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बिहार: बेहद मशहूर है जमुई के गिद्धौर का दशहरा, चंदेल राजवंश के द्वारा बनवाए मंदिर की जानिए खासियत..

Durga Puja 2023: जमुई के गिद्धौर में मनाए जाने वाले दुर्गा पूजा का इतिहास काफी पुराना है. प्राचीनकाल में महाराजा के आमंत्रण पर अंग्रेजी शासक भी मेले में यहां शिरकत करते थे. चंदेल राज रियासत से जुड़े झारखंड राज्य देवघर के विद्वान पंडितों द्वारा भगवती कीतांत्रिक विधि से विशिष्ट पूजा करायी जाती है.

कुमार सौरभ, गिद्धौर

Durga Puja 2023: जमुई के गिद्धौर में भी दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है. भारतीय इतिहास के काल खंड में देवी उपासना से जुड़ी कई अलौकिक कथाओं का वर्णन धार्मिक ग्रंथों एवं वेद पुराणों में वर्णित है. देवी उपासना की इन्हीं पौराणिक कथाओं की कड़ी से जुड़ा है चंदेल राजवंश के द्वारा स्थापित गिद्धौर राज रियासत का ऐतिहासिक दुर्गा पूजा. धार्मिक मान्यताओं एवं पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा गया है कि ‘यत्र नार्येस्तू पूज्यते तत्र रमणते देवता’ अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता हैं, और आदिशक्ति मां दुर्गा भी नारी शक्ति स्वरूपा हैं. आदिशक्ति मां भगवती की पूजा कभी चंदेल राजवंशियों का गढ़ रहे, गिद्धौर राज रियासत द्वारा भी करवायी जाती रही.

राज रियासत के विद्वान पंडितों से करवायी जाती रही पूजा..

अलीगढ़ के शिल्पकारों द्वारा निर्मित जैन धर्मं ग्रंथ में वर्णित उज्जूवलिया वर्तमान में उलाय नदी के नागी नकटी संगम तट पर अवस्थित मां दुर्गा के एतिहासिक मंदिर में तंत्र विद्या के तंत्रविधान की कुंडलिनी पद्दति से पूजा होती रही है. सदियों से राज रियासत के विद्वान पंडितों के द्वारा यहां दुर्गा पूजा करवायी जाती रही है, जो वर्तमान काल खंड में आज भी कायम है. चंदेल राज रियासत द्वारा पूजा को वर्ष 1996 में जनाश्रित घोषित किये जाने के बाद से बीते 28 वर्षों से ग्रामीण स्तर पर गठित शारदीय दुर्गा पूजा सह लक्ष्मी पूजा समिति के सदस्यों द्वारा यहां यह पूजा करवायी जा रही है.कभी अन्तर्राजीय स्तर पर सुविख्यात रहा गिद्धौर का यह दशहरा सूबे के श्रद्धालु भक्तों के लिए चार शताब्दी पूर्व से ही पौराणिक परंपरा के अनुरूप नियम निष्ठा के साथ देवी उपासना का बेमिसाल उदाहरण पेश करता आ रहा है जो आज भी यहां कायम है. बिहार में गिद्धौर का यह दुर्गा मंदिर तप जप साधना के लिये सर्व प्रतिष्ठित धार्मिक स्थल के रूप में सुविख्यात है.

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गिद्धौर की ऐतिहासिक पहचान

गिद्धौर जैसे कस्बे की ऐतिहासिक रूप से दो ही पहचान है, एक यहां की पुरानी राज रियासत तो दूसरा यहां का दशहरा और दोनों की ही अन्तर्राजीय स्तर पर विशिष्ट पहचान रही है. दूर्गा पूजा संपादन का अनोखा उदाहरण अंतर्जिला भर के श्रद्धालु भक्तों को यहां देखने मिलता है.

चंदेल राज रियासत के ग्रामीणों में दशहरे को ले यह युक्ति है चरितार्थ

गिद्धौर के इस ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर में मां पतसंडा की आराधना को लेकर सदियों से एक युक्ति चरितार्थ है, कि काली है कलकत्ते की दुर्गा है पतसंडे की. अर्थात काली के प्रतिमा की भव्यता का जो स्थान बंगाल राज्य के कोलकत्ता में है. वही स्थान गिद्धौर में आयोजित मां पतसंडा का यहां के दशहरा में है. यहां पर नवरात्र के पावन समयावधि में हर रोज हजारों श्रद्धालू अनंत श्रद्धा व अखंड विश्वास के साथ माता दुर्गा की प्रतिमा की आराधना एवं दर्शन करने के लिए मंदिर परिसर में उपस्थित होते हैं.

11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही यहां निरंतर चली आ रही है मां पतसंडा की पूजा

यहां यह कहना मुश्किल है कि गिद्धौर के दशहरा की शुरूआत कब और कैसे हुई. कालांतर में इसे मनाने के स्वरूप व संरचना में कई तरह के बदलाव आये. लेकिन निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जब से गिद्धौर चंदेल राज रियासत की नींव वीर विक्रम सिंह ने 11वीं शताब्दी में रखी थी, तब से से लेकर आज तक चाहे वह मूगल सम्राज्य के शासनकाल का समय रहा हो, ईस्ट इंडिया कंपनी का या फिर ब्रिटिश साम्राज्य या स्वतंत्र भारत का समयकाल रहा हो. यहां यह पर्व हर वर्ष विशेष रूप से बृहत पैमाने पर मनाया जाता है.

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