पटना. बिहार में क्षेत्रीय दलों के सशक्त होने के साथ ही कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गयी. स्थानीय स्तर पर लोगों की पैदा हुई आकांकक्षाओं को स्वर देकर क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी पहचान बनायी. इसका असर राजनीति पर भी गहरे तौर पर पड़ा. आजादी के बाद भी राजनीति में केंद्रीय बनाम क्षेत्रीय की प्रवृति रही थी. पर कांगरेस का प्रभाव इतना व्यापक व गहरा था कि स्थानीय पार्टियां उसे टक्कर नहीं दे पा रही थी. 1967 में पांच राज्यों में बनी संविद सरकार की घटना नयी मोड़ थी.
कांग्रेस के खिलाफ गोलबंदी 1989 में शुरू हुई
स्थानीय राजनीतिक ताकतों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर खड़ी हुई भाजपा संश्रय कायम कर कांग्रेस के खिलाफ गोलबंदी में शामिल रही. पर कांग्रेस ऐसा नहीं कर पा रही थी. इसके कई कारण थे. कांग्रेस को ऐसा लगता था कि उसकी राष्ट्रीय छवि और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आगे क्षेत्रीय दलों का उभार मुमकिन नहीं है. लेकिन 1989 के बाद चुनावी परिदृश् से कांग्रेस लगातार कमजोर होती गयी और स्थानीय शक्तियां मजबूत. बिहार मे 1989 में जनता दल को 32 सीटें और बीजेपी को आठ सीटें मिली थी. तब तक कांग्रेस चार सीटो पर सिमट गयी थी.
1991 में जनता दल के आगे सब बौने थे
बिहार में 1991 के लोकसभा चुनाव में जनता दल को 31 और बीजेपी को पांच सीटों पर सफलता मिली. वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव में जनता दल के पास 22 और बीजेपी के पास 18 सीटे थी. लोकसभा चुनाव 1998 में राजद ने जनता दल से अलग होकर प्रत्याशी उतारे और उसको उस चुनाव मे 17 सीटों पर सफलता मिली. इस चुनाव तक बिहार में भाजपा 23 सीटों को अपने पक्ष में करने में कामयाब रही.
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भाजपा और जदयू के बीच नहीं था बड़ा फैसला
पहली बार 1999 के लोकसभा चुनाव में जनता दल (यू) ने भाजपा के साथ अपने प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतारे और बीजेपी को 23 और जदयू को 18 सीटों पर सफलता मिली. याद रहे रहे कि संयुक्त बिहार में लोकसभा की 54 सीटें थी. दक्षिण बिहार में (अब झारखंड) झारखंड मुक्ति मोरचा की अपनी राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि थी. उसके प्रतिनिधि लोकसभा और विधानसभाओं में पहुंचते रहे हैं. मोरचा के बनने के पहले भी झारखंड नामधारी पार्टियां अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी. वर्ष 2000 में बिहार बंटवारे के बाद 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद को 22 सीटों पर जबकि जदयू को छह और बीजेपी को पांच सीटों पर सफलता मिली.
जदयू की सीटें लगातार घटती रही
परिसीमन के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू के सांसदों की संख्या 20 हो गयी तो बीजेपी के पास 12 सांसद थे. इस चुनाव में राजद को सिर्फ चार सांसदों पर ही संतोष करना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाये जाने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 21, जदयू को दो और राजद को सिर्फ चार सीटों पर संतोष करना पड़ा. पिछले लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी और जदयू के गठबंधन ने सभी रिकार्ड तोड़ दिये. तब बीजेपी को 17, जदयू को 16 और लोजपा को छही सीटों पर सफलता मिली.