भारत त्योहारों का देश रहा है. यहां शायद ही कोई कोना होगा, जहां करीब हर महीने कोई पूजा नहीं होती. लेकिन इन दिनों एक अन्य त्योहार हमारे रीति-रिवाज का हिस्सा बनता जा रहा है. पिछले तीन दशकों से, भारत में चुनाव त्योहार जैसे बनते जा रहे हैं. हालांकि, इन त्योहारों में एकता और उल्लास नहीं दिखता. इनमें ‘फूट डालो और शासन करो’ वाले देवता की पूजा होती है. अगले महीने से पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम – में 16 करोड़ मतदाता 679 लघु देवताओं का चुनाव करेंगे. इन चुनावों से भारत की राजनीति पर शायद ही कोई फर्क पड़े, क्योंकि इनके तहत केवल 83 लोकसभा सीटें आती हैं. लेकिन, लगभग महीने भर चलने वाली राजनीतिक सरगर्मी से कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं का रसूख निश्चित रूप से तय हो जायेगा.
इन चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी, तीनों गांधी- सोनिया, राहुल और प्रियंका – कई मौजूदा मुख्यमंत्रियों और उनके प्रतिद्वंद्वियों की चुनाव जीतने की क्षमता दांव पर है. मुकाबला मुख्य तौर पर कांग्रेस और भाजपा के बीच है, और दूसरे किरदार या तो खेल खराब करने वाली या नगण्य भूमिका में हैं. इन चुनावों में जीत-हार का फैसला इस आधार पर नहीं होगा कि किसने कितनी योजनाओं की घोषणा की, या मुफ्त देने के वादे किये. असल फैसला मुख्यमंत्रियों और विधायकों के प्रदर्शन पर होगा. राष्ट्रीय नेता भीड़ जरूर जुटाते हैं, लेकिन प्रायः वे अपनी पार्टी के लिए उनके वोट हासिल करने में असरदार नहीं होते.
कांग्रेस के लिए, इस बार चुनौती न केवल अपनी सिकुड़ती चुनावी जमीन को पकड़ कर रखने की है, बल्कि इसके विस्तार की भी है. उसकी छवि केवल इसी से चमक जायेगी, अगर वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता बचा लेती है, और मध्य प्रदेश पर दोबारा कब्जा कर लेती है, जिसे भाजपा ने दल-बदल के दम पर छीन लिया था. तेलंगाना का गठन करवाने के बावजूद इसका श्रेय लेने में नाकाम रही कांग्रेस को वहां भी अपनी पहचान को मजबूत करना चाहिए. दूसरी तरफ, भाजपा को बहुत कुछ साबित करना है. उसे कुछ साल पहले तक अधिकांश राज्यों में राज करने की अपनी छवि को फिर से कायम करने के लिए मध्य प्रदेश में सत्ता में बने रहना होगा, और अन्य दो राज्यों में कांग्रेस को मात देना होगा. मगर उन राज्यों में भगवा ध्वज कैसे लहराएगा जहां उनकी हार हुई है? भाजपा के अंदरूनी लोगों का मानना है कि इसके लिए स्थानीय नेताओं को ज्यादा आजादी और अधिकार देना होगा. उन्हें लगता है कि पार्टी को दूसरे राज्यों से वीआइपी नेताओं को प्रचार के लिए भेजने के मॉडल को छोड़ना होगा, और भीड़ जुटाने के लिए पीएम मोदी के इस्तेमाल को कम करना होगा.
मोदी राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उनके तुरुप के इक्के और ब्रह्मास्त्र हैं, जिनसे 2024 की जीत की संभावना बढ़ेगी. लेकिन, स्थानीय स्तर पर निष्ठावान और स्वीकार्यता वाले नेताओं की घटती संख्या से उनका काम मुश्किल होता जा रहा है. यह उलझन कर्नाटक चुनाव में दिखी, जहां मोदी की सभाओं में भारी भीड़ जुटने के बाद भी पार्टी हार गयी. पिछले लगभग 30 विधानसभा चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि इन राज्यों में भाजपा की मारक क्षमता कम हुई है. बेशक, प्रादेशिक चुनावों के पहले चरण में उसने कुछ राज्यों को अपनी झोली में डाला है, जिसमें मोदी के करिश्मे का भी कमाल था. वर्ष 2017 तक लगभग 20 राज्यों में भाजपा अकेली या सहयोगियों के साथ राज कर रही थी. वर्ष 2018 से उसने इन्हें गंवाना शुरू किया, जब कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उससे सत्ता छीन ली. इसके बाद पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और बिहार भी उसके हाथ से निकल गये. केवल असम, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में नतीजे उम्मीदों के अनुरूप रहे. इस बीच, भाजपा के कुछ सहयोगियों ने भी एनडीए से नाता तोड़ लिया.
इनके अलावा, वाजपेयी-आडवाणी युग से अलग, जब शक्ति विकेंद्रित होती थी, मौजूदा नेतृत्व अधिकारों के केंद्रीकरण को पसंद करता है. एक नयी भाजपा में ऐसे नेता उभर रहे हैं, जिन्होंने अभी तक कोई बड़ी चुनावी सफलताएं नहीं दिलायी हैं, और उधर पुराने नेताओं से छुटकारा पाया जा रहा है. वाजपेयी जब पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा थे, तब प्रदेशों में बहुत सारे छोटे नेता चमक रहे थे, जिनमें मोदी की चमक सबसे ज्यादा थी. तब राज्यों में शिवराज चौहान, शांता कुमार, केशुभाई पटेल, प्रमोद महाजन, येदियुरप्पा, मदन लाल खुराना, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, वसुंधरा राजे और भैरों सिंह शेखावत जैसे नेता थे. ‘पहले पांच प्रदेश, फिर पूरा देश’ की रणनीति इन्हीं नेताओं के दम पर रची गयी थी. भाजपा ने वाजपेयी के नेतृत्व में पांच राज्य जीते, और मोदी के केंद्र में आने के बाद लगभग दर्जन भर और राज्य जोड़े. लेकिन, योगी आदित्यनाथ को छोड़ उसका कोई भी मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव जिताने में सक्षम नहीं है. वे मोदी और अमित शाह पर निर्भर रहते हैं.
कांग्रेस में स्थिति और बुरी है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याओं के बाद पार्टी एक बार भी लोकसभा चुनाव में बहुमत नहीं जुटा सकी है. वह 200 सीटों से ऊपर भी बस एक बार जा सकी है. इंदिरा गांधी ने पार्टी को अपनी निजी जागीर की तरह चलाना शुरू कर दिया था और वह दौर प्रादेशिक नेताओं की कब्रगाह साबित हुआ. उनके बाद राजीव गांधी और सोनिया गांधी भी इसी लकीर पर चलते रहे. सोनिया गांधी एनडीए से टूटे दलों की मदद से ही पार्टी को सत्ता में लौटा सकीं, मगर वह कांग्रेस को अकेली सत्ता नहीं दिला सकीं और दूसरी ओर बीजेपी राज्यों में उनकी सत्ता छीनती गयी. लेकिन, लगता है उन्होंने सबक लिया है, और राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सारे मिनी-मनमोहन सिंह जैसे नेताओं को और क्षेत्रीय स्तर पर भूपेश बघेल, सचिन पायलट, डीके शिवकुमार और भूपिंदर हुडा जैसे नेताओं को उतारा है. और इस रणनीति का चुनावी फायदा कर्नाटक और हिमाचल में दिखा. दोनों दल राष्ट्रीय नेताओं और बड़े नामों पर अत्यधिक निर्भर रहने का शिकार हुए हैं. यह मॉडल अब पुराना पड़ चुका है. समय आ गया है दोनों दल राजनीति के इंदिराकरण को छोड़ें. धरतीपुत्रों और पुत्रियों को किनारे रखने से दिल्ली दरबार के बादशाहोंं की तस्वीर चमक सकती है, लेकिन इससे आखिर में उनका आधार घटता जायेगा. मोदी के वोकल फॉर लोकल का जमीन पर भी पालन किया जाना चाहिए. अन्यथा देवताओं की चमकती मूर्तियां टूटे मंदिरों की बदरंग मूर्तियों में बदल जाने का खतरा रहेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)