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जलवायु संकट में मददगार होगा कार्बन बाजार

हरित तकनीक की उपलब्धता न होने से छोटे और विकासशील देशों के उत्पाद कार्बन सीमा समायोजन के नाम पर खारिज हो सकते हैं. भारत समेत कई देश इसे संरक्षणवादी कदम बता चुके हैं.

धरती स्वस्थ रहे इसके लिए जरूरी है कि कार्बन उत्सर्जन की दर इसके सृजन से अधिक न हो. मिट्टी, वन, आद्रभूमि, मैंग्रोव, समुद्र कार्बन सिंक के स्रोत हैं. वर्ष 1970 से अब तक 35 प्रतिशत आद्रभूमियां खत्म हो चुकी हैं. बीते दो दशक में 54 प्रतिशत मैंग्रोव विलुप्त हो चुके हैं. पर्यावरण संरक्षण के लिए दो उपाय प्रमुख हैं, पहला कार्बन उत्सर्जन कम करना, और दूसरा, कार्बन सिंक तैयार करना. ऊर्जा संरक्षण व दक्षता से कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन में कटौती संभव है. वनीकरण से नया कार्बन सिंक भी तैयार होता है. प्रकृति से लेन-देन की इस व्यवस्था को कार्बन बाजार की शक्ल दी जा रही है. कार्बन बाजार की चर्चा सबसे पहले क्योटो प्रोटोकॉल (1997) में की गयी. इसके अंतर्गत 2005 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्बन क्रेडिट खरीदने-बेचने की व्यवस्था को मंजूरी मिली.

कार्बन उत्सर्जन को लेकर सिर्फ विकसित देशों की जवाबदेही तय होना क्योटो प्रोटोकॉल का सबसे बड़ा विरोधाभास था. तीस प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किया, इसलिए पूरा जोर यूरोप पर आ गया. कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर जो अपनी प्रतिबद्धता पूरी नहीं कर पा रहे थे, उन पर कार्रवाई की कोई नियामकीय व्यवस्था भी नहीं थी. अंतत: 2008 की आर्थिक मंदी ने जलवायु न्याय की इस अभिनव व्यवस्था को नाकाम कर दिया. हालांकि स्वैच्छिक कार्बन बाजार जारी रहा. पेरिस समझौता 2015, कार्बन बाजार को नियमन के दायरे में लेकर आया. इसमें हर देश ने स्वैच्छिक रूप से कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया.

इस लक्ष्य को हासिल करने की प्रक्रिया को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के रूप में सार्वजनिक किया गया. पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.2 दो देशों के बीच कार्बन क्रेडिट का नियमन करता है. वहीं अनुच्छेद 6.4 के तहत सरकारों की मंजूरी के बाद दो देशों के निकाय के बीच कार्बन क्रेडिट का आदान-प्रदान होता है. कार्बन क्रेडिट की सलाहकार संस्थाएं कंपनियों को उनकी परियोजनाओं और कारोबारी गतिविधियों से कार्बन उत्सर्जन कम करने का उपाय बताती हैं. इससे वह कार्बन क्रेडिट सृजित करते हैं. यह कार्बन क्रेडिट यूएनएफसीसी द्वारा तय नियमन पर बनायी गयी रजिस्ट्रियों में जमा होती हैं. कार्बन बाजार व्यवस्था कंपनियों, ग्रीन फंड और निवेश को जुटाने में मदद करती है. इस तरह हरित अर्थव्यवस्था मजबूत होती है.

भारत में स्वैच्छिक स्तर पर कार्बन साख का कारोबार 2005 से जारी है. इस वर्ष 28 जून को केंद्रीय विद्युत मंत्रालय ऊर्जा संरक्षण अधिनियम-2001 के तहत कार्बन क्रेडिट व्यापार योजना-2023 अधिसूचित की गयी. देश में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीइइ) को इसका नियामक बनाया गया है. इस अधिसूचना के मुताबिक, भारतीय कार्बन बाजार के लिए विद्युत मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में राष्ट्रीय संचालन समिति गठित होगी. यह समिति भारतीय कार्बन बाजार को संस्थागत रूप देने के लिए बीईई को सिफारिश सौंपेगा. भारत के बाहर कार्बन साख के व्यापार को नियामकीय दायरे में लाने के साथ उत्सर्जक क्षेत्रों की पहचान कर उन्हें भारतीय कार्बन बाजार के अधीन लाया जाना है. बीइइ कार्बन सत्यापन अभिकरणों को मान्यता देने के साथ उनकी जिम्मेदारियों और प्रक्रिया को भी परिभाषित करेगा. ग्रिड कंट्रोलर ऑफ इंडिया में कार्बन क्रेडिट की रजिस्ट्रियां जमा होंगी. विद्युत मंत्रालय ऊर्जा दक्षता ब्यूरो एवं कार्बन क्रेडिट संचालन समिति की सिफारिशों को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के साथ समय-समय पर साझा करेगा. इससे उत्सर्जन से जुड़ी चुनौतियां और समाधान के तरीके पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अधीन अधिसूचित किये जा सकेंगे.

कार्बन बाजार में क्रेडिट और ऑफसेट सबसे अधिक लोकप्रिय व्यवस्था हैं. एक कंपनी अक्षय ऊर्जा परियोजना में निवेश करने से लेकर वृक्षारोपण कर कार्बन क्रेडिट अर्जित करती है. कोई कंपनी यदि प्रत्यक्ष रूप से हरित तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है, तो वह दूसरी कंपनी से कार्बन क्रेडिट खरीद कार्बन उत्सर्जन की भरपाई करती है. कार्बन बाजार ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करता है. ऐसी कंपनियां जो अपने लिए निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जन करती हैं, उनके पास अतिरिक्त कार्बन प्रमाणपत्र (साख) होगा. इससे हरित पहल को लेकर कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा होगी.

कार्बन बाजार की मजबूती इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कार्बन टैक्स को लेकर अब तक विश्व अर्थव्यवस्था में एकरूपता नहीं है. हरित तकनीक की उपलब्धता न होने से छोटे और विकासशील देशों के उत्पाद कार्बन सीमा समायोजन के नाम पर खारिज हो सकते हैं. भारत समेत कई देश इसे संरक्षणवादी कदम बता चुके हैं. यह क्योटो और पेरिस समझौते की आत्मा कहे जाने वाले सामान्य किंतु विभेदित उत्तरदायित्वों (सीबीडीआर) की भी अनदेखी है. बेहतर होगा कि इयू समेत दुनियाभर के देश साझा कार्बन टैक्स विकसित करें.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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