धर्मग्रंथों में व्रत, उपवास, पूजा-पाठ की जिस अनिवार्यता का उल्लेख है, उसका उद्देश्य मनुष्य के बेहतर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए है. इसी क्रम में पवित्र श्रीमद्देवीभागवत पुराण के तृतीय स्कंध के 26वें अध्याय में नवरात्र व्रत से लाभ का उल्लेख किया गया है. 62 श्लोकों के इस अध्याय के प्रत्येक श्लोक में व्रत के विधि-विधान के साथ आध्यात्मिक उपलब्धियों के अलावा भौतिक जगत की उपलब्धियों का भी जिक्र है. इस अध्याय के छठें और सातवें श्लोक में वसंत और शरद ऋतु को रोग-वर्द्धक काल बताया गया है तथा कहा गया है कि जो बुद्धिमान लोग होते हैं, वे इन दोनों नवरात्रों में व्रत तथा चंडिका देवी का पूजन अवश्य करें. पूजन के पूर्व कहें- ‘‘हे माता ! मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्र व्रत करूंगा. हे देवि! हे जगदम्बे ! इस पवित्र कार्य में आप मेरी संपूर्ण सहायता करिए.’’
विद्वानों और ऋषियों ने नवरात्र-व्रत के दौरान फलाहार का विधान किया है, जिसका आशय है कि साधना-उपासना-यज्ञ-अनुष्ठान-दान-तप से प्राकृतिक ऊर्जा का जो ‘फल’ मिलता है, उसका आहार किया जाये. जिस प्रकार हम हर दिन जीवन के लिए आहार के रूप में भोजन लेते हैं, उसी तरह शरीर में विद्यमान ऊर्जा-शक्ति को भी रिचार्ज करते रहना पड़ता है. जब हम अनाज के रूप में भोजन करते हैं, तो शरीर के रसायनों को उसे सुपाच्य करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है. इस प्रक्रिया को विश्राम देने की भी आवश्यकता है. लिहाजा इस अवधि में कोई दूध, दही, कोई फलाहार, कोई-कोई तो सिर्फ जल और वायु पीकर आंतरिक यंत्र-तंत्र को मंत्र की तरंगों से सशक्त करता है. उदाहरण लें तो किसी वाहन के पहिये में हवा कम है, तो वाहन-संचालन प्रभावित हो जाता है. हमारा शरीर भी इसी वायु से संचालित है. शरीर वायु का समुचित प्रयोग मूलाधार से सहस्रार को ऊर्जान्वित करता है.
व्रत में पथ्य का अनुसरण और अपथ्य का निषेध किया गया है. जीवन में हम उसी पथ को चुनते हैं, जो सुगम हो और कांटों से मुक्त हो. प्रायः रास्तों में सड़क के किनारों पर गंदगी, अतिक्रमण होते रहते हैं, तो उसे सक्षम संस्थान हटाते हैं. शरीर की भोजन-नलियों तथा अन्यान्य हिस्सों में अवरोध को हटाने के लिए व्रत तथा फलाहार ही होता है. इसी फलाहार का सीधा-सा अर्थ है कि मौसमी फल स्वास्थ्य के लिए ज्यादा उपयोगी है. हल-बीज-खाद से उपजायी गयी वस्तु की जगह लंबी अवधि तक गर्मी-जाड़े से लड़ते हुए जो पेड़ फल दे रहे हैं, उसमें विशेष ऊर्जा-तत्व हैं.
इसलिए भी फलाहार कर इस ऊर्जा को संचित किया जाये. वर्ष भर शरीर तंत्र को एक ही पद्धति से काम करने से बदलना भी फलाहार के माध्यम से हो जाता है. बदलाव नयापन लाता है. हम छह घंटे सोते हैं, यानी इस अवधि में आंखें देखने के काम को विरत रहती हैं. आंखों के इस व्रत का ही परिणाम कि ये आंखें दूसरे दिन देखने में सक्षम रहती है. मौन-शक्ति का भी यही लाभ है. इस प्रकार शरीर के आंतरिक तंत्र का मौन ही है व्रत, उपवास और हल्के फलाहार की प्रक्रिया. व्रत का उद्देश्य जीवन को प्रभावित करने वाली पंच ज्ञानेंद्रियों को नकारात्मकता से बचने का भी होना चाहिए. ये ज्ञानेंद्रियां जिस प्रकार का स्वाद, दृश्य, शब्द, गंध, स्पर्श लेती हैं, वैसा जीवन बनता है. नवरात्र का आशय ही है कि जीवन में वाह्यजगत के अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना.
श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार, नवरात्र में कुमारी कन्या के पूजन से मातारानी प्रसन्न होती हैं. पूजन में 2 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक की कन्या के पूजन का विधान है. प्रतिदिन एक ही कन्या की पूजा की जा सकती है या सामर्थ्य के अनुसार तिथिवार संख्या के अनुसार कन्या की पूजा कर सकते हैं.
इस वर्ष रविवार, 15 अक्तूबर से नवरात्र प्रारंभ हो रहा है. कलश स्थापना का शुभ-मुहूर्त (अभिजीत मुहूर्त) पूर्वाह्न 11:38 से मध्याह्न 12:23 बजे तक है. इस अवधि में पूजा के आसन पर बैठ जाएं और कोशिश यही करें कि दीपक प्रज्वलित हो जाये. उसके बाद पूजा देर तक भी की जा सकती है.
मां का आगमन : इस वर्ष मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आयेंगी, जो बेहद शुभ संकेत है.
हवनकुंड या हवन-पात्र का जल, चंदन, अक्षत से पूजन कर एवं उपली, लकड़ी रखकर कर्पूर से अग्नि प्रज्वलित करना चाहिए.
हवन में अग्निदेव का मंत्र न मालूम हो तो मानसिक आवाहन कर और चतुर्दिक जल से अभिसिंचित कर तथा चंदन, अक्षत अग्नि में डालकर पुष्प किनारे रखना चाहिए.
अग्नि, सूर्य, धरती आदि के लिए ‘स्वाहा’ बोलते हुए घी डालना चाहिए. स्वाहा के बाद, ‘यह आहुति ईष्टदेव के निमित्त है, मेरे लिए नहीं’ की भावना रखनी चाहिए.
महिलाएं घी से आहुति न दें. उनके लिए निषेध है.
संस्कृत में मंत्र न याद हो तो किसी देवी-देवता का स्मरण कर अंत में ‘स्वाहा’ बोलना चाहिए.
ईश्वर की अनगिनत कृपा मिली है, लिहाजा कोई जरूरी नहीं गिनती से ही आहुति दी जाये. अनगिनत आभार भी व्यक्त करते रहना चाहिए.
आहुति देते समय मन में घर के सबसे छोटे सदस्यों से शुरू कर हरेक के लिए तथा शुभचिंतकों के कल्याण के लिए यज्ञनारायण से प्रार्थना करते रहना चाहिए.
अग्नि का भलीभांति प्रज्वलन तथा लपट का दक्षिण दिशा की ओर उठना शुभ संकेत माना जाता है.
खुले में हवन की जगह घर के मंदिर के आसपास छत के नीचे ही हवन करना चाहिए, ताकि अग्नि की तरंगें अनंत आकाश में गुरुत्वाकर्षण में जाने के पहले यज्ञकर्त्ता को प्राप्त हो सके.
अंत में पुनः जल, अक्षत, पुष्प और नैवेद्य देकर विभूति (भस्म) आज्ञाचक्र, कंठ और नाभि में लगाना चाहिए.
यज्ञ के लिए लोहे के पात्र से नहीं, बल्कि सूर्वा प्रोक्षणी (लकड़ी के पात्र) से घी डालना चाहिए.