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संयुक्त राष्ट्र में हो बहुपक्षीय सुधार

फ्रांस और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि भारत, ब्राजील, जापान, दक्षिण अफ्रीका और इंडोनेशिया अभी भी आकांक्षी देश हैं. वैश्विक आबादी के 12 प्रतिशत आबादी वाले पश्चिमी देशों के तीन सदस्य हैं, जबकि एशिया से एकमात्र सदस्य चीन है.

जो संस्था समय पर सुधार नहीं कर सकती, उसका धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाना निश्चित है. लोकलुभावन राष्ट्रवाद, दुनिया का ध्रुवीकरण, भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और पश्चिमी प्रभुत्व ने यूएनओ और अन्य वैश्विक संगठनों को कमजोर कर दिया है. विश्व आर्थिक बदलाव और सामरिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. वैश्विक दक्षिण, विशेषकर चीन और भारत का उदय, उभरती बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का संकेत है. लेकिन यूएन, आईएमएफ और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं अभी भी शीत युद्ध के ढांचे में फंसी हुई हैं. संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता और प्रभाव दांव पर है. द्वितीय विश्व युद्ध जैसी स्थिति से बचने और वैश्विक शांति सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया यह संगठन अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है. पिछले कुछ वर्षों में, विशेषकर दो घटनाओं ने इसकी छवि खराब कर दी है- कोविड महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध.

कोविड के समय संयुक्त राष्ट्र से अपेक्षा थी कि वह इसके मूल स्रोत की पहचान करने, इसके प्रसार को रोकने और अमीरों और गरीबों के लिए समान रूप से वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा. पर डब्ल्यूएचओ, जो यूएनओ का एक संबद्ध संगठन है, रस्साकशी में फंस गया. डब्ल्यूएचओ पर चीन के प्रभाव ने उसे निष्पक्ष व्यवहार करने से रोक दिया. दूसरी ओर, डब्ल्यूएचओ पश्चिमी देशों को गरीब देशों के साथ वैक्सीन तकनीक साझा करने के लिए राजी नहीं कर सका. दूसरी सबसे बड़ी चुनौती रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरुआत के साथ आयी. एक वर्ष, सात महीने से अधिक समय हो गया है, पर संयुक्त राष्ट्र कुछ खंडित और अप्रभावी प्रस्तावों को पारित करने से आगे नहीं बढ़ पाया है. इससे युद्ध विराम शुरू करने, तनाव कम करने और युद्ध के पीड़ितों को मानवीय सहायता प्रदान करने की उम्मीद की गयी थी. परंतु एक अग्रणी वैश्विक संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका निराशाजनक है.

गरीब देशों को भोजन और ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने में यूएन असफल रहा है. संयुक्त राष्ट्र सबसे पुरानी जीवित सार्वभौमिक संस्था है और इसने अपने पूर्ववर्ती लीग ऑफ नेशंस की तुलना में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है. इसके पास कई उपलब्धियां हैं, पर यह कई संरचनात्मक खामियों और परिचालन संबंधी कठिनाइयों से ग्रस्त है. सबसे बड़ा संरचनात्मक दोष यह है कि यह कुछ राज्यों को दूसरे राज्यों की तुलना में विशेषाधिकार देता है. इससे संप्रभु राज्यों की समानता की धारणा को वास्तविक झटका लगता है.

पी-5 देश, जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, उनके पास वीटो अधिकार हैं, जो दूसरों को नहीं दिये गये हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के विजेताओं ने अपने लिए विशेष अधिकार सुरक्षित रखे और पिछले 80 वर्षों से अपना प्रभाव बनाये रखा है. वीटो प्रावधान राष्ट्रों के बीच एक पदानुक्रम और गुटीय प्रतिद्वंद्विता पैदा करते हैं. विडंबना है कि फ्रांस और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, जबकि भारत, ब्राजील, जापान, दक्षिण अफ्रीका और इंडोनेशिया अभी भी आकांक्षी देश हैं. वैश्विक आबादी के 12 प्रतिशत आबादी वाले पश्चिमी देशों के तीन सदस्य हैं, जबकि एशिया से एकमात्र सदस्य चीन है. रूस को यदि पश्चिमी राज्य के रूप में देखा जाए, तो यह संख्या चार हो जाती है. वैश्विक जनसंख्या की लगभग 18 प्रतिशत आबादी और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत अभी भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है. सुरक्षा परिषद में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका का प्रतिनिधित्व नहीं है.

भारत के नजरिये से देखें, तो सुरक्षा परिषद का विस्तार और भारत को स्थायी सदस्य बनाना उसका मुख्य मुद्दा है. सभी पी-5 सदस्य संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर विसंगतियों को स्वीकार करते हैं. परंतु वे अपने विशेषाधिकारों को जाने देने को तैयार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र महासभा में, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सुरक्षा परिषद को समसामयिक बनाने पर जोर दिया. भारत का मानना है कि वह अपनी जनसंख्या, अर्थव्यवस्था, लोकतंत्र, नियम आधारित व्यवस्था के पालन और संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों में अपनी भूमिका के कारण प्रमुख दावेदार है. परंतु संयुक्त राष्ट्र सुधार के लिए गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है.

भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ऐसी प्रक्रिया को और जटिल बना देती है. चीन व रूस कई मुद्दों पर पश्चिमी रुख का विरोध करेंगे. पर उभरते मुद्दों से निपटने में इसे प्रभावी बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में सुधार की तत्काल आवश्यकता है. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी देश को एकतरफा हस्तक्षेप करने और दूसरे देश के क्षेत्र पर दावा करने का अधिकार नहीं है. यूक्रेन में जारी संकट और ताइवान में उभरता तनाव, शक्तिशाली देशों द्वारा अपनी सीमाओं को फिर से परिभाषित करने के प्रयासों का परिणाम है. सुरक्षा मुद्दों के अलावा, जलवायु परिवर्तन, सतत विकास और भविष्य की महामारी संबंधी चिंताएं भी हैं. इनसे निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र की मौजूदा संरचना बेहद अपर्याप्त है. संयुक्त राष्ट्र अगले वर्ष ‘भविष्य का शिखर सम्मेलन’ नामक बैठक आयोजित करेगा. इस संगठन को फिर से प्रासंगिक बनाने के लिए बहुपक्षीय सुधार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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