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पितरों के निमित्त यज्ञ स्वरूप है तर्पण

मनु कहते हैं, ‘पितृयज्ञस्तु तर्पणम्’,यानी पितरों के निमित्त किया जानेवाला यज्ञ तर्पण हैं. इसका शाब्दिक अर्थ तृप्ति है, परंतु दिवंगत पितरों की प्रसन्नता के लिए किये जानेवाले धार्मिक विधान के रूप में ही यह रूढ़ है.

पितरों के निमित्त यज्ञ स्वरूप है तर्पण

– मार्कण्डेय शारदेय (ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)

भारतीय संस्कृति बड़ी उदार और व्यापक है. यह हमें व्यष्टि नहीं, समष्टि मानती है. इसीलिए यह हमें समस्त ब्रह्मांड से ही जोड़कर देखती है. पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी से देवता तक की व्याप्ति हममें देखती है. चूंकि इसके अनुसार, कर्मफल से ही सारे जड़-चेतन विविध योनियों को प्राप्त हैं, इसलिए स्वेदज, अंडज, पिंडज एवं उद्भिज चारों प्रकार का जीव-जगत हमसे भिन्न नहीं, हममें से ही है.

यह बात हमारे ग्रंथों में जगह-जगह है, या यों कहें कि हमारे सारे आचारों का यही आधार है. हमारे सारे कर्म भी दो भागों में हैं- एक आत्मोत्थान से संबंधित, तो दूसरा सर्वोत्थान से संबंधित. आत्मोत्थान भी भौतिकता के चंगुलवाला नहीं, बल्कि इस जीवन के रहस्य को समझकर कर्म करते हुए कर्मलिप्तता से दूरी बनानेवाला है. इसका शास्त्रीय नाम इष्ट है. दूसरी ओर, हमारा जीवन हर तरह के प्राणियों के सहयोग से है, इसलिए प्रत्युपकार के रूप में उनके लिए भी यथाशक्ति कुछ-न-कुछ करना है. इसका शास्त्रीय नाम पूर्त है. इष्टकर्म के अंतर्गत जहां अध्ययनात्मक ब्रह्मयज्ञ, जिन पुरुखों के योग से हम जन्मे हैं, उन्हें तृप्ति देना पितृयज्ञ, सृष्टि के संरक्षक दिव्य आत्माओं की प्रीति के लिए देवयज्ञ (हवन), समाज से विशेष जुड़े जीवों को अपने पके भोजन में से अंशदान भूतयज्ञ, भूखों-लाचारों को भोजन देना नृयज्ञ तथा अतिथियों का सत्कार करना अतिथियज्ञ है. इतना करने के बाद ही भोजन-ग्रहण मान्य है. यह आत्मसंतुष्टि का परम मार्ग है. दूसरी ओर, कुआं, तालाब, बगीचा, मंदिर, धर्मशाला- जैसे निर्माण कार्य वैयक्तिक लाभ से ऊपर के हैं. इससे उसका यश भी फैलता है और लोगों को लाभ भी होता है.

पंचयज्ञों के अंतर्गत आनेवाला तर्पण दिवंगत पितरों के नाम एक विधिमात्र नहीं. इसका तार हमारे जन्म-जन्मांतरों से जुड़ा हुआ है. जब तर्पणकाल में जलदान करते कहा जाता है कि जो मेरे दिवंगत बंधु-बांधव हैं या अन्य किसी जन्म में भी रहे हों या और कोई भी मुझसे तृप्ति की अपेक्षा रखते हों, वे सभी तृप्त हो जायें –

येsबान्धवा बान्धवाश्च येsन्यजन्मनि बान्धवाः।
ते तृप्तिम् अखिला यान्तु यश्चास्मत्तोsभिवांक्षति।।

ऐसी उदारता पूर्ण कथन से स्पष्ट है कि हम संसार के समस्त प्राणियों के प्रति उदार हैं और उन्हें स्वयं से दूर नहीं मानते. हमारी संस्कृति हमारे कुल में आते-आते न आ सकनेवाले, अर्थात् गर्भावस्था में, बचपन में, निःसंतान होकर या जिनका श्राद्ध नहीं हो सका, ऐसे मृतकों को भी तृप्ति प्रदान करती है. पुनः इसने आत्मा की अमरता के कारण भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों से जुड़ा माना है. जैसे पेड़ों से फल-फूल लेना हम अधिकार समझते हैं, वैसे ही उन्हें सिंचित-पोषित करना हमारा कर्तव्य भी है.

तर्पण मुख्यतः जल का अर्पण है. स्नान के बाद जलाशय में खड़े होकर ही भींगे कपड़े में या अन्यत्र आसन पर बैठकर सूखे कपड़े में देय जल में अक्षत, पुष्प, चंदन डालकर आदिस्रष्टा ब्रह्माजी से लेकर ब्रह्मांड तक के समस्त प्राणियों का आवाहन किया जाता है. इसके बाद अंजलि में अक्षत-कुश लेकर अग्रभाग से, यानी उंगलियों के आगे से (देवतीर्थ से) एक-एक बार ब्रह्मा आदि देवों, मरीचि आदि ऋषियों को अर्पित किया जाता है.

दूसरे चरण में जौ-कुश लेकर दो-दो बार सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार एवं नारद इन दिव्य आदि मनुष्यों को जलार्पण का विधान है. इसमें अंजलि के मध्यभाग से, अर्थात् कनिष्ठा अंगुली की जड़भाग खोलकर वहां से (ऋषितीर्थ से) विहित है. इसका तीसरा चरण पितरों से संबंधित है, जिसमें दक्षिणमुख हो पितरों का ध्यान-आवाहन किया जाता है. इसके बाद अंजलि में काला तिल-कुश लेकर पितृतीर्थ से, यानी अंगूठे और तर्जनी के बीच से (गांसे से) एक-एक के नाम से तीन-तीन बार जल अर्पित किया जाता है.

तृतीय चरण के अंतर्गत पहले सात प्रकार के हमारे आदि एवं दिव्य पितरों तथा चौदह यमों का तर्पण बताया गया है. इसके बाद जो हमारे खास हैं और हम जिनके खास हैं, वे हैं. इनकी कई कोटियां हैं, जो हमारी व्यापक संबद्धताएं प्रदर्शित करती हैं. प्रथमतः हमारे पितृकुल से दिवंगत पिता, पितामह (दादा) एवं प्रपितामह(परदादा) आते हैं, फिर माता, पितामही (दादी), प्रपितामही (परदादी) आती हैं. इसके बाद मातृकुल से मातामह (नाना), प्रमातामह (परनाना), वृद्धप्रमातामह (परनाना के पिता), अनंतर मातामही (नानी), प्रमातामही (परनानी), वृद्धप्रमातामही (परनाना की मां) का क्रम है.

चूंकि इन्हीं दो कुलों की हम उपज हैं, इसलिए ये ही हमारे मुख्य पितर हैं. इनके अतिरिक्त जैसे वृक्ष की शाखाएं भी वृक्ष से संबद्ध होती हैं, वैसे ही हमारे बंधु होते हैं. कहने को तो किसी व्यक्ति को हम बंधु कह लेते हैं, परंतु शास्त्रीय भाषा में अपने भाई-बहन, सौतेली मां, सौतेले भाई-बहन, पिता के भाई-बहन, माता के भाई-बहन के साथ-साथ चचेरे, फुफेरे, ममेरे एवं मौसेरे भाई-बहन ही मुख्य बांधव हैं. हमारा मन इनसे बंधा रहता है, इसलिए इनमें जो अब धरती पर न हों, उन्हें भी तिल-मिश्रित जल एक-एक बार देने का विधान है. हां, हमारी संस्कृति में गुरु और शिष्य का स्थान पिता तथा पुत्र का होता है, अतः इन्हें भी यहां स्थान दिया गया है.
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सहज एवं संक्षिप्त तर्पण-विधि :

आसन पर पूरब मुंह कर बैठ शुद्धि कर लें. संकल्प के बाद दाहिने हाथ में जल लेकर एक तांबे या पीतल के लोटे में गंगाजल या शुद्ध जल लेकर उसमें चंदन, अक्षत, फूल, तुलसीदल डाल दें. तीन कुशों को एक में मिलाकर (त्रिकुश) उसे लोटे के ऊपर पूर्वाभिमुख रखें. जलपात्र को दाहिने हाथ में ले बायें से ढंक लें और अग्रलिखित श्लोक बोलकर ब्रह्मादि का आवाहन करें-

ऊँ ब्रह्मादयः सुराः सर्वे ऋषयः सनकादयः।
आगच्छन्तु महाभागा ब्रह्माण्डोदर-वर्तिनः।।

अब दाहिना घुटना मोड़कर दाहिनी हथेली के अग्रभाग में अक्षत-सहित कुशाग्र रख क्रमशः अग्रोक्त वाक्य बोलते हुए एक-एक बार जल गिराते जाएं- ऊँ ब्रह्मादयः देवाः तृप्यन्ताम्। ऊँ देवपत्न्यः तृप्यन्ताम्। ऊँ देवसुताः तृप्यन्ताम्। ऊँ देवगणाः तृप्यन्ताम्। ऊँ मरीच्यादयः ऋषयः तृप्यन्ताम्। ऊँ ऋषि-पत्न्यः तृप्यन्ताम्। ऊँ ऋषिसुताः तृप्यन्ताम्। ऊँ ऋषिगणाः तृप्यन्ताम्।

अब सीधा उत्तराभिमुख बैठ हथेली में जौ लेकर कुशों को भी कनिष्ठा अंगुली की जड़ के पास रखकर अग्रलिखित वाक्य पढ़ते हुए क्रम से दो-दो बार जल गिराते जाएं- ऊँ सनकादयः मनुष्याः तृप्यन्ताम्। ऊँ मनुष्य-पत्न्यः तृप्यन्ताम्। ऊँ मनुष्य-सुताः तृप्यन्ताम्। ऊँ मनुष्यगणाः तृप्यन्ताम्।

अब दक्षिणाभिमुख बैठें. कुशों को बीच से मोड़कर आगे और पीछेवाले भाग को अंगूठे-तर्जनी के बीच (गांसे में) रखकर बायां घुटना मोड़कर तिल के साथ एक-एक वाक्य बोलते तीन-तीन बार जल देते जाएं-
ऊँ कव्यवाडनलादयः सप्त-दिव्य-पितरः तृप्यन्ताम्। ऊँ पितृपत्न्यः तृप्यन्ताम्। ऊँ पितृसुताः तृप्यन्ताम्। ऊँ पितृगणाः तृप्यन्ताम्। ऊँ यमादयः चतुर्दश यमाः तृप्यन्ताम्।

यहां तक की विधियां सबके लिए नित्य कर्म के अंतर्गत अनिवार्य मानी गयी हैं, परंतु आगे जिनके पिता आदि जीवित नहीं हैं, उनके लिए ही हैं, इसीलिए ये पितृतिथि, पितृपक्ष में तर्पण में प्रयुक्त होंगे. यहां गोत्र का नाम लेकर पहले की तरह ही तिल लेकर तीन-तीन बार जल देना है. यहां काश्यप गोत्र रखा गया है. इसकी जगह आप जो गोत्र रखें- ऊँ काश्यप-गोत्राः स्मत्-पितृ-पितामह-प्रपितामहाःवसु-रुद्रादित्य-स्वरूपाः तृप्यन्ताम् इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः। ऊँ काश्यप-गोत्राः अस्मद्-मातृ-पितामही-प्रपितामह्यःवसु-रुद्रादित्य-स्वरूपाः तृप्यन्ताम् इदं जलं ताभ्यः स्वधा नमः। ऊँ काश्यप-गोत्राः अस्मद्-मातामह-प्रमातामह-वृद्ध-प्रमातामहाः सपत्नीकाः वसु-रुद्रादित्य-स्वरूपाः तृप्यन्ताम् इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः। ऊँ यथागोत्राः अस्मत्- समस्त-पितरः वसु-स्वरूपाः तृप्यन्ताम् इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः। ऊँ यथागोत्राः अस्मत्-समस्त-गुरवःस्वरूपाः तृप्यन्ताम् इदं जलं तेभ्यः स्वधा नमः।

इसी तरह अग्रलिखित दो श्लोक पढ़ते हुए तिल-मिश्रित जल लगातार गिराते जाएं-

ऊँ आब्रह्म-स्तम्भ-पर्यन्तं देवर्षि-पितृ-मानवाः।
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृ-मातामहादयः।

अतीत-कुल-कोटीनां सप्तद्वीप-निवासिनाम्।
आब्रह्म-भुवनात् लोकात् इदमस्तु तिलोदकम्।।

अब पूर्वाभिमुख ठीक से बैठकर हथेली में थोड़ा जल लेकर संस्कृत-वाक्य पढ़कर तर्पणफल भगवान को अर्पित कर दें- अनेन यथाशक्ति-कृतेन देवर्षि-मनुष्य-पितृ-तर्पण-कर्मणा पितृस्वरूपी भगवान् जनार्दन-वासुदेवः तृप्यतां न मम।

पितृपक्षीय श्राद्ध (तर्पण-पार्वण) की तिथियां

इस बार शुक्रवार, 29 सितंबर को अगस्त्य तर्पण तथा शनिवार, 30 सितंबर से प्रतिपदा पितृपक्ष प्रारंभ है. इसमें नित्य तर्पण एवं अमावस्या या पिता की निधन-तिथि को पार्वण श्राद्ध करने का विधान है. तदनुसार श्राद्ध-तिथियां इस प्रकार होंगी –

प्रतिपदा श्राद्ध : शनिवार, 30 सितंबर को दिन में 1.58 बजे तक.
द्वितीया श्राद्ध : रविवार, 1 अक्तूबर को दिन में 12.09 बजे तक.
तृतीया श्राद्ध : सोमवार 2 अक्तूबर को दिन में 10.42 बजे तक. (इसके बाद चतुर्थी-श्राद्ध).
चतुर्थी श्राद्ध : मंगलवार, 3 अक्तूबर को दिन में 9.39 बजे तक. (इसके बाद पंचमी-श्राद्ध).
पंचमी श्राद्ध : बुधवार, 4 अक्तूबर को दिन में 9.04 बजे तक. (इसके बाद षष्ठी-श्राद्ध)
षष्ठी श्राद्ध : गुरुवार, 5 अक्तूबर को दिन में 8.58 तक. (तत्पश्चात् सप्तमी-श्राद्ध)
सप्तमी श्राद्ध : शुक्रवार, 6 अक्तूबर को दिन में 9.25 तक. (तत्पश्चात् अष्टमी-श्राद्ध)
अष्टमी श्राद्ध : शनिवार, 7 अक्तूबर को दिन में 10.21 तक. (तत्पश्चात् नवमी-श्राद्ध)
नवमी श्राद्ध : रविवार, 8 अक्तूबर को दिन में 11.45 तक. (तत्पश्चात् दशमी-श्राद्ध)
दशमी श्राद्ध : सोमवार, 9 अक्तूबर को दिन में 1.32 तक.
एकादशी श्राद्ध : मंगलवार, 10 अक्तूबर को दिन में 3.34 तक.
द्वादशी श्राद्ध : बुधवार, 11 अक्तूबर को दिनभर.
त्रयोदशी श्राद्ध : गुरुवार, 12 अक्तूबर को दिनभर.
चतुर्दशी श्राद्ध : शुक्रवार, 13 अक्तूबर को दिनभर.
अमावस्या, पितृविसर्जन श्राद्ध : शनिवार, 14 अक्तूबर को दिनभर.
(स्रोत : महावीर पंचांग, वाराणसी के अनुसार)

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