फैसला करना कठिन काम होता है. लेकिन, अदालतों का तो काम ही फैसला करना होता है. न्यायाधीश एक निश्चित प्रक्रिया के अंतर्गत सुनवाई के बाद अपने विवेक का इस्तेमाल कर फैसला सुनाते हैं. लेकिन, कई बार यह उलझ जाता है. ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. इस मामले में एक पलड़े पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार था, और दूसरे पर जीवन का अधिकार. और सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के अधिकार को महत्वपूर्ण करार देते हुए अपना फैसला सुनाया है. यह मामला एक गर्भवती महिला का था जो अपने पेट में पल रहे 26 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति चाहती थी. भारत में मौजूदा कानूनों के तहत 24 साल तक के गर्भ के ही गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है.
लेकिन, इस मामले में महिला ने मानवीय आधार पर अदालत से रियायत देने की फरियाद की थी. उसका कहना था कि उसे डिप्रेशन के अलावा सेहत की और भी समस्याएं हैं. पहले से दो बच्चों की मां इस महिला का कहना था कि वह शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर तीसरे बच्चे का ख्याल रखने की स्थिति में नहीं है. उसने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हवाला देकर गर्भपात की अनुमति मांगी थी. उसके वकील की दलील थी कि अपनी जिंदगी के बारे में फैसला करने की स्वतंत्रता का अधिकार गर्भपात के अधिकार से ज्यादा बड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने महिला को गर्भपात की अनुमति दे दी थी. लेकिन, एक एम्स चिकित्सक के भ्रूण के जीवित बचने की संभावना जताने वाले ईमेल के बाद सरकार ने आदेश पलटने की अपील की.
फिर दो जजों की बेंच ने दोबारा सुनवाई की. मगर दोनों न्यायाधीशों का मत अलग रहा, जिसके बाद मामला मुख्य न्यायाधीश के पास गया. चीफ जस्टिस की अगुआई वाली पीठ ने आखिर फैसला सुना दिया है कि गर्भ 24 सप्ताह की सीमा को पार कर चुका है इसलिए गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस मामले में फैसला सुनाना अदालत के लिए आसान नहीं था, क्योंकि महिला की फरियाद भी उतनी ही मानवीय लगती है. लेकिन, अदालत ने चिकित्सकों की राय, मौजूदा कानून और अजन्मे बच्चे के जीने के अधिकार को तरजीह देते हुए अपना फैसला सुनाया है. अदालत ने अपने फैसले से यह संदेश देने की कोशिश की है कि फैसला भले कठोर लगे, लेकिन कानून में बिना निश्चित आधार के रियायत नहीं दी जा सकती.