“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसका उपयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं” – नेल्सन मंडेला. यह कथन झारखंड राज्य के संदर्भ में और अधिक प्रासंगिक लगता है. हमारा यह प्रदेश अपने स्थापना के बाद से ही विभिन्न चुनौतियों और संघर्ष का प्रत्यक्षदर्शी रहा है. रोते-गाते, आरोप प्रत्यारोप के 23 साल के पश्चात अभी भी ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जिन पर अथक परिश्रम की आवश्यकता है. झारखंड राज्य से सर्वांगीण विकास के लिए सामूहिक प्रयास ऐसे में अपरिहार्य हो जाता है. हम सब का एक समान दायित्व स्वतः निर्धारित हो जाता है.
जब अत्यधिक प्यास लगी हो तो किसी भी प्रकार का भोजन अरुचिकर लगता है. यह सरल सा कथन जटिल है. प्रत्येक समाज की आवश्यकता के अनुरूप ही उनमें बदलाव या बेहतरी का प्रयास होना चाहिए. हम शिक्षित एवं तथाकथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले चंद लोग अनेक बार यह समझ पाने में अक्षम हो जाते हैं कि सामने वाले को प्यास लगी है या भूख. हमारे अल्प ज्ञान से हमें लगता है कि ‘उनके’ लिए यही सबसे बेहतर है और यही एकमात्र विकल्प है. अनेक नीतियों और योजनाओं के निर्माण इसी सोच पर आधारित होते हैं, किंतु मात्र सरकार और तंत्र को दोष देना ठीक नहीं.
यदि शिक्षण को देखें, तो इसमें अनेक घटक हैं, जिनमें संस्थान, सरकारी तंत्र, छात्र, शिक्षक और अभिभावक भी शामिल हैं. और इन सब में एक अर्थपूर्ण समन्वय अत्यंत आवश्यक है. दुर्भाग्य से इन सभी घटकों में संवाद की कमी है या संवाद एकतरफा है, जहां उच्च संस्थाओं के निर्देशों का पालन की एकमात्र विकल्प है.
शिक्षा मात्र जीवन जीने का तरीका नहीं सिखाता है, “शिक्षा ही जीवन है”. शिक्षित होना और साक्षर होने में अंतर है. किंतु वर्तमान परिवेश में शिक्षा को जीवन या व्यक्तित्व निर्माण का कारक अब कम लोग ही मानते हैं. अब नौकरी या रोजगार ही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य है और यह शायद गलत भी नहीं है. ऐसे में जब हम अपने झारखंड राज्य के बेहतरी के लिए मंथन और प्रयास करते हैं तो यह प्रतीत होता है कि शिक्षा ही अब हमारे पास एक विकल्प है, जिस से हम सामाजिक सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, संवैधानिक, रोजजगार और सामाजिक सौहार्द को सुदृढ़ कर सकते हैं.
झारखंड में एक नवीन शैक्षणिक दृष्टिकोण, राज्य के बेहतरी के लिए नये आयामों को आत्मसात कर सकता है. इसकी व्यावहारिकता और प्रासंगिकता निर्माणाधीन झारखंड जनजातीय विश्वविद्यालय के संदर्भ में चर्चा करना चाहूंगा. पारंपरिक पाठ्यक्रम के अलावा झारखंड राज्य की जो प्राकृतिक क्षमता है, आदिवासी बहुल क्षेत्र में खनिज संपदा है, समृद्ध वन क्षेत्र है, स्थानीय आबादी, जिनमें विविधता में एकता है, इन सभी घटकों को ही बेहतर परिवर्तन का ईंधन बनाना होगा. यह तभी संभव है जब झारखंडी समुदाय प्रत्येक दृष्टिकोण से सशक्त होगा. शैक्षिक संस्थान एवं विश्वविद्यालय इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकतेे हैं.
आज से एक दशक के बाद, अनेक वर्तमान पारंपरिक नौकरियां शायद नहीं हों. जिस गति से तकनीकी विकास हो रहा है, यह सुगमता से अनेक पारंपरिक रोजगार को विस्थापित कर देगा. ऐसे में क्या हम इस अप्रत्याशित परिवर्तन के लिए तैयार हैं? लिखित पाठ्यक्रम अनेक संस्थानों में विद्यमान हैं, किंतु नवीन दृष्टिकोण में इन पाठ्यक्रमों को ‘सामुदायिक केंद्रित’ बनाना होगा. ऐसे में झारखंड जनजातीय विश्वविद्यालय ऐसी संस्थान के रूप में स्थापित हो, जहां नामांकन आपके पूर्व के शैक्षिक योग्यता को ही मात्र आधार ना माने. एक निरक्षर भी यहां के रोजगार उन्मुख पाठ्यक्रम में नामांकन ले सके. यह एक यूटोपियन अवधारणा के समान लगता है. समुदाय को प्यास लगी है या भूख यह हम उन्हें ही निर्धारित करने दें.
झारखंड में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं. ऐसे में यहां के छात्र हों या उस भौगोलिक क्षेत्र विशेष के समुदाय उनको पर्यटन प्रबंधन में सशक्त कर सकते हैं. उत्तर-पूर्वी राज्यों में ‘होमस्टे’ एक सफल प्रयोग है. जनजातीय ललित कला, चित्रकला, कलाकृतियां इत्यादि के निर्माण से लेकर मार्केटिंग तक के प्रबंधन से समुदाय को सशक्त और सुदृढ़ किया जाए. जनजातीय उद्यमिता को शैक्षिक तौर पर आगे बढ़ाया जा सकता है. झारखंड ऐसा राज्य है, जहां आनुवंशिक अध्ययन की आवश्यकता है. यहां के समुदाय विशेष में विशिष्ट आनुवंशिक रोग पाये जाते हैं. समुदाय को इन प्रयासों से जोड़ना होगा. आधुनिकता से आज हमारे गांव भी अछूते नहीं हैं और इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि ग्राम प्रबंधन को सामूहिक रूप से युवाओं को सशक्त किया जाए.
भाषा और संस्कृति की दृष्टिकोण से हम ‘विलुप्ति’ की ओर चुपचाप अग्रसर हैं. इनका संरक्षण एवं संवर्धन का दायित्व भी शैक्षिक संस्थान सामुदायिक भागीदारी के साथ ले सकते हैं. ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहां समुदाय को सशक्त किया जा सकता है. यह सारे प्रयास झारखंड राज्य के संदर्भ में उपयुक्त और सटीक हैं. महिला विशिष्ट अध्ययन, खेल विश्वविद्यालय का निर्माण, औद्योगिक विस्थापन प्रबंधन एवं पुनर्वास, स्थानीय खनन आपदा प्रबंधन, प्राकृतिक आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन, जनजातीय विशिष्ट संवैधानिक अध्ययन, पारंपरिक कृषि प्रबंधन, सामुदायिक वन प्रबंधन, स्वदेशी ज्ञान प्रणाली, मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों के साथ सामाजिक आर्थिक विकास, विकास में सामाजिक सांस्कृतिक बाधा, वन्यजीव आपदा प्रबंधन इत्यादि. ये विषय पहले से उपस्थित हैं, लेकिन इनमें सामुदायिक भागीदारी का अभाव है. शिक्षा को क्रियान्वित करना होगा. राजनीतिक इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए.
झारखंडी समुदाय के लिए यह प्रयास आर्थिक अस्तित्व के लिए है न कि पूंजीवाद के लिए. इसलिए हमारा जोर स्थानीय सशक्तिकरण पर होना चाहिए. वर्तमान परिदृश्य में स्थानीय, सामुदायिक विशेष और स्वरोजगार निर्माण पर हम प्रमुख रूप से अपना ध्यान केंद्रित करें. जिन सेक्टर्स में स्थानीय गांव या समुदाय विशेष को किसी भी प्रकार की यदि आर्थिक सबलता उनके अपने ही क्षेत्र के अंर्तगत मिलने की संभावना है, तो इन गांव या समुदाय को सरकार को चाहिए कि उन्हें स्वायत्तता प्रदान करे. उदाहरण के लिए यदि हम पर्यटन को देखें, तो पर्यटन से संबंधित जितने भी वहां के छोटे-बड़े रोजगार के अवसर बनेंगे, उनमें वहां किसी भी प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप ना हो. गांव के लोग यदि स्वतः आय सृजित कर सकेंगे तो वे स्वावलंबी बनेंगे.
आज वैसे व्यवसायिक पाठ्यक्रम तेजी से विकसित हो रहे हैं, जो हमें विश्व के शिखर तक शायद ले जायें. ऐसे में हम एक ग्लोबल इकॉनोमी पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. तीव्र गति से हम लोगों को ‘मशीन’ बनाने में लगे हैं. और शायद इसलिए मानव मूल्य और भावनाएं घटती जा रहीं हैं. मशीन में भावना नहीं होती, याद रखिएगा. हाल ही में जर्मनी के इंडोलॉजी विभाग, तुबिंगन विश्वविद्यालय में एक ऑनलाइन क्लास के लिए आमंत्रण था. अपने वक्तव्य में यह बात प्रमुखता से आयी थी कि किस प्रकार आधुनिक और मशीनी काल में एक समय के सांस्कृतिक और पारिवारिक रूप से समृद्ध देश जापान और चीन के नैतिक मूल्यों में तेजी से गिरावट आयी है. अब विद्वान इसका समाधान स्थानीय रूप से समुदाय के बीच ढूंढ़ रहे हैं.
निजीकरण के इस दौर में शैक्षिक संस्थाएं भी ‘इनपुट और आउटपुट’ के अनुपात को पहले जांचती है उसके बाद ही किसी प्रयास को अंगीकृत करती है. झारखंड कैडर के वरीय भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी के साथ इसी प्रकार के चर्चा में था. उपरोक्त प्रयासों पर मैंने अवरोध और विडंबना के विषय में बात की थी और कहा था कि सर ऐसे प्रयासों से यदि ‘धन संकलन’ संस्थान नहींं कर पाता है, तो ये सभी प्रयास कभी पाठ्यक्रम में शामिल ही नहीं होंगे. ऐसे प्रयासों को संस्थान ‘स्वयं वित्तपोषित’ की श्रेणी में रखते हैं. उन्होंने तब आश्चर्य से कहा था, शिक्षण संस्थानों को तो आगे आना ही होगा. कोई भी शिक्षण संस्थान एक जन कल्याणकारी पहल होती है. यहां ‘फायदे और नुकसान’ की बाद कहां से आ गयी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)