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समय पर न्याय देने का हो प्रयास

न्याय दिलाना भी एक मिशन होना चाहिए. ऐसे मिशन की शुरुआत इस पहचान से होनी चाहिए कि मामलों के निपटारे में देरी के कारण क्या हैं. देरी से निपटने के लिए अपरंपरागत तरीकों को अपनाने पर भी विचार किया जाना चाहिए.

भारत के लोकतंत्र के पवित्रतम स्थान संसद ने अपने ऐतिहासिक भवन से नयी इमारत में स्थानांतरण के साथ उस परिवर्तनकारी विषय को रेखांकित किया, जो केंद्र में भाजपा के आने को चिह्नित करता है. पुरानी इमारत का अपना इतिहास, भावना और कहानी है. जैसा कि केंद्रीय मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा, ‘यहां तक कि उस इमारत की ईंटों और दीवारों पर भी ब्रिटिश काल से लेकर आजादी के बाद भारत के 15 प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल तक की कहानियां और किस्से थे, यह हमेशा अमर रहेगी.’ इस स्थान को ‘संविधान भवन’ का उचित नाम दिया गया है, क्योंकि स्वतंत्र भारत का संविधान यहीं प्रस्तुत किया गया था, उस पर बहस की गयी थी और उसे अपनाया गया था. इस परिवर्तन के साथ हमें मूल वादों पर फिर से विचार करना चाहिए. संविधान की प्रस्तावना में अन्य बातों के साथ-साथ कहा गया है कि हम भारत के लोग, अपने सभी नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने का गंभीर संकल्प लेते है.

इस वर्ष चार अप्रैल को जारी तीसरी भारतीय न्याय रिपोर्ट में बताया गया है कि दिसंबर 2020 तक उच्च न्यायालयों और जिला न्यायालयों में कुल 4.9 करोड़ मामले लंबित थे. इनमें से लगभग 1.90 लाख मामले 30 वर्षों से और 56 लाख मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित थे. जेलों में बंद कैदियों में से 77 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं, जो सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं. वर्ष 2021 में 88,725 विचाराधीन कैदियों ने हिरासत में औसतन एक से तीन साल बिताया था, वहीं 24,033 से अधिक विचाराधीन कैदियों ने औसतन पांच साल और 11,049 कैदियों ने औसतन पांच साल से अधिक समय जेलों में काटा था.

दो अगस्त, 2022 तक सर्वोच्च न्यायालय में कुल 71,411 (56,365 दीवानी और 15,076 आपराधिक) मामले लंबित थे. यह न्याय न मिलने की चिंताजनक तस्वीर है. इसे कहने का सबसे सरल तरीका है कि ‘न्याय में देरी, न्याय न मिलने के बराबर है.’ मैग्ना कार्टा की धारा 40 में लिखा है, ‘हम किसी को भी न्याय के अधिकार से वंचित नहीं करेंगे या इसमें देरी नहीं करेंगे.’ वर्ष 1948 में अपनायी गयी मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा भी न्याय के अधिकार की गारंटी देती है. अत्यधिक देरी के गंभीर दीर्घकालिक परिणाम होते हैं. धीरे-धीरे यह न्याय प्रणाली में विश्वास को खत्म कर देती है.

क्रमिक सरकारों ने फास्ट ट्रैक अदालतें, विशेष न्यायाधिकरण, उपभोक्ता अदालतें, लोक अदालत आदि स्थापित करने जैसे कदम उठाये हैं. देरी के कारणों की भी पहचान की गयी है, जैसे सरकार सबसे बड़ी वादी है, अपर्याप्त बजट, जनसंख्या के मुकाबले न्यायाधीशों का कम अनुपात, क्षमता और प्रतिबद्धता की कमी, स्थगन का सामान्य प्रक्रिया बनना, लंबी न्यायिक प्रक्रिया, कार्य संस्कृति आदि. एक विशेष बुनियादी ढांचा निगम, न्याय प्रशासन की निगरानी और प्रशासनिक सुधार करने के लिए एक अलग प्राधिकरण की स्थापना, प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों को अलग करना, सरकार के साथ सहयोग और समन्वय आदि जैसे सुझाव दिये गये हैं. हालांकि आम वादी को न्याय अभी भी भ्रामक और अप्राप्य लगता है.

किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें, जो सुनवाई के लिए पांच साल से अधिक समय से इंतजार कर रहा है, उसके जीवन और स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव का दर्द चेहरे पर स्पष्ट रूप से दिखेगा. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस प्रकार पीड़ित होने वाले बड़ी संख्या में लोग गरीब और कई तरह से वंचित लोग हैं. लेकिन न्याय में देरी कुछ लोगों के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक है. अत: इस क्षेत्र में ठोस पुनर्विचार की तत्काल आवश्यकता है. आज कहा जाता है कि सरकार प्राथमिकताओं के शीघ्र कार्यान्वयन के लिए समर्पित है, और ‘मिशन मोड’ में लक्ष्य पाने की बात करती है. इसका एक उदाहरण सरकार का ‘नल से जल’ कार्यक्रम है. उसी प्रकार न्याय दिलाना भी एक मिशन होना चाहिए. ऐसे मिशन की शुरुआत इस पहचान से होनी चाहिए कि मामलों के निपटारे में देरी के कारण क्या हैं. देरी से निपटने के लिए अपरंपरागत तरीकों को अपनाने पर भी विचार किया जाना चाहिए. यदि आवश्यक हो, तो कानूनों, संहिताओं, नियमों, विनियमों, प्रक्रियाओं के संशोधन पर विचार किया जाना चाहिए. ऐसा करना संभव है.

निपटारे में तेजी के लिए मामलों को श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए. ऐसे वर्गीकरण के आधार पर निपटारे के लिए समय सीमा तय की जानी चाहिए और उसे लागू किया जाना चाहिए. देरी के लिए जवाबदेही तय की जानी चाहिए और कार्रवाई की जानी चाहिए. न्यायपालिका को भी जवाबदेही के अधीन किया जाना चाहिए. हर जिले में कम से कम एक दर्जन निगरानी करने वाले नियुक्त किये जा सकते हैं. उन्हें कंप्यूटर, वर्गीकरण और सुनवाई, साक्ष्य एकत्रीकरण/प्रस्तुति, बहस और अंतिम आदेश लिखने और वितरण की करीबी निगरानी के लिए सीमित प्रशासनिक कर्मियों की सहायता की आवश्यकता होगी. प्रगति को उच्चतम स्तर पर ट्रैक किया जाना चाहिए और हर छह महीने में संबंधित रिपोर्ट संसद में पेश की जानी चाहिए.

एक वर्ष से अधिक पुराने मामलों का निपटारा अलग अदालतों में होना चाहिए और जो मामले एक वर्ष या उससे कम पुराने हैं, उनके लिए अलग व्यवस्था होनी चाहिए. इन मामलों के लिए समय सीमा न्यूनतम होनी चाहिए. सरकार को न्यायिक प्रणाली को अवरुद्ध करने के बजाय अपने विवादों के निपटारे के लिए वैकल्पिक तंत्र पर विचार करना चाहिए. आगामी वर्षों में बड़े पैमाने पर भर्ती, प्रशिक्षण, बुनियादी ढांचे आदि की आवश्यकता हो सकती है और उसके बाद ही मामलों के निपटारे की कवायद आगे बढ़ायी जा सकती है.

समय पर एवं किफायती लागत पर न्याय देने के साथ उनकी समझ, जमीनी हकीकत और याचिकाकर्ताओं के दर्द को देखते हुए विशेष रूप से वरिष्ठ अधिवक्ताओं को स्वयंसेवी के रूप में आगे आने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए. इन सब प्रयासों का विरोध तो होगा, पर निष्पक्षता और पारदर्शिता के हित में पूरी प्रक्रिया के लिए खुले दिमाग, भरोसा बढ़ाने, सर्वदलीय सहमति, सुझावों को स्वीकार करने और दिशा बदलने की इच्छा की आवश्यकता होगी. जब न्याय देने की बात आती है, तो आधे-अधूरे मन से किये गये प्रयासों और/या पारंपरिक तरीकों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए. ऐसी साहसिक एवं सतर्क कार्रवाई की जानी चाहिए, जो बड़ी संख्या में पीड़ित लोगों के हित में हो, त्वरित लेकिन निष्पक्ष हो, जिससे कानूनी प्रक्रिया में कोई कमी न आये. यह अत्यंत कठिन कार्य होगा, पर इसे करना आवश्यक है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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