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मानसिक स्वास्थ्य : सरोकार की दरकार

देश में करीब 15 लाख लोग बौद्धिक अक्षमता और लगभग साढ़े सात लाख लोग मनो-सामाजिक विकलांगता के शिकार हैं.

डॉ आनंद प्रकाश श्रीवास्तव

वरिष्ठ पत्रकार

मानसिक स्वास्थ्य, जीवन की गुणवत्ता का पैमाना होने के साथ-साथ सामाजिक स्थिरता का भी आधार होता है. जिस समाज में मानसिक रोगियों की संख्या जितनी अधिक होती है, वहां की व्यवस्था और विकास पर उतना ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. हमारे यहां शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर बेशक सरकार और समाज दोनों में काफी जागरूकता नजर आती है, पर मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किसी तरह की चर्चा-परिचर्चा गाहे-बगाहे ही सुनने को मिलती है. यह विडंबना ही है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी भारत में मानसिक स्वास्थ्य को अपेक्षित महत्व नहीं मिल पाया है, जबकि यह व्यक्ति के सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता को सीधे-सीधे प्रभावित करता है.

मानसिक अस्वस्थता या मनोरोग को आमतौर पर हिंसा, उत्तेजना और असहज यौनवृत्ति जैसे गंभीर व्यवहार संबंधी विचलन से जुड़ी बीमारी माना जाता है, क्योंकि ऐसे विचलन प्राय: गंभीर मानसिक अवस्था का ही परिणाम होते हैं. हाल के वर्षों में अवसाद सबसे आम मानसिक विकार के तौर पर सामने आया है. हालांकि मनोरोग के दायरे में अल्जाइमर्स, डिमेंशिया, ओसीडी, चिंता, ऑटिज्म, डिस्लेक्सिया, नशे की लत, कमजोर याददाश्त, भूलने की बीमारी एवं भ्रम आदि भी आते हैं. इस तरह के लक्षण पीड़ित व्यक्ति की भावना, विचार और व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं. उदासी महसूस करना, ध्यान केंद्रित करने या एकाग्रता में कमी, दोस्तों और अन्य गतिविधियों से अलग-थलग रहना, थकान एवं अनिद्रा को मनोरोग का लक्षण माना जाता है. किसी व्यक्ति के मनोरोगी होने के पीछे कई कारण जिम्मेदार होते हैं.

इनमें सबसे महत्वपूर्ण है आनुवंशिक कारण. गर्भावस्था से संबंधित पहलू, मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन, आपसी संबंधों में टकराहट, किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, आर्थिक नुकसान, तलाक, परीक्षा या प्रेम में असफलता आदि भी मनोरोग का कारण बनते हैं. कुछ दवाएं, रासायनिक पदार्थों, शराब तथा अन्य मादक पदार्थों का सेवन भी व्यक्ति को मनोरोगी बना सकता है. दुनियाभर में अवसाद, तनाव और चिंता को आत्महत्या का प्रमुख कारण माना जाता है. पंद्रह से 29 आयु वर्ग के लोगों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की मौजूदा स्थिति की बात करें, तो यहां की लगभग आठ प्रतिशत जनसंख्या किसी न किसी मनोरोग से पीड़ित है. वैश्विक परिदृश्य से तुलना करें, तो आंकड़ा और भी भयावह नजर आता है, क्योंकि दुनिया में मानसिक और तंत्रिका (न्यूरो) संबंधी बीमारी से पीड़ितों की कुल संख्या में भारत की हिस्सेदारी लगभग 15 प्रतिशत है. देश में करीब 15 लाख लोग बौद्धिक अक्षमता और लगभग साढ़े सात लाख लोग मनो-सामाजिक विकलांगता के शिकार हैं. इतना ही नहीं, हमारे यहां अवसाद, तनाव और चिंता जैसी मानसिक समस्याओं की तरफ न तो अधिकांश लोगों का ध्यान जाता है, न ही वे इसे बीमारी मानते हैं. जागरूकता की कमी और अज्ञानता के कारण, मानसिक विकार से पीड़ित व्यक्ति के साथ आमतौर पर अमानवीय व्यवहार किया जाता है. इसके अतिरिक्त, मनोरोगियों के पास देखभाल की आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. थोड़ी-बहुत सुविधाएं हैं भी, तो वे गुणवत्ता के पैमाने पर खरी नहीं उतरती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वह दिन दूर नहीं जब अवसाद दुनियाभर में दूसरी सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या होगी. चिकित्सा विशेषज्ञ दावा करते हैं कि अवसाद हृदय रोग का मुख्य कारण है. मनोरोग बेरोजगारी, गरीबी और नशाखोरी जैसी सामाजिक समस्याओं का कारण भी बनता है.

हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य बेहद उपेक्षित मुद्दा रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में भारत में मनोविकार से पीड़ित प्रत्येक एक लाख मरीजों पर महज तीन साइकिएट्रिस्ट और मात्र सात साइकोलॉजिस्ट थे, जबकि विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर करीब सात साइकिएट्रिस्ट हैं. मानसिक अस्पतालों की संख्या भी विकसित देशों के मुकाबले भारत में कम ही है. मनोरोगियों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद अपने यहां सरकारी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च बहुत मामूली है. असल में, देश में मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत बहुत देर से महसूस की गयी. वर्ष 1982 में शुरू हुए ‘राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम’ का मूल उद्देश्य प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को एकीकृत करते हुए सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल की ओर अग्रसर होना था. इस कार्यक्रम के करीब तीन दशक बाद, अक्तूबर 2014 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की घोषणा हुई. इसके बाद ‘मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017’ अस्तित्व में आया. मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में इसे मील का पत्थर माना जा सकता है. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य मानसिक रोगियों को मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना है. यह अधिनियम मानसिक रोगियों को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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