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आदिम सभ्यता का गान है ‘दिसुम का सिंगार’

सावित्री बड़ाईक के काव्य संकलन ‘दिसुम का सिंगार’ का आना सुखद है. संकलन की कविताएं सत्ता की मिलीभगत से पनप रहे बेलगाम पूंजीवाद और उदारीकरण के छद्म को उजागर करती हैं

जनार्दन :

सहायक प्राध्यापक, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

“सृष्टिकथा का मूल अभिप्राय है व्यष्टि के ऊपर समष्टिपरकता. व्यक्ति अपने आप में अपूर्ण है. सामूहिकता में ही उसकी सार्थकता पूरी होती है.” – पद्मश्री रामदयाल मुंडा

आवारा पूंजी भूमंडलीकरण और खुली अर्थव्यवस्था की पैदाइश है, जो लोकतंत्र को कमजोर करके लूट की संस्कृति का निर्माण करती है. इस पूंजी ने सत्ता के साथ मिलकर दक्षिण एशिया, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के आदिवासी इलाकों पर मनमानी करना शुरू कर दिया है, जिसकी वजह से अमेजन, अलास्का-हवाई द्वीप, हसदेव और नियमगिरी के आदिवासी पलायन को मजबूर हुए हैं. आदिम मानव समूह के पलायन से केवल उस समूह के सामने संकट नहीं आता बल्कि आदिम भाषाएं, आदिम ज्ञान और आदिम हुनर के सामने भी संकट खड़ा हो जाता है. इससे हजारों साल का अर्जित ज्ञान और जल-जंगल-जमीन को बचाने की संस्कृति नष्ट हो जाती है तथा पर्यावरण संकट में आ जाता है.

ऐसे समय में सावित्री बड़ाईक के काव्य संकलन ‘दिसुम का सिंगार’ का आना सुखद है. संकलन की कविताएं सत्ता की मिलीभगत से पनप रहे बेलगाम पूंजीवाद और उदारीकरण के छद्म को उजागर करती हैं और पूरी ताकत से आदि ज्ञान-संस्कृति की पैरवी करती हैं. कविता का शीर्षक दो आदिम संस्कृतियों से निर्मित हुआ है. दिसुम मुंडारी शब्द है, जिसका अर्थ होता है – देश. सिंगार गोंडी शब्द है – जिसका अर्थ होता है, वह जमीन जहां इंसान पैदा हुआ अर्थात गोंडवाना. इस तरह सावित्री बड़ाईक झारखंड की पहली रचनाकार हैं, जिन्होंने दो महान आदिवासी समुदायों को जोड़ने का प्रयास किया है. संकलन की जद में झारखंड के साथ केंद्रीय भारत का आदिवासी समुदाय भी है. निश्चित ही समष्टि की विराट चेष्टा की कामना से यह काव्य संकलन संभव हुआ है.

संकलन में आठ सालों में लिखी कुल साठ कविताएं शामिल हैं. सारी कविताओं का अंतरंग और बहिरंग आदिवासियत से भरा हुआ है. संकलन की सबसे पुरानी कविता ‘माटी और गोड़ा भर भात’ है. वर्ष 2015 में लिखी गई है, इस कविता में भूमि को जिंदगी कहा गया है. बिल्डरों और अथाह पूंजी के सरमायेदारों के लिए जमीन मॉल बनाने, फैक्ट्री लगाने या मार्केट बसाने का माध्यम है, जबकि आदिवासियों और किसानों के लिए जमीन का संबंध भूख-मूक्ति से जुड़ता है. भूख से लड़ते हुए आदि किसान ने धरती-पानी का साथ पाकर कृषि का आविष्कार किया. धरती और जंगल ही उसके आदि गुरू और आदि सहयोगी थे. आदि किसान ने धरती को खेत बनाया और जंगली घासों की पहचान फसल के रूप में किया. जाहिर है – धरती से ही आदि ज्ञान और संस्कृति का जन्म हुआ है; इसलिए आदिवासी किसान जमीन को जोहार करते हैं और मिट्टी को छूकर ही हल और कुदाल चलाते हैं.

कवयित्री ने लिखा है – यह जो मेरी भूमि है/सिर्फ भूमि नही है/जिंदगी है हमारी /इसे जोहार करके ही/इस पर हम चलाते हैं हल. धरती के साथ आदिवासियों का जुड़ाव पेट से गुजरते हुए आदिम ज्ञान तक पहुंचता है. धरती की नातेदारी से ही बीज बोने और बचाने, हल-कुदाल बनाने और चलाने तथा आदिम गान रचने और गाने की सामूहिकता विकसित होती है. इसीलिए धरती जीवन भी है और उल्लास भी. इस कविता के उत्तरार्ध में सावित्री जी कहती भी हैं – फसल है तो खलिहान है/कोठार में अनाज है/अनाज है तो माँ के /चेहरे पर मुस्कान है/बेटी के बस्ते में पुस्तक है/ चूल्हे पर चढ़े/खौलते पानी के अदहन में/पकते गोड़ा भात की सुगंध है. कहने की जरूरत नहीं कि खेती भूख का प्रतिपक्ष और संस्कृति का आदिस्रोत है, इसीलिए सावित्री जी धरती को आदि पाठशाला कहती है.

इस संकलन में सन 2016 की कई कविताएं संकलित हैं, जिनमें ‘पाषाण-पटिया’, ‘करघा और हुनर’, ‘पुरखा तकनीक’, ‘बांस शिल्प’, ‘छोड़ब नही हुनर’ और ‘दसोम जल प्रपात’ जैसी कविताएं प्रमुख हैं. ‘पाषाण-पटिया’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एमए हिंदी में पढ़ाई भी जाती है. इस कविता में पाषाण-पटिया को आदिम पहचान के रूपक के रूप में चिह्नित किया गया है. दरअसल ‘पाषाण-पटिया’ ससनदिरि अर्थात मुंडा पुरखों की हजारों साल पुरानी कब्रों की स्मृति की कविता है.

मुनाफा कमाने की आवारा कोशिशों के बीच तमाम आदिम ज्ञान और संस्कृति पर कब्जेदारी बढ़ती जा रही है. इससे तमाम आदिवासी समुदाओं का अस्तित्व संकट में आ गया है. इस संकलन में शामिल ‘करघा और हुनर’, ‘पुरखा तकनीक’, ‘बांस शिल्प’ और ‘छोड़ब नहीं हुनर’ जैसी कविताएं आदिम कला और कौशल की कविताएं हैं. इन कलाओं का आविष्कार आदिवासियों के हुनरमंद सांवले हाथों और कल्याणकारी मस्तिष्क के द्वारा हुआ है. सावित्री जी इन तमाम कौशलों को याद करती हैं और उन्हें आदिवासी ज्ञान परंपरा से जोड़ते हुए उन पर आदिवासी दावा मुकर्रर करती हैं. ये कविताएं आदिवासियत की परिभाषा गढ़ती हुई संस्कृति से होते हुए इतिहास में दाखिल होती हैं. पूरी कविता को पढ़ने से कई देशज शब्दों से मुलाकात होती है. कवयित्री द्वारा देशज शब्दों का इस्तेमाल सोद्देश्य है. वह लोकल सामर्थ्य से ग्लोबल दबाव का सामना करना चाहती हैं, जिसमें वह सफल भी हैं. सारी कविताएं स्थानीय गर्व से भरी हुई हैं.

काव्य संकलन की दूसरी कविता ‘दिसुम का सिंगार’ पर बात करना जरूरी है. इसी कविता से संकलन का नाम पड़ा है. यह थोड़ी लंबी कविता है, जो ग्यारह खंडों तक विस्तृत है. इस कविता में आदिवासियों की पहचान धरती के मौलिक बीज के रूप में की गयी है. कविता में यह स्पष्ट किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते दौर में वैश्विक भूख का देशज समाधान पारंपरिक खेती ही है. यह कविता मुंडारी और गोंडी शब्दों के शब्द और भाव-रसायन से तैयार हुई है, जो देशज ताकत से लैस है. लय और शिल्प में यह कविता आदिम सभ्यता और इतिहास का गान भी है. जयपाल सिंह मुंडा और डॉ रामदयाल मुंडा ने जिस अखिल आदिवासियत का ख्वाब देखा था, वह ख्वाब इस संकलन में दिखता है. यह पुस्तक अखिल आदिवासी संवाद की दिशा में एक पहल की तरह है, जिसमें बड़े आदिवासी समुदायों के साथ-साथ छोटे-छोटे कलावंत आदिवासी समुदायों को भी शामिल किया गया है.

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