रचना प्रियदर्शिनी
‘‘स्वागत में गाली सुनाईं ज चल सखी मिल के
चल सखी मिलके हो चल सखी मिल के…
इनका (वरपक्ष) के अईना दिखाईं ज चल सखी मिल के…’’
गांवों में अब भी इन गीतों को गाने की परंपरा है, पर शहरी जीवन से ये गीत लगभग विलुप्त हो चुके हैं, जबकि आपसी संबंधों को बेहतर बनाने में इन गाली गीतों की अहम भूमिका होती थी. वस्तुत: गाली गीत शादी-ब्याह, छट्ठी, मुंडन, भाईदूज जैसे सामाजिक-पारिवारिक उत्सवों तथा समारोहों में घर-परिवार की महिलाओं द्वारा गाया जानेवाला लोकगीत है. ये गीत अक्सर वर पक्ष एवं वधू पक्ष द्वारा एक-दूसरे को संबोधित करके गाये जाते हैं.
हथीया हथीया शोर कईले,
गदहो न तू लईले रे,
धत तेरे कि मौगा समधी,
गउवां तू हसवइले रे….
लोकगीतों का सुमधुर रूप है गाली गीत
प्रसिद्ध लोकगायिका चंदन तिवारी कहती हैं- ‘‘लोकगीतों की जो परंपरा हमारे पूर्वजों ने बनायी है, उनमें एक अलग ही आनंद की अनुभूति होती है. इन लोकगीतों की रचयिता प्राय: स्त्रियां ही रही हैं. जिनकी रचना उन्होंने नहीं भी की है, उन्हें स्वरबद्ध करने तथा सुर-ताल में पिरोने का काम स्त्रियों ने ही किया है. पहले के समय में घर-परिवार में कामकाज के दौरान स्त्रियां आपसी बातचीत, चुहल और व्यंग्य आदि से ही करती थीं, जिनसे इन लोकगीतों का प्रस्फुटन हुआ. सदियों से पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में लोकगीतों ने ही स्त्रियों को अपनी गीतों के जरिये आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान किया है. इसमें सामाजिक ताना-बाना के साथ उनकी वेदनाओं को आसानी से समझा जा सकता है..’’
‘‘जरा लाइट दिखा दो मैं मांगटीका देखूंगी
मांगटीका होगा खराब, पड़ेगी हंटर की मार
साले-भइसुरे को आज मैं जेल भेजूंगी….’’
(गुरहत्थी अथवा जेवर चढ़ाई की रस्म के दौरान वधूपक्ष द्वारा वर पक्ष को संबोधित करके गाया जानेवाला गीत)
रामजी के ब्याह में दशरथ जी ने भी सुना था ‘डहकन’
प्रसिद्ध लेखिका तथा थियेटर आर्टिस्ट विभा रानी कहती हैं- ‘‘मिथिलांचल में गाली गीतों को ‘डहकन’ कहा जाता है. डहकन की शुरुआत राम-सीता के विवाह से मानी जा सकती है, क्योंकि उससे पहले का कोई लिखित या वैध प्रमाण हमें नहीं मिलता. सर्वप्रथम श्रीरामचरितमानस में ही गाली गीतों का उल्लेख मिलता है. कहा जाता है कि श्रीराम जब शादी करने के लिए मिथिला आये, तो मिथिला की स्त्रियां उनके साथ छेड़छाड़ करते हुए गाती हैं –
‘‘सुनु सखी एक अनुपम घटना
अजगुत लागत भारी हे
खीर खाए बालक जन्माओल
अवधपुर के नारी हे…’’
बहुत फर्क है सामान्य तथा गाली गीतों में. दरसअल, इन गाली गीतों का उद्देश्य किसी को बेइज्जत करना या उसके मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ करना नहीं, बल्कि हंसी-मजाक, चुहल तथा छेड़छाड़ के माध्यम से पारिवारिक उत्सवों को सरलता और तरलता प्रदान करना है. ये ननद, देवर, भाभी, साली, सलहज, जीजा आदि संबंधों के बीच मिठास घोल कर उनके आनंद को दोगुना कर देते हैं, जैसे-
‘‘अरे देख बरतिया साला के,
कइसन बरतिया अइले रे
हमतो मंगलियई गोरका-गोरका
करका कहां से अइले रे…’’
इन गीतों में निहित है लोकमंगल की भावना
लोककला एवं संस्कृति के जानकार निराला बिदेसिया कहते हैं- ‘‘लोकगीत सामान्यजन के गीत हैं, जिनमें सहजता है, सरलता है और लोकमंगल की भावना निहित है. लोकगीतों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनमें किसी को ‘श्रेष्ठ’ या ‘सर्वशक्तिमान’ नहीं माना जाता है. रामचरितमानस में जिन प्रभु श्रीराम को भगवान मानकर उनके सम्मान में चौपाइयां गढ़ी गयी हैं, वहीं मिथिला के लोकगीतों में उन्हें दामाद के रूप में स्वीकार करते हुए महिलाएं कहती हैं कि ‘रामजी भइलें पहुंनवा हमार…’ दरअसल, लोकगीतों में अपनेपन का भाव इस कदर निहित होता है कि इसमें सबको एक समान या कहें कि ‘अपना’ मान कर उनके प्रति सम्मान या शिकायत का भाव अभिव्यक्त किया जाता है. जैसे- हिंदू धर्म में सूर्य को भगवान ‘भास्कर’ की उपाधि से नवाजा गया है, किंतु महापर्व छठ में महिलाएं जब गाती हैं- सोना सट कुनिया, हो दीनानाथ/ हे घूमइछा संसार, हे घूमइछा संसार / आन दिन उगइ छा हो दीनानाथ/ आहे भोर भिनसार…’, तो ऐसा लगता है मानो वे सूर्यदेव से अपनी समस्या बता रही हों. पुराने समय में लोग अगर वधू पक्ष द्वारा विवाह में अगर वरपक्ष के लोगों को विभिन्न रस्मों-रिवाजों के गालियां सुनने को नहीं मिलती थीं, तो वे शिकायत करते थे कि ‘यार, शादी में मजा नहीं आया. कितनी अजीब बात है न! पर यह सच है. गाली गीत दो भिन्न परिवेश और पारिवारिक परंपराओं का निर्वाह करनेवाले लोगों के आपसी संबंधों के मध्य व्याप्त तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.”
गाली गीतों का उद्देश्य किसी को बेइज्जत करना नहीं, बल्कि हंसी-मजाक, चुहल व छेड़छाड़ के माध्यम से पारिवारिक उत्सवों को सरलता और तरलता प्रदान करना है.
विभा रानी, थियेटर आर्टिस्ट
गाली गीत दो भिन्न परिवेश और पारिवारिक परंपराओं का निर्वाह करनेवाले लोगों के आपसी संबंधों के मध्य व्याप्त तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
निराला बिदेसिया, लोककला एवं संस्कृति के जानकार
लोकगीतों की जो परंपरा हमारे पूर्वजों ने बनायी है, उनमें एक अलग ही आनंद है. इन लोकगीतों की रचयिता प्राय: स्त्रियां ही रही हैं.जिनकी रचना उन्होंने नहीं भी की है, उन्हें स्वरबद्ध करने काम स्त्रियों ने ही किया है.
चंदन तिवारी, लोकगायिका
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