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नोबेल की रोशनी में महिला श्रम शक्ति

हाइ स्कूल और मिडिल स्कूल तक पढ़ी महिलाओं के लिए पर्याप्त और अनुकूल नौकरियां हैं ही नहीं. ऐसे में उनके पास काम नहीं करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. ऐसी टिप्पणियां अक्सर हमारे कानों आती हैं कि ‘मेरी बेटी टेंपररी काम कर रही है, लेकिन शादी होते ही छोड़ देगी’.

इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार एक ही व्यक्ति को मिला है- हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर क्लॉडिया गोल्डिन को. वह अर्थशास्त्र का नोबेल पाने वाली तीसरी और यह पुरस्कार अकेली जीतने वाली पहली महिला हैं. नोबेल प्रशस्ति में उनके पांच दशकों के काम का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘पुरस्कार उन्हें महिला श्रम बाजार के बार में हमारी समझ बढ़ाने के लिए दिया गया है’. उनके कई महत्वपूर्ण योगदानों की जानकारी अब आम हो चुकी है, जिनकी चर्चा जरूरी है. उनका सबसे गहन अध्ययन अमेरिका के 200 से ज्यादा वर्षों के इतिहास में महिला श्रम की हिस्सेदारी और उसके परिणामों के बारे में है. अमेरिकी आंकड़ों से निकले उनके बहुत सारे निष्कर्ष दूसरे देशों पर भी लागू होते हैं, जिनमें भारत भी शामिल है.

किसी भी अर्थव्यवस्था के विकसित होने पर महिलाओं की रिकवरी यू-शेप में होती है. आर्थिक विकास के साथ, अर्थव्यवस्था में कृषि की जगह, पहले उद्योगों और अंत में सेवा क्षेत्र का प्रभुत्व बढ़ जाता है. कृषि वाले दौर में, महिलाएं पुरुषों के साथ खेतों में काम करती हैं. औद्योगिक चरण में काम ज्यादा बंधा हो जाता है, और कारखानों में उत्पादन की प्रक्रिया का हिस्सा बनना पड़ता है, जिससे महिलाओं की हिस्सेदारी घट जाती है. आर्थिक तरक्की होने के साथ सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ता जाता है, और महिलाएं फिर से बड़ी संख्या में योगदान करने में सक्षम हो पाती हैं. यह यू-शेप योगदान है, जिसमें आरंभिक चरण में हिस्सेदारी ज्यादा होती है, फिर घटती है और फिर समृद्धि आने पर दोबारा ऊंची हो जाती है. अमेरिका के आर्थिक इतिहास में यह लंबे समय तक देखा जाता रहा. यही मिसाल दूसरे देशों में भी देखी जाती रही, जो अभी विकास के अलग चरणों में हैं. इस तरह, यह पैटर्न देश और काल की सीमा से परे लागू होता है.

तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि ज्यादातर अमीर मुल्कों में सेवा क्षेत्र बहुत बड़ा होता है, और ऐसे में वहां श्रम में महिलाओं की हिस्सेदारी का दर (एफएलएफपीआर) भी ज्यादा होता है. यह 85 प्रतिशत, और स्वीडन जैसे देशों के मामले में 90 प्रतिशत तक हो सकता है. इस दर का मतलब ये है कि कामकाजी उम्र वाली 90 प्रतिशत महिलाएं या तो रोजगार से आय प्राप्त कर रही हैं, या काम खोज रही हैं. भारत में यह दर कम है. कुछ रिपोर्टों के अनुसार यह 20 प्रतिशत से भी कम है, और जी-20 देशों में सबसे कम है. वैसे इसे लेकर विवाद रहा है. भारत सरकार के इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में इसे 27.7 प्रतिशत बताया गया है.

महिला श्रम की यू-शेप हिस्सेदारी का एक और पहलू पारिवारिक आय और सामाजिक रीतियों से सामने आता है. बहुत गरीब परिवारों में महिलाओं के काम नहीं करने से घर नहीं चल सकता. इसलिए महिला श्रम की हिस्सेदारी ज्यादा होगी. परिवार की आय बढ़ने पर, महिलाएं कदम पीछे लेती हैं, और घर तथा बच्चों का ध्यान रखने लगती हैं. अमीरी और अत्यंत अमीर घरों में महिला श्रम की हिस्सेदारी फिर से बढ़ने लगती है. यानी यह भी यू-शेप में होता है, मगर पारिवारिक आय के आधार पर. इस पैटर्न पर सामाजिक रीतियों का भी असर पड़ता है. अगर कोई महिला घर से बाहर जाकर काम करती है, तो उसके साथ एक कलंक वाली भावना आ जाती है. समझा जाने लगता है कि घर का ‘मर्द’ या तो आलसी है या परिवार के लिए पर्याप्त कमाने में सक्षम नहीं है. यह धारणा हर समाज और संस्कृति में देखी गयी है. तो, सामाजिक कलंक की वजह से भी शायद मध्यवर्गीय परिवारों में महिलाएं काम में हिस्सा नहीं ले पातीं. यू-शेप हिस्सेदारी के पैटर्न में एक और कारण महिलाओं की शिक्षा का भी जुड़ जाता है. अनपढ़ या कम शिक्षित महिलाएं श्रम में ज्यादा हिस्सा लेती हैं. थोड़ी पढ़ाई (मिडिल क्लास तक) करने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी में कमी आती है. उच्च शिक्षा (कॉलेज या पीजी डिग्री) प्राप्त महिलाओं के वर्ग में हिस्सेदारी फिर से बढ़ती है.

यह भी यू-शेप है. यह भारत के संदर्भ में दिखाई देता है. लेकिन, यह श्रम की आपूर्ति की वजह से नहीं होता, यानी ऐसा नहीं कि मिडिल क्लास तक पढ़ी महिलाएं काम नहीं करना चाहतीं. यह श्रम की मांग पक्ष के कारण होता है. हाइ स्कूल और मिडिल स्कूल तक पढ़ी महिलाओं के लिए पर्याप्त और अनुकूल नौकरियां हैं ही नहीं. ऐसे में उनके पास काम नहीं करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. ऐसी टिप्पणियां अक्सर हमारे कानों आती हैं कि ‘मेरी बेटी टेंपररी काम कर रही है, लेकिन शादी होते ही छोड़ देगी’. ऐसा लगता है जैसे नौकरी बस शादी और मातृत्व से पहले की जानेवाला एक अस्थायी काम भर है. गोल्डिन और अन्य लोगों ने अपने अध्ययनों से दर्शाया है कि कैसे पुराने दिनों में, लगभग 60 प्रतिशत वयस्क महिलाओं के काम करने की उम्र या तो गर्भवती होने में या बच्चों का ध्यान रखने में बीत जाती थी. अगर हमने ही दादा-नाना की पीढ़ी को देखें तो उनके दर्जन भर भाई-बहन निकल आएंगे. कल्पना करें उनकी मांओं की क्या हालत होती होगी. परिवार नियोजन और विवाह में देरी आदि से यह स्थिति बदल गयी है. महिलाओं के बच्चे जनने की दर में भी तेज गिरावट आयी है. गोल्डिन के काम में भी महिला श्रम दर बढ़ाने में नसबंदी के विशेष योगदान का जिक्र किया गया है. उन्होंने कार्यस्थलों पर भेदभाव और समान वेतन के लिए महिलाओं के संघर्ष का भी जिक्र किया है.

भारत के लिए उनका नोबेल मिलना बड़ा ही सामयिक और प्रासंगिक है. भारत में श्रम में महिलाओं की हिस्सेदारी पिछले दो दशक से ज्यादा अर्से में तेजी से घटी है, हालांकि हाल में कुछ सुधार हुआ है. आर्थिक सर्वेक्षण में देशभर में सक्रिय एक करोड़ 20 लाख स्व-सहायता समूहों के मूक-विद्रोह का जिक्र किया गया है, जिनका संचालन लगभग पूरी तरह से महिलाएं कर रही हैं. हाल ही में संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण पर हुई प्रगति भी बहुत जरुरी थी. पंचायत स्तर पर आरक्षण का असर दिखाई भी दे रहा है. फिलहाल दो अंतरों को दूर करना बहुत जरूरी है. पहला, पुरुष और महिला श्रम की भागीदारी के अंतर को कम करना चाहिए. दूसरा, एक ही काम के लिए महिला और पुरुषों के वेतन के अंतर को खत्म किया जाना चाहिए. ये दो काम हुए, तो भारत की जीडीपी में जबरदस्त उछाल आएगा. गोल्डिन को मिले पुरस्कार से, ये मुद्दे चर्चा के केंद्र में आ गये हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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