भगवान श्रीकृष्ण के लिए ‘कृष्ण को जो पाना चाहो भजो राधे-राधे’ और ‘कृष्ण भागे आवे जब कोई बोले राधे’ जैसे भजन की पंक्तियों के गायन से स्पष्ट होता है कि सद्प्रवृत्तियों में श्रीकृष्ण निवास करते हैं. सद्प्रवृत्तियां ही मनुष्य को यश और कीर्ति प्रदान करती हैं. श्रीराधा की माता कीर्तिदा हैं, तो श्रीकृष्ण की पालन करने वाली मां यशोदा हैं, ये दोनों कीर्ति देने वाली तथा यश देने वाली माता ही कही जायेंगी.स्वाभाविक है कि शास्त्रों में वर्णित आचरण अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति स्वतः समाज में यश तथा कीर्ति का भागीदार हो जाता है.
श्रीकृष्ण भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जन्म लेते हैं, तो श्रीराधा जी शुक्ल पक्ष की अष्टमी को जन्म लेती हैं. भाद्रपद वर्षा ऋतु का महीना है. आकाश में बादलों की मौजूदगी से अंधेरा रहता है. कृष्ण अंधकार की ओर बढ़ते पक्ष में अवतरित हुए. जब जीवन विषमताओं के अंधकार की ओर बढ़े, तो आत्मबल के कृष्ण को जागृत करना ही श्रीकृष्ण जन्म का संदेश है, तो श्रीराधा जी का शुक्ल पक्ष की अष्टमी को जन्म लेना सद्प्रवृत्तियों के बल पर उज्ज्वल पक्ष की ओर कदम बढ़ाने का सूचक है. दोनों पक्षों में अष्टमी की तिथि को चंद्रमा का अस्तित्व आधा ही रहता है.
श्रीकृष्ण की यश-गाथा के ग्रंथ श्रीमद्भागवत पुराण या महाभारत में राधा जी का उल्लेख नहीं होने के पीछे विद्वानों का मानना है कि श्रीराधा कृष्ण से अलग नहीं हैं. देवाधिदेव महादेव के अर्धनारीश्वर रूप की तरह श्रीकृष्ण की प्रवृत्तियों को श्रीराधा का नाम दिया गया. कथाओं में प्रसंग आता है कि गोकुल में जब पहली बार श्रीकृष्ण ने राधा को देखा, तब पूर्ण कलावतार श्रीकृष्ण अत्यंत मोहित हो गये. वे दूसरे दिन ब्रह्ममुहूर्त में श्रीराधा जी के घर पहुंच गये और मुरली बजाने लगे.
मुरली की आवाज सुनकर राधाजी बाहर आयीं और कृष्ण से कहा-‘कृष्ण, ऐसे जीवन नहीं चलता. सुबह-सुबह ही नृत्य-गीत करना उचित नहीं.’ कृष्ण ने पूछा-‘तो क्या करना चाहिए?’ राधा ने उत्तर दिया-‘ब्रह्ममुहूर्त में योग-साधना, पूजन आदि करिए. उसके बाद जनता की समस्याओं के लिए जनता दरबार लगाइए तथा गायों को लेकर खेत खलिहान में जाइए एवं कृषि कार्य में लग जाइए. शाम जब आप लौटेंगे तब पुनः यमुना-तट पर मैं आऊंगी और नृत्य-गीत होगा.’
व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए राधा के इस उत्तर से श्रीकृष्ण अत्यंत प्रभावित हो गये. बोल पड़े-‘राधा, तुमने तो मेरी सोच की धारा ही बदल दी.’ इस दृष्टि से चिंतन करने पर स्पष्ट होता है कि जब कोई ऐसी सोच जो जीवन को सार्थक दिशा प्रदान कर दे, वही सोच जीवन की राधा स्वतः हो जायेगी.
गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में ‘जेई जानहिं तेहिं देई जनाई, जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होई जाई’ चौपाई में उन्नत चिंतन की ओर संकेत किया है. व्यक्तित्व की विराटता के लिए कर्म करना तथा समाज के लोगों की व्यथा दूर करना भी आवश्यक है. भगवान श्रीराम जब वनवास के लिए निकल पड़े और उन्हें मनाने भरत जी आये तब श्रीराम ने भी भरत से कहा था-‘भरत, तुम अयोध्या लौट जाओ. वहां पिता दशरथ की तरह पूर्वाह्न काल में जनता-दरबार अवश्य लगाना, ताकि जनता की समस्याओं को जान सको.’ ऐसा उल्लेख वाल्मीकि रामायण में किया गया है.
वृषभानु की बेटी श्रीराधा ने भी कृष्ण को गोपालन तथा खेत खलिहान के जरिये उत्पादकता को बढ़ाने के काम में लगाया और जनकष्ट निवारण के लिए जनता-सुनवाई का ज्ञान कराया. इसलिए मनुष्य का सार्थक कर्म कृष्ण है, तो उस कर्म से जो आभा निकलती है, वह श्रीराधा हैं.