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कैंसर स्क्रीनिंग को अनिवार्य बनाना जरूरी

भारत में हर साल सात नवंबर को राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जाता है. लेकिन, क्या यह काफी है? क्या भारत के हर राज्य में कैंसर की पहचान (डायग्नॉसिस) और उसके इलाज के मुकम्मल इंतजाम हैं?

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) ने एक शोध में बताया है कि अगले दो साल में यानी 2025 तक भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या में सात प्रतिशत तक वृद्धि होने की आशंका है. भारत में कैंसर से मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है. पिछले 22 साल में भारत में डेढ़ करोड़ से अधिक कैंसर मरीजों की मौत हुई है. इसके बावजूद भारत में कैंसर अधिसूचित बीमारियों में शामिल नहीं है. इस कारण नेशनल कैंसर रजिस्ट्री यह दावा नहीं कर सकती है कि उसके पास एकदम सटीक आंकड़े हैं. झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने अपने स्तर पर कैंसर को नोटिफायबल बीमारी घोषित किया है. बिहार सरकार को चाहिए कि वह कैंसर को अधिसूचित बीमारियों की श्रेणी में डाल दे. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हाल ही में ऐसा किया भी है. कैंसर अब झारखंड में अधिसूचित बीमारी है और यह इसकी गंभीरता के प्रति सरकार की संवेदनशीलता का प्रमाण है. यह एक छोटा, लेकिन सटीक कदम है.

भारत में हर साल सात नवंबर को राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जाता है. लेकिन, क्या यह काफी है? क्या भारत के हर राज्य में कैंसर की पहचान (डायग्नॉसिस) और उसके इलाज के मुकम्मल इंतजाम हैं? क्या केंद्र सरकार इसकी भयावहता को लेकर चिंतित है? कैंसर के अंतिम स्टेज के साथ पिछले तीन साल रह रहे मुझ जैसे मरीज को इन सवालों के जवाब निराश करते हैं क्योंकि वे नकारात्मक हैं. क्या यह सवाल नहीं उठता कि पश्चिमी देशों में जब कैंसर के 70 प्रतिशत मामले शुरुआती स्टेज में ही पकड़ में आ जाते हैं, तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो पाता? क्या वजह है कि भारत में कैंसर के 90 प्रतिशत से अधिक मामले अंतिम स्टेज में पकड़ में आते हैं. तब डॉक्टरों के पास मरीजों को ठीक कर पाने के विकल्प न के बराबर होते हैं. भारत में कैंसर से संबंधित रिसर्च न्यूनतम स्तर पर है. भारत सरकार अपनी ही संसदीय समिति की सिफारिशों के बावजूद कैंसर की भयावहता से मुंह मोड़े बैठी है.

सच तो यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में रहे मनोहर पर्रिकर, अनंत कुमार और अरुण जेटली जैसे होनहार राजनेताओं की मृत्यु कैंसर की वजह से हुई. उनका कैंसर भी बाद के स्टेज में पकड़ में आया क्योंकि हमारे देश में स्क्रीनिंग का कोई सार्थक अभियान नहीं चलाया जाता. अस्पतालों में कैंसर के मुकम्मल इलाज के उपाय नहीं हैं. इलाज और नयी तकनीकों वाली जांच तो छोड़िए, कैंसर के इलाज की सबसे सटीक और दुनियाभर में मान्य विधि कीमोथेरेपी तक की सुविधा सभी जिला मुख्यालयों में नहीं है. कैंसर की दवाओं की ऊंची कीमत की चर्चा थोड़ी देर के लिए न भी करें, तो सुविधाहीन होना कैंसर मरीजों की मौत की बड़ी वजह बना है.

क्या आयुष्मान कार्ड का होना कैंसर के संपूर्ण इलाज की गारंटी है? क्या आपको पता है कि एडवांस स्टेज में की जाने वाली इम्यूनोथेरेपी की कीमत प्रति डोज दस-दस लाख रुपये तक भी है. टारगेटेड थेरेपी की दवाओं का सालाना खर्च साल का साठ-साठ लाख रुपये तक भी है. कीमोथेरेपी, ऑपरेशन, रेडिएशन, अस्पताल में भर्ती होने का खर्च और अस्पताल के अभाव में दूसरे शहरों की बार-बार की जाने वाली यात्राएं मरीजों को तोड़ती हैं. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि भारत में किस तरह के जागरूकता कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. क्या सरकार यह बता पाने की स्थिति में है कि इन कार्यक्रमों से क्या हासिल हुआ है? जागरूकता कार्यक्रम दरअसल किसी किताब के चैप्टर भर नहीं हो सकते. अगर भारत सरकार को वास्तविक गंभीरता दिखानी है, तो उसे कैंसर स्क्रीनिंग अनिवार्य करना होगा.

अस्पताल में किसी भी बीमारी के इलाज के लिए आने वाले 40 साल से अधिक उम्र के सभी लोगों की कैंसर स्क्रीनिंग उनकी वल्नरेबलिटी के हिसाब से करानी होगी. मसलन, अगर 40 साल की कोई महिला अस्पताल में गयी है, तो उसके ब्रेस्ट कैंसर, सर्वाइकल कैंसर आदि की जांच करा दें. अगर इसी उम्र का कोई पुरुष अस्पताल आया है, तो उसके माउथ, लंग्स, प्रोस्टेट, लीवर आदि कैंसर की स्क्रीनिंग करायें. बच्चों की जांच अलग से हो. आयुष्मान कार्ड योजना में ऐसे पैकेज अलग से डाल दें. इसमें ज्यादा खर्च भी नहीं आयेगा. भारत में सर्वाइकल कैंसर का टीका उपलब्ध है, उसे 18 से 45 साल आयु की हर महिला को अनिवार्य तौर पर मुफ्त लगाना होगा. मैमोग्राफी और पैप स्मीयर जैसी जांच अनिवार्य क्यों नहीं की जा सकती?

हर अस्पताल में कैंसर के विशेषज्ञ डॉक्टर क्यों नहीं रखे जा सकते? कैंसर मरीजों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण क्यों नहीं हो सकता? सरकार चाहे, तो नर्सों को प्रॉपर ट्रेनिंग के बाद कीमोथेरेपी में लगाया जा सकता है और दूर बैठे आंकोलॉजिस्ट उन्हें वीडियो कॉल पर निर्देश दे सकते हैं. संभव हो, तो कैंसर के मुफ्त इलाज की व्यवस्था हो. इससे होने वाली हर मौत की जिम्मेदारी लेनी होगी और मुआवजा तय करना होगा. अन्यथा, लोग मरते रहेंगे और हम जागरूकता कार्यक्रमों के नाम पर मीडिया में विज्ञप्तियां पहुंचाते रह जायेंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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