसर की याद में करम पर्व के तीसरे दिन प्रतिवर्ष इस मेले का आयोजन किया जाता है. ‘टोपर’ इसका प्रतीक है. इस प्रकार यह मेला 1941 वर्ष से नियमित रूप से लग रहा है.

इंद पूजा के लिए कांशी की व्यवस्था चिरूआ व मुरेठा गांव के लोग करते हैं. करम पूजा के विसर्जन के दिन 12 पड़हा के नगड़ी गांव के लोग मदनपुर गांव के इंद मेला टांड़ (जहां मेला लगता है) में कांशी (जिससे रस्सी बनती है) को रख देते हैं. मेले के दिन ईचापीड़ी गांव के लोग कांशी से बरहा (रस्सी) बनाते हैं. सुतियांबे गांव के सीताराम नायक के परिवार वाले टोपर (सफेद कपड़े का बना बड़ा गोलाकार) बनाते हैं और सिलाई आरंभ काल से ही हाजी इल्ताफ हुसैन के पूर्वज और वे स्वयं करते थे, लेकिन उनके देहावसान हो जाने के बाद अब अन्य दर्जी करते हैं.

पुसु गांव के गोपाल मुंडा व जीतन मुंडा परिवार के लोग टोपर को मेला स्थल तक ले जाते हैं. पूजा डहुटोला के अरविंद पाहन के परिवार वाले कराते हैं. उसके बाद नगड़ी गांव के लोग ईचापीड़ी गांव के लोगों द्वारा बनायी गयी रस्सी को दौड़कर पूजा स्थल तक ले जाते हैं. टोपर उठाने से पूर्व कुम्हरिया गांव के पाहन के परिवार की कोई भी अविवाहित लड़की तीन बार अपने बायें पैर से टोपर को स्पर्ष करती है, तब रस्सी को टोपर से उठाया जाता है.

वहीं ईचापीड़ी गांव के भाई–बहन अपने माथे पर हड्डा-गुड्डी (दो बैल, किसान और हल-जुआठ लकड़ी का बना हुआ) लेकर इंद मेला आते हैं. महाराजा मदरा मुंडा के समय से स्थापित यह परिपाटी आज भी विद्यमान है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इंद्र की कृपा बनी रहे और किसानों को खेती में अच्छी उपज मिलती रहे.

मेला का समय

इंद मेले के समय किसान धान की फसल बोने के कार्य से निवृत्त हो जाते हैं. उस समय चारों तरफ छायी हरियाली मन को मोहने वाली होती है. ऐसे समय में 12, 22, 24 और झीका पड़हा समुदाय के लोगों का पारंपरिक वेशभूषा हथियार के साथ उपस्थित होकर सामूहिक नृत्य-गान करना अनायास मन को लुभाता है.

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