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बड़े पर्दे पर राम की लीला

फिल्मकारों ने मूक फिल्मों के दौर से ही रामकथा को कहना, दिखाना शुरू कर दिया था. पहला प्रयास दादा साहब फाल्के की ‘लंका दहन’ (1917) था. इसके बाद ढेरों फिल्मों में राम और रामकथा के पात्र दिखे.

ज्यादा समय नहीं बीता है बड़े पर्दे पर ‘आदिपुरुष’ को आये. रामायण की कहानीे को एक अलग नजर से देखती-दिखाती इस फिल्म को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा था. दरअसल, भारतीय जनमानस की आस्था के सशक्त प्रतीक के तौर पर राम और उनकी कथा यहां की मिट्टी, हवा और पानी में इस कदर घुली-मिली है कि उनका कोई दूषित रूप दर्शक सहन ही नहीं कर पाते. यहां तक कि 80 के दशक के अंत में रामानंद सागर के जिस धारावाहिक ‘रामायण’ को सराहा गया, उसमें भी जब-जब कोई बात प्रचलित कथा से हट कर दिखाई गयी, दर्शकों ने प्रतिक्रिया में ढेरों पत्र भेज डाले. लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि राम और राम की कथा तो सिनेमाई पर्दे पर अनेक बार आयी मगर रामलीला को सिनेमा में गंभीरता से कम ही दिखाया गया.

फिल्मों में रामकथा

फिल्मकारों ने मूक फिल्मों के दौर से ही रामकथा को कहना, दिखाना शुरू कर दिया था. पहला प्रयास दादा साहब फाल्के की ‘लंका दहन’ (1917) था. इसके बाद ढेरों फिल्मों में राम और रामकथा के पात्र दिखे. अभिनेता प्रेम अदीब और अभिनेत्री शोभना समर्थ (अभिनेत्री काजोल की नानी) ने 40 के दशक में राम और सीता के पात्रों को ‘भरत मिलाप’, ‘राम राज्य’, ‘रामबाण’ जैसी फिल्मों में इतनी गहराई से निभाया कि उन्हें दर्शकों ने वही आदर मान देना शुरू दिया था जो ‘रामायण’ धारावाहिक में राम बने अरुण गोविल व सीता बनीं दीपिका चिखलिया को मिला. सिनेमा को समाज के लिए एक बुराई समझने वाले महात्मा गांधी ने अपने जीवन में जिस एकमात्र फिल्म को देखा था वह ‘राम राज्य’ (1943) थी. आधुनिक समय में भी रामायण से प्रेरित बहुतेरी फिल्में बनीं. वह चाहे 1987 की मनोज कुमार वाली ‘कलयुग और रामायण’ हो या 2010 में आयी मणि रत्नम की ‘रावण’.

राजामौली की ‘बाहुबली’

राजामौली की ‘बाहुबली’ महाभारत और रामायण के पात्रों व घटनाओं से प्रेरित थी. लेकिन रामलीला का कोई उल्लेखनीय मंचन हिंदी फिल्मों में कम ही हुआ. आमतौर पर रामलीला के मंचन को फिल्मों में हंसी-मजाक या उपहास के रूप में ही दिखाया गया. अमोल पालेकर वाली 1977 में आयी वाली फिल्म ‘घरौंदा’ के एक दृश्य में है कि मंच पर हनुमान बना पात्र, रावण बने पात्र से कहता है कि छोड़ दे बलवंत सिंह (सीता) को और सीता बना पात्र बीड़ी पीता हुआ मंच पर आता है. कई और फिल्मों में ऐसे उपहासपूर्ण सीन दिखते हैं. आयुष्मान खुराना की 2013 में आयी ‘नौटंकी साला’ हो या 2009 की राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘दिल्ली 6’, रामलीला को मजाकिया तौर पर ही इस्तेमाल किया गया. देखा जाय तो ये दृश्य वास्तव में रामलीलाओं के दूषित होने के संकेत भी दे रहे थे. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ रामलीलाओं में रामकथा की शुचिता को कम करके दिखाया गया है.

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रामलीला के इर्दगिर्द बुनी गयी कहानी

राजकुमार संतोषी की 2001 में आयी ‘लज्जा’ में सीता के समानार्थी नामों वाली चार नायिकाओं- जानकी, वैदेही, मैथिली और रामदुलारी के जरिये नारी की दशा का चित्रण था. इस फिल्म में भी रामलीला के दृश्य थे. राम कथा का एक गहराई भरा चित्रण हालांकि 2004 में आयी आशुतोष गोवारिकर की ‘स्वदेस’ में दिखा था. इसमें जावेद अख्तर के लिखे एक गीत में ‘मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में हैं…’ जैसी अर्थपूर्ण पंक्ति भी थी. रामलीला के इर्दगिर्द बुनी गयी कहानी पर 2001 में प्रतीक गांधी वाली ‘भवई’ आयी थी, जिसका दर्शकों ने शायद नाम तक न सुना हो. इस फिल्म में रावण का पात्र करने वाले युवक व सीता का चरित्र निभा रही युवती में प्रेम हो जाता है, और सारा समाज उनके विरुद्ध खड़ा हो जाता है. अब निर्देशक राकेश चतुर्वेदी ओम की फिल्म ‘मंडली’ आ रही है, जिसे पूरी तरह से रामलीला और उसके कलाकारों की मंडली पर केंद्रित किया गया है. यह फिल्म एक ऐसे शहर की कहानी है जहां रामलीलाओं के मंचन के दौरान आइटम डांस जैसी चीजें रामलीला के माहौल को दूषित कर रही हैं. नायक इसका विरोध करता है, और अपनी बंद मंडली को फिर खड़ा करता है. रामलीला के कलाकारों के निजी जीवन, उनकी मुश्किलों और दुविधाओं को भी यह फिल्म दिखाती है. प्रेमचंद की कहानी ‘रामलीला’ से प्रेरित इस फिल्म को राम की लीला को सिनेमा में जगह दिलाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास कहा जा सकता है.

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