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डॉ प्रमोद कुमार तिवारी के 4 गो भोजपुरी कविता

प्रभात खबर के दीपावली विशेषांक में छपी डॉ प्रमोद कुमार तिवारी की चार भोजपुरी कविताएं आप यहां पढ़ें...

आत्‍महत्‍या

जइसे पट चेला के

गंडा बान्‍हेले सिद्ध गुरु

बाबूजी धरवले कुदार

रेघावत

कि धरती जइसन धीरज रखिहऽ बबुआ

‘धंधा’ ना ‘धरम’ हउए खेती

समहुत कइले बाड़ तऽ रखिहऽ एकर लाज

तू पेड़ बन जइहऽ

फूल आ फले तुरे ना

खोलरइयो उतारे आई लोग

दवाई के नांव पऽ

खान ले जाई सोर ले

घबरइह जिन लाल

तू बन जइहऽ गाय

तोहरा बचवन के हिस्सा के

आखिरी बूंद ले गार ले जाई समझदार लोग

भरोसा रखिह

अपना नासमझी पऽ

ढेर मन कलपी तऽ रख दिहऽ

ओके रात भर

टपकत महुआ के भीरी

नांव के ललसा ढेर जोर मारी

तऽ कुंइया भरल पोखरा में डुबकी लगा अइहऽ

भींजल आवाज में कहेले बाबूजी

कोना के एगो खूंटा पऽ

रहे दीहऽ बछरू

हज़ारन साल के कर्जा बा हमनी पऽ

जब कबो ट्रैक्टर के हाला से बथे लगे कपार

बैल के टुनटुनिया चाल के छांव में

सुस्‍ता लीहऽ कुछ देर।

अधीर मत होइहऽ बबुआ

मशीन ले बेसी ताकत होला माटी में

एकर मादक खुशबू

एकर जादू

एकर सम-भाव

कुछुओ नइखे दुनिया में

माटी जइसन

पइसा से मत जोखिहऽ

खेत आ माटी के

ढेर बेचैन होई मन

त सोचीहऽ, तोहरा लगे कतना तितली बाड़ी संऽ

तोहार लगावल गांछ पऽ कइसे

जगर-मगर करेले चिरई-चिरगुन

कलपबिरिछ जइसन फरत लउकी से

कइसे निहाल हो जाला पूरा गांव

आकाश जइसन होखेले माटी

निराश मत होइह सोना

देखिहऽ कुलांच मारत रुखियन के

बिलात जात गौरइयन के

तनी ठहर के सुनीहऽ

साग खोंटत बुचियन के हंसी

देखिहऽ ध्‍यान से

कबीली चोरावत बचवन के चेहरा के रौनक

झूठ मूठ के गुस्सा कऽ लीहऽ

के फेरु आवे खातिर ऊ भागऽ संऽ

जइसे बेहुंड़ी के लगे

चुकी-मुकी चलत आवे ली बिलार

भुला के आपन पिछिलका फटकार

दांज जिन करीहऽ बबुआ

मैनेजर-प्रोफेसर भाइयन से

पनियाइल आंख से कहले बाबूजी

ढेर मत सोचीहऽ

उनका कार आ चमकदार चेहरा के

बड़ कार वालन के महल

बहुत छोट होला

एतना

कि ना‍ आंट पावेले ओकरा में माई

दूर बसल बचवन के भेजत रहिहऽ पाहुर

जब गांव आई भाई त गठिया दिहऽ

पोखरा वाला खेत के दू मन गमकउआ चाउर

आ चितकबरी गइया के घीव।

जहाज धरे बदे सबेरहीं से हड़बड़ाइल

रिश्तेदार के गइला के बाद

मुस्कियात कहेले बाबूजी

खाली जवानी ना हऽ जीवन

बचपन के मिठास

आ बुढ़ापा के अवकाश के

भर हिक जीहऽ बबुआ

थकिहऽ मत बाबू

माई जइसन माटी

बा तोहरा साथे

पता ना कइसन

रिरियात आवाज में

हाथ धऽ के कहेले बाबूजी

गलतियो से घर में

मत ले अइहऽ सल्फास

हमेशा इयाद रखिह

तोहरा लगे

आकाश जइसन धरती बा ।

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बरधा

घर के संवाग रहे

मन के अभिमान रहे

लरिका से पहिले

बथान देखत रहले देखनहरू

नया बरधा के अइला पऽ

लोग के लर न टूटे

कि एक सांस में खींच दीही दू चास

कि पुट्ठा प आंख नइखे ठहरत

ऊ जनावर ना

हीरा मोती रहे

बेटा रहे, लाल रहे

खेती में बरकत

ओकरे कमाल रहे।

जब नेह से अंजुरी भर के नून चटावे

घर के मलकाइन

तऽ सब दर्द भुला जाए बरधा

बाकिर बरधा आखिर बरधा ठहरल

नेह से तोपल छल के ना देख पावे

कि जनमे कऽ स्‍वार्थी हऽ आदमजात

कि ऊ कवनो जीव ना बस गुलाम रहे

जवना से छीन लीहल जात रहे

ओकर प्राकृतिक हक

ई बात ओकरा के तब बुझाइल

जब ओहू से नीमन गुलाम भेंटाइल

नांव रहे ट्रैक्‍टर

जवन खेत से पहिले रौंदे लागल बरधा के

अपना मालिक के ओकर लगाम पकड़ले देख

अकबकाइल रह गइल बरधा

पुरान दिन इयाद पड़े लागल ओकरा

जब हर नीमन काम के बादो बदनामी मिले

हाड़तोड़ मेहनत खातिर बैल कहे लोगवा

जब मेहनत छोड़ मस्‍ती में दउड़ा लेबे

आ बन जाए सांढ़

तऽ मान देबे गांव-जवार

हर दर्द सहत इहां ले चहुंपल रहे बरधा

नाक में सूजा घुसावे से ले के

अंडकोश के कुटनी तक

कबो ऊफ ना कइलस

अब आंख के घृणा नइखे सहात ओसे

माई से ओकरा हिस्‍सा के दूध जब छीनल जाला

जब ओकरा हिस्‍सा के खाना दूसरा के दीहल जाला

त बिधना से पूछेला बरधा

कवना अपराध के दंड हमरा माथे

का गलत कइनी हम इंसान के साथे

कवना कारन हम एतना दरद सहनी

मेहनत काहे शरम कहावे?

जे बइठल चाभे

काहें ऊ नामी?

अब बरधा के भला के बतावे

जब इंसान के बरधा बनावे में

कवनो कसर नइखे बांचल

तऽ ओकर टेर सुनेवाला के बा?

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माटी ना आकाश छुअब

एगो झरनाठ बड़ रहे

पुरान घर जइसन

किसिम किसिम के चिरई-चुरगुन से भरल

मार-तमाम रिश्‍ता संजोवत

पता ना कब से जगर मगर

समय समय पऽ ओकरा में

नया बरोह उगल करे

माटी छुए के पियास लेले

घर मजबूत करे के आस लेले

कुछ तेज बरोह के सपना लागल

हमनी माटी ना आकाश छुअब जा

जतने प्रतिभाशाली बरोह रहे

ओतने आकाश के ओर भागे

बाकिर झरनाठ बड़ ओकर बंधन बन जाए

विकास के मांग रहे अनंत ऊंचाई

से ऊ काट लिहलस अपना के बड़ से

शुरू में बाउर बुझाइल

बरखा बुन्‍नी इयाद आवे

चिरई के राग सतावे

घर जवार माटी बोलावे

फेर सब भुला गइल

इयाद रहल बस अनंत ऊंचाई

सितारा सब के चमक

मंद ठंडा हवा

फेर एक दिन ऊ थाक गइल

आ खोजे लागल माथ पऽ छांव

तऽ पता चलल कि ऊ आकाश में ना

कंक्रीट में धंसल बा

आ शीशा के मजबूत चारदीवारी से घिरल बा

जवना के ऊ आकाश बूझले रहे

ऊ एगो आभासी स्‍क्रीन रहे

रिश्‍ता आ आकाश के मरीचिका रचेवाला

बड़का स्‍क्रीन।

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फागुन

खाली एगो मास के ना

कवनो गहिर नशा के नांव हऽ

फागुन

भांग जइसन ई सीधे चढ़ेला कपार पऽ

आ जब चढ़ेला

तऽ कवनो अउर दिशा में घूमे लागेली धरती

सुरुज देव आपन ढंग भुला जाले

जोरदार लहर के नांव हऽ फागुन

जवन बहा ले जाला मरजाद

एगो उफान हऽ

जवना में हेरा जाला सब गुन अवगुन

एगो महा-भाव

जेमे बुड़ा जाला जिनगी के सब अभाव

खाली शब्द ना संस्कृति हऽ फागुन

माघ के बाद वाला मास ना

पूरा प्रकृति हऽ फागुन

कवनो मीठ ईनार के नांव हऽ फागुन

जेमे डूब जाले उमिर

जब देवर बन कमर लचकावेला बुढ़वा

तऽ अलगे भाव में सना जाला गांव

लजाधुर कनिया बन जब नयन मटकावेले बुढ़िया

तऽ गजबे रंग में रंगा जाला गांव

ऊंच नीच, फूहर पातर, नया पुरान

कुछ दिन खातिर सब भुला जाला गांव

मेहरारून के कंठ में बसे वाला लोक में

मरदन के ऊंचा आवाज हऽ फागुन

ठेहुनिया आसन मार के गोल बांध

जब उठावेला पुरुष राग

तऽ गगन दमामा बाजे लागेला

हरियरी चढ़ जाला प्रकृति पऽ

आत्‍मा के भिंजावे वाला रंग हऽ फागुन

जवन काल के कपाल पऽ

अपना मस्ती के अइसन गुलाल रगड़ेला

जे के ना जरा पावे सम्‍मत के आग।

पुरान संस्कार के नांव हऽ फागुन

धीरे से कहेला कान में

अकुंठ काम से बड़ कवनो उत्सव नइखे

जहां प्रकृति नया रास रचावेले

जहां आदिदेव काल के निविबंध खोल देले

एगो जादू हऽ फागुन

सिधवो अदिमी के जोगी बना देला

जब कबीरा मस्ती में डूब के

गावेला जोगी ‘अनहद नाद’

तऽ जनम ‘जनम’ ना होखे

मृत्यु ‘मृत्यु’ ना रह जाला

तब मसाने के राख गुलाल बन जाला

जहां कामदेव अबीर बन के

जीवन के नश्वरता पऽ अमिट टीका लगावेले

खाली त्‍योहार ना जीवन दृष्टि हऽ फागुन

नया राग संजोवे बदे, अलगे सृष्टि हऽ फागुन

टेसू, पलास आ हरदी से आत्‍मा के रंगेवाला

मनभावन वृष्टि हऽ फागुन

भाव के एह सागर में

नदी नीयन डूबला के बाद

हर साल होखेला

नया जनम।

संपर्क : हिन्दी अध्ययन केंद्र, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, सेक्टर -29, गांधीनगर-382030, गुजरात, मो. – 9868097199, drpramodlok@gmail.com

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