डॉ कृष्ण कलाधर
झारखंड के आदिवासी और सदान समाज की कई धार्मिक परंपराएं घुली-मिली हैं. आज जिसे दुर्गापूजा के रूप में मनाया जा रहा है, उसे दसइं के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है. मुंडा जनजाति के लोग आश्विन शुक्ल दशमी को बकरे और मुर्गे की बलि देकर देवड़ा बोंगा को प्रसन्न करते हैं. दसइं का संथाली पर्व भादो मास से प्रारंभ होने वाले पारंपरिक जड़ी बूटियों तथा तंत्र-मंत्र के प्रशिक्षण के समापन पर गुरु-शिष्य परंपरा में मनाया जाता है.
षष्ठी तिथि से गांव के प्रशिक्षु युवक अपने नायक के नेतृत्व में कांसे की झाल(कामरू गुरु का प्रतीक) तथा मयूर पंख लेकर नृत्य गान करते हुए घर-घर से मकई, अनाज आदि इकट्ठा कर अपने गुरु को समर्पित करते हैं. तीन से पांच दिनों तक चलने वाले इस समारोह के बाद ही बेलबरण टांडी में गुरु से आशीर्वाद प्राप्त करने पर उनका प्रशिक्षण पूर्ण माना जाता है, जहां वे बाघिन बोंगा (बाघ)के समान शक्ति प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं. एक परंपरा के अनुसार इसमें खोये हुये हुड़द गुरु की खोज भी की जाती है. बकरे, मुर्गे या कबूतर की बलि दी जाती है.
खड़िया जनजाति की एक कथा में बताया गया है कि प्राचीन काल में वर्षा न होने पर देवी ने राजा को स्वप्न में खड़िया जाति के व्यक्ति से पूजा कराने के लिये कहा. राजा ने अपने कारिंदों से खड़िया पुजारी लाने के लिए कहा. किंतु भ्रमवश खड़िया लोगों ने समझा कि राजा उन्हें पूजने अर्थात् उनकी बलि चढ़ाने के लिए उन की खोज कर रहा हैं. वे जंगलों में छिप गये. बहुत कठिनाई से एक खड़िया व्यक्ति मिला, जिसने पूजा कर देवी को प्रसन्न किया और वर्षा हुई.
छोटानागपुर के इस वन-प्रांतर में दशहरा या दसइं का पर्व अपने स्थानीय रीति-रिवाज के साथ मनाया जाता है. सार्वजनिक मंडपों में मूर्तिपूजा का प्रचलन प्रारंभ होने के पूर्व लोग गांवों के देवी मंडपों में पूजा किया करते थे. पूजा का मुख्य भाग था– उपवास तथा बकरे की बलि देना. आमतौर पर बलि अष्टमी और नवमी की संधि वेला तथा उस के पश्चात दी जाती. किसी-किसी गांव में भैंसे की बलि देने का भी प्रचलन रहा है. नवमी तिथि को कई लोग खंडा अर्थात तलवार की पूजा भी करते थे, जिसकी वजह से इसे खंडाजितिया या खंडापरब भी कहा जाता था. कई गांवों में उरांव जनजाति के लोग नवमी तिथि को करमा भी मनाते हैं, जिसे दसइं करम कहा जाता है.
आज की प्रसिद्ध दुर्गापूजा का कोई रिवाज नहीं था. किसी-किसी गांव में ब्राह्मण कलश की स्थापना कर नौ दिनो तक चंडीपाठ किया करते थे, जिसे ‘मेढ़ बैठाना’ कहा जाता था. पालकोट के दशभुजी भगवती के प्रांगण में नागवंशी शासक बड़लाल साहब के द्वारा नौ दिनों तक विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी, जिसमें उनके कान से झूलते रत्न हीरा और हीरी को देखने के लिए भी अच्छी भीड़ हो जाती थी. अष्टमी तिथि को उपवास रखना आवश्यक समझा जाता था और महिलाएं इस पर अधिक ध्यान देतीं थीं.
दशमी तिथि को सायंकाल नीलकंठ पक्षी का दर्शन शुभ माना जाता था. इसके लिए लोग पहाड़ों और बगीचों में झुंड बना कर घूमते और पक्षी का दर्शन हो जाने पर उसे प्रणाम करते थे. दशमी तिथि को ही अंधेरा होने के बाद सभी लोग साफ सुथरे या नवीन वस्त्र पहन कर एक दूसरे के घरों में जाते और अपने से बड़ों के पांव छू कर उनका आशीर्वाद लिया करते थे. बुजुर्ग व्यक्ति उन्हें मौखिक आशीर्वाद के साथ पान, सौंफ या कटी हुई सुपारी भी प्रदान करते थे.
इस प्रथा को ‘गोड़लगी’ कहा जाता था. कुछ गांवों में इसके लिए कोई देवालय या स्थान निश्चित होता था, जहां सारे लोग जुट कर गोड़लगी करते थे. जागीरदारोें तथा राजाओं के यहां विशेष दरबार का आयोजन होता, जिसे पनबट्टी कहा जाता था. लोग उनके सम्मानार्थ कुछ राशि देकर अपना प्रणाम निवेदित करते. बदले में पान का बीड़ा प्राप्त करते. ये परंपराएं घटते क्रम में अब भी उपस्थित हैं. कहा जाता था कि दसइं में दसों दिशाओं के कपाट विघ्न बाधाओं से मुक्त होकर खुले रहते हैं.