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Hartalika Teej 2023: हरतालिका तीज का पर्व आज, रिश्तों को बांधे रखते हैं ये त्योहार

समर्पण की भावना से स्त्रियां हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं, जिसमें वह चौबीस घंटे का निराजल उपवास रखती हैं. ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियों का सुहाग अखंडित रहता है. वैसे भी हम अपने देवी-देवताओं का अनुसरण करते आये हैं.

किरण सिंह

औरत और शृंगार एक-दूसरे के पूरक हैं. विवाह में मांगलिक रस्म – रिवाजों को निभाने के क्रम में ही युवतियां जब देखती हैं कि देवी-देवताओं से उनके परिजन उनके लिए अखंड सौभाग्य का वरदान मांगते हैं तभी से वे सुहाग के महत्व को समझने लगती हैं. फिर जब गुरहत्थी के रस्म में सोलह शृंगार सामग्री से सजा शृंगार बॉक्स और वस्त्राभूषण ससुराल से चढ़ाया जाता है और उसके बाद सिंदूरदान के रस्म में पिया मांग में सिंदूर भरते हैं, उस क्रम में ही युवतियों के मन के तार पिया से तो जुड़ ही जाते हैं. उसके साथ-साथ सुहाग के प्रतीक चिन्हों से भी उन्हें गहरा जुड़ाव हो जाता है, जिसे स्त्रियां हर हाल में बचाये रखना चाहती हैं. वैसे भी सुहाग के प्रति समर्पण की भावना स्त्रियों को विरासत में मिली होती है, क्योंकि वह अपनी मां, चाची, भाभी आदि को ऐसा करते देखती आयी हैं. इसी समर्पण की भावना से स्त्रियां हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं, जिसमें वह चौबीस घंटे का निराजल उपवास रखती हैं. ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली स्त्रियों का सुहाग अखंडित रहता है. वैसे भी हम अपने देवी-देवताओं का अनुसरण करते आये हैं.

पौराणिक कथानुसार, माता सती ने पार्वती के रूप में राजा हिमालयराज के घर जन्म लिया था. वह बचपन से ही शिव को पाने की कामना करती थी, परंतु जब वह विवाह के योग्य हुई तो नारद मुनि नें राजा के सामने पार्वती का विवाह विष्णु जी से करवाने का प्रस्ताव रखा, जिसे राजा हिमालय ने स्वीकार कर लिया. जब पार्वती को यह पता चला तो वह निराश होकर जंगल चली गयी और वहां महादेव को पति रूप में पाने के लिए रेत का शिवलिंग बनाया और लाखों-सैकड़ों वर्षों तक कठोर तप किया. आखिरकार पार्वती की कठोर तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और सावन महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को माता पार्वती के सामने प्रकट होकर, वरदान स्वरूप पत्नी रूप में स्वीकृति प्रदान की.

रिश्तों को बांधे रखते हैं ये तीज-त्योहार

समय के साथ-साथ तीज-त्योहारों को मनाने का अंदाज भी कुछ बदला-बदला सा है. जहां पहले मां अपनी बेटियों के लिए, भाभी अपनी ननदों के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार कपड़े-गहने खरीदकर तीज की सौगातें भेजती थीं, वहीं आजकल के पति ही विशेष रूप से तीज के अवसर पर अपनी पत्नी के लिए गहने-कपड़े खरीद कर उन्हें विशेष रूप से उपहार देने लगे हैं. यहां तक कि व्रत की तैयारियों में भी सहयोग कर उन्हें एहसास दिलाते हैं कि – ‘मैं हूं न’. दो-तीन दशक पहले तक ये अपेक्षा औरतें अपने पतियों से नहीं रख सकती थीं. उन दिनों संयुक्त परिवार के बीच प्रेम प्रदर्शित करना इतना सहज नहीं था. अब एकल परिवार का चलन है, जिसका ये एक खूबसूरत पहलू सामने आया है.

अगले दिन पारण और गणेश चतुर्थी की पूजा

तीज के अगले दिन गणेश चतुर्थी का भी त्योहार होता है, जिसे महिलाएं बड़ी श्रद्धा से करती हैं और गणेश जी से मांगती हैं कि वे उनके घर सुख-समृद्धि लेकर आएं. फिर व्रती महिलाएं पारण करती हैं. पारण में भी जहां संयुक्त परिवारों में व्रत तोड़ने के लिए घर के अन्य सदस्य जो व्रत नहीं किये होते, वे तरह-तरह के व्यंजन बनाने के लिए सुबह-सवेरे ही उठकर तैयारियों में जुट जाते, वहीं अब पति स्वयं को बेस्ट कुक साबित करते हुए पारण के लिए कुछ विशेष व्यंजन बनाकर सर्व करने लगे हैं. इस तीज-त्योहार के बहाने पति-पत्नी के मध्य रिश्तों का माधुर्य कई गुना बढ़ जाता है. मन के तार झनक उठते हैं. ऐसे में उनके मध्य प्रेम की उम्र तो लंबी होती ही है.

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मेरे विवाह के करीब डेढ़-दो महीने ही हुए होंगे. ससुराल में पहला तीज था. तब की प्रथा में मायके से तीज की प्रतीक्षा पूरे गांव को हुआ करती थी, क्योंकि तीज की सौगात में पूरे परिवार के लिए कपड़ों के साथ प्रचुर मात्रा में (टोकरियों में) फल-मिठाई भेजने का चलन था. नाउन के द्वारा पूरे गांव में बयना (फल-मिठाई, ठेकुआ आदि) बांटा जाता था. उस वर्ष सावन के शुरू होते ही नाउन किसी-न-किसी के घर का बायना लेकर आती थी और मेरी सास डलिया भर अनाज दे दिया करती थीं. तब गोतिया की बुजुर्ग औरतें जो हमारी चचियासास, ददियासास लगती थीं, वे मेरी सास से पूछतीं- ‘‘अभी तहरा पतोहिया किहां से तीज ना आइल ह?’’ (अभी बहू के मायके से तीज नहीं आया?) सास ने कहा- ‘‘आ जायेदीं जेकर बेटा ना कमाला ओकर पतोहू नू नईहर के तीज के आस करेले’’ (जिसका बेटा कमाता नहीं है, उसकी बहू न मायके की आस करेगी). फिर उन्होंने एक सुंदर-सी साड़ी मंगायी और रातोंरात ननदों ने उसमें फॉल पीको करवाकर पेटीकोट ब्लाउज भी सिल दिया. अगले दिन मेरे मायके से मेरा भाई और नाऊ तीज लेकर आ गये. मैं खुश तो बहुत हुई, क्योंकि तीज में खूब सारी मिठाइयां और फल के साथ मेरे ससुराल के पूरे परिवार के लिए कपड़ा आया था. ससुराल के सभी लोग मेरे मायके की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

जब सासू मां ने मेरे मायके से आयी लाल रंग की जयपुरी चूनरी मुझे दी, तो मैं धर्म संकट में पड़ गयी कि तीज के दिन कौन-सी साड़ी पहनूं! दिल चाह रहा था कि मायके की साड़ी पहनूं और दिमाग कह रहा था कि सासू मां की दी हुई साड़ी पहनूं. मैंने दिमाग की सुनी और सास की दी हुई साड़ी पहन ली. उस रोज सासू मां की आंखों में जो खुशी देखी, वह आज भी नहीं भूलती हूं. तभी से हमारे बीच एक मां-बेटी का रिश्ता कायम हो गया. तभी मेरे पतिदेव कमरे में आये और जमीन तक लटका हुआ मेरा आंचल देखकर चिढ़ाने के क्रम में कहा- ‘‘साड़ी पहनना भी नहीं आता, आंचल लटककर जमीन पर झाड़ू लगा रहा है.’’ सासू मां ने मेरा पक्ष लेते हुए कहा- ‘‘बड़ आदमी के बड़ आंचर रहेला’’ तब से प्रति वर्ष तीज पर साड़ियां मेरे मायके और ससुराल दोनों तरफ से आने लगीं.

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