आमतौर पर संवादी, अनुवादी, विवादी शब्दों का प्रयोग भारतीय संगीत की दुनिया में होता है. संवादी स्वर वह मुख्य स्वर होता है,जो राग का स्वरूप तय करता है और उससे उत्पन्न होने वाले मनोभाव की जमीन तैयार करता है. अनुवादी स्वर राग की पहचान को निखारता है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, विवादी स्वर रंग में भंग डाल सकता है. इसलिए संगीतकार इसे किसी भी राग की गायिकी या वादन में वर्जित मानते हैं. कुछ ही बड़े कलाकार ऐसे होते हैं जो अपनी संगीत की प्रस्तुति में वर्जित स्वर को ‘अछूत’ नहीं मानते, उसे हल्के से छूकर निकल जाते हैं और एक अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करते हैं. यह सबके बस की बात नहीं. ऐसा ही कुछ हमें खानपान की दुनिया में भी देखने को मिलता है.
भारतीय भोजन षडरस भोजन है. कुछ व्यंजन शाकाहार हो या मांसाहार का अंग, आमतौर पर नमकीन और मीठा दो जायकों में बांटा जाता है. नमक या मिठास को आप मुख्य संवादी स्वर कह सकते हैं. अब अनुवादी स्वरों की तरह तो नमकीन के साथ तीखा (मिर्च वाला) और खट्टा अच्छी जुगलबंदी साधते हैं. जहां तक मिष्ठान्न का प्रश्न है, तो उसमें नमक या मिर्च विवादी स्वर ही महसूस होते हैं. परंतु, शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो लगातार बड़ी मात्रा में केवल मीठा खा सकता हो. कई लोकोक्तियां इस बात को रेखांकित करती हैं कि ज्यादा मीठा मुंह में कड़वा लगने लगता है. अत: मिठास के साथ खटास का हल्का पुट या कसैले स्वाद की हल्की-सी झलक इनका आनंद दोगुना कर देती हैं. अंग्रेजी में जिस जायके को स्वीट एंड सावर कहते हैं, उनके दर्शन हमें भारत के अनेक प्रांतों के भोजन में होते हैं. गुजराती और पारसी खाना इसके लिए प्रसिद्ध हैं. गुजरात की कोकम वाली दाल हो, आम की कढ़ी या फिर पारसियों के प्रिय जर्दालू गोश्त इसी का प्रमाण हैं. ऐसा ही कुछ हमें देखने को मिलता है हैदराबाद के निजामी दस्तरखान में जहां खट्टे-मीठे की अहमियत समझी जाती है और दिलकश तरीके से पेश की जाती है.
बंगाल में नाममात्र का मीठा दाल से लेकर झींगे और मछलियों तक में मिलता है- यहीं मुर्शीदाबाद की शहर वाली रसोई में, जिसको यहां के धन कुबेर मारवाड़ी ओसवाल जैनों ने विकसित किया, अनेक अनुवादी-विवादी जायकों का कुशल उपयोग देखने को मिलता है. चूंकि, यह रसोई शुद्ध शाकाहारी थी, इसलिए मिठास और खटास के लिये खजूर, किशमिश, रोगन बादाम, गुलाब जल आदि का प्रयोग किया जाता था और खटास के लिए इमली, तीखेपन के लिए रसम पत्ती मिर्ची और तड़के के लिये खांटी बंगाली पांच फोरन. तरी को गाढ़ा करने के लिये बादाम-काजू की गिरी पीसकर मिलायी जाती रही है और लहसुन की कमी शुद्ध हींग पूरा करती रही. बंगाली खाने में कड़वे का महात्म्य भी कम नहीं.
यह भी कभी-कभी रत्तीभर ही सही, शहर वाली रसोई में झलक जाता है. मेल-बेमेल जायकों के साथ यह खिलवाड़ देश के दूसरे हिस्सों में भी किया जाता रहा है. दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ और आगरे की चाट में केवल गुड़ और इमली की सोंठ को ही लें, इसका संरचनात्मक विश्लेषण कर देखें, तो क्या नहीं पड़ता, इसमें- सोंठ, सौंफ, खजूर, लाल और काली मिर्च, गुड़ और मुनक्के- कुशल कारीगरों द्वारा तैयार की गयी खट्टी-मीठी, तीखी हल्की कसैली, नमकीन सोंठ अपने भीतर कड़वेपन को छुपाये रखती है और अकेले ही जायके की दुनिया में षटराग सर्जन करती है.
Disclaimer: हमारी खबरें जनसामान्य के लिए हितकारी हैं. लेकिन दवा या किसी मेडिकल सलाह को डॉक्टर से परामर्श के बाद ही लें.