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वैदिक ऋचाओं से ग्रीक कथाओं तक : सूर्य का जयगान

धीरे-धीरे उनकी पूजा-परपंरा लोक जीवन में विसरित हुई और धर्म-पाखंड-भंजक प्रदेश ने शस्त्रीयता को कूट-पीसकर लोक जीवन का आडंबर विहीन पेय बना लिया.

डॉ विनय कुमार

साहित्याकार व मनोचिकित्सक

आज सुबह एक पार्क में टहलते हुए छठ के कई गीत सुने. पड़ोस के घर की बालकनी का आभार कि वहां यूट्यूब और स्पीकर की मदद से छठ का माहौल बनाने का मधुर प्रयास जारी था. कुछ अपरिचित आवाजों के बाद शारदा सिन्हा की आवाज गूंजी. शास्त्रीयता की तैयारी और लोक की मीठी सहजता को एक ही जल में परोसने वाली शारदा सिन्हा गा रही थीं – जागऽ सुरुज देव भइल विहान! मैंने महसूस किया पार्क में टहलने वालों की गति कुछ मद्धिम हो गयी है, संगीत ने जैसे बांध लिया था सब को. सबके मन सुर के धागे में बंधे-से थे. ऐसी शालीन टहल-कदमी पहली बार देख रहा था. क्या यह असर सिर्फ संगीत का था? शायद नहीं, संगीत में गुंथे बोल और बोल में बसे अर्थ भी कुछ कर रहे थे सब के साथ. एक लंबी परंपरा जोड़ रही थी सब को. धूप और गरमाहट की आदिम और अनिवार्य आवश्यकता जोड़ रही थी सब को.

दुनिया की सारी सभ्यताओं के बाशिंदों ने किया है इस सत्य का साक्षात्कार:

इतिहास और पुरातत्व को प्रमाण मानें, तो दुनिया के लगभग सारी सभ्यताओं के बाशिंदों ने इस सत्य का साक्षात्कार किया. वैदिक ऋचाओं से लेकर ग्रीक कथाओं तक सूर्य का जयगान! अमेरिका और मेक्सिको के इलाके, मिस्र और मध्य एशिया – कहां नहीं पूज्य हैं आप! कथा है कि कृष्ण के पौत्र साम्ब को कुष्ठ हुआ और चिकित्सा के लिए आयातित किये गये शकद्वीप के ब्राह्मण, जो सूर्य पूजन और वैद्यक के लिए विख्यात थे. कालांतर में वे मगध क्षेत्र में बसाये गये.

धीरे-धीरे उनकी पूजा-परपंरा लोक जीवन में विसरित हुई और धर्म-पाखंड-भंजक प्रदेश ने शस्त्रीयता को कूट-पीसकर लोक जीवन का आडंबर विहीन पेय बना लिया. यही कारण कि मगध में सूर्योपासना मंत्रों से नहीं, लोकगीत की स्वर लहरियों से होती है! हर गीत एक इस सत्य के स्वीकार का कि सूर्य के बिना जीवन नहीं, अन्न नहीं और स्वास्थ्य भी नहीं. सारे कष्टों से मुक्ति सूर्य की शरण में.

प्राकृतिक स्रोत के प्रति आभार व्यक्त करने का है यह अवसर

सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन संभव ही नहीं था. इस बोध ने प्राकृतिक समझदारी के आदिकाल से मनुष्य को सूर्य प्रति कृतज्ञ बनाये रखा है. कोई ऐसी सभ्यता नहीं, जहां सूर्य के लिए आदर भाव नहीं. भारत की तरह पूजा-अर्चना हो या न हो, एक सकारात्मक स्रोत के रूप में सम्मान तो है ही. यह अकारण नहीं है कि सनी डेज सब से अच्छे दिनों को कहा जाता है, और ईश्वर के लिए जब किसी रूपक की तलाश होती है, तो सूर्य की दिव्यता, दैदीप्यमानता और सर्व-सुलभता का साथ मिलता है. भारतीय संस्कृति में तो खैर महाशय प्रत्यक्ष देवता हैं ही.

तो छठ व्रत एक सार्वजनिक, सहज उपलब्ध और प्राणदायक प्राकृतिक स्रोत के प्रति आभार व्यक्त करने का अवसर है. यह अवसर हमें याद दिलाता है कि जो सबका है और सबको सहज ही उपलब्ध है, वही आदरणीय है, वही ईश्वर है. और इस ईश्वर की अर्चना-आराधना अकुंठ भाव से और अपनी सीमाओं के अंतर्गत होती है. जिसके पास जो है, उसे लेकर खुले मन से खुले में अर्पित करता है और जीवन के सातत्य का आशीष मांगता है. यहां कुछ भी छिपा नहीं. सब खुले में. सबको पता है किसके सूप पर क्या रखा है और सब एक-दूसरे की खुली निजता का सम्मान करते हैं. क्या अमीर और क्या गरीब, क्या सवर्ण और क्या शूद्र – सब के सब एक ही सफ में खड़े रहते हैं. एक-वस्त्रा भीगी काया, हाथ पर नैवेद्य से भरा सूप और एक ही दिशा में टकटकी लगाये आंखों में प्रार्थना.

सूर्य की किरणों के धागों से बंधे सबके मन

किरणों के धागों से सब के मन बिंधे और बंधे हैं आज एक साथ. आज सब ने मिलकर गलियां साफ की हैं. सार्वजनिक सहयोग से तोरण और वंदनवार बनाये गये हैं. गंगा सब के लिए एक है. किसी की कलसी का पानी कोई मांग ले रहा. आज सारी स्त्रियां एक ही परिवार की. एक की दादी सब की दादी, एक की चाची सब की चाची. घाट पर किसी का बेटा किसी को नहला दे रहा. कोई भी किसी से प्रसाद मांग रहा. मुझे याद आ रहा कि जब हम पटना हथुआ हॉस्टल में रहते थे. हॉस्टल के बाहर चादरें बिछा देते थे और व्रती और उनके परिजन हम घर से बिछड़े बटुकों की चादर भर दिया करते थे. उस भाव और नेह को याद कर आज भी आंखें भर आती हैं. मगर सनद रहे कि ये पंक्तियां लिखने वाला व्यक्ति साठ की उम्र पार कर चुका है. उसके पास अतीत अधिक है और शायद आज को देखने का चश्मा भी पुराना है. सच तो यही है कि बाजार ने छठ में पाखंड और वैयक्तिकता के लिए दरार ही नहीं, दरवाजे भी बना दिये हैं.

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